Wednesday, October 11, 2023

श्राद्ध के प्रकार
१. आन्तरिक श्राद्ध-(आदरणीय कृपाशंकर मुद्गल जी से) इसमें स्थूल तत्त्वों का क्रमशः सूक्ष्म तत्त्वों में लय होता है। भगवान् के परम धाम जाने पर युधिष्ठिर द्वारा साधना क्रम-वाक् की मन में आहुति, मन की प्राण में, प्राण की अपान में, उत्सर्ग सहित अपान की मृत्यु में, मृत्यु की पञ्चत्व में, पञ्चत्वकी त्रित्व में, त्रित्व की एकत्व में, आत्मा की आहुति अव्यय में की।
वाचं जुहाव मनसि तत्प्राणे इतरे च तं।
मृत्यावपानं सोत्सर्गं तं पञ्चत्वेह्यजोहवीत्॥४१॥
त्रित्वे हुत्वाथ पञ्चत्वं तच्चैकत्वेऽजुहोन्मुनिः।
सर्वमात्मन्यजुहवीद् ब्रह्मण्यात्मानमव्यये॥४२॥
(भागवत पुराण, १/१५/४१-४२)
हर चक्र से क्रमशः उत्थान का प्रतीक है, दूर्वा जो हर काण्ड से बढ़ती है। दूर्वा दान का मन्त्र है-
काण्डात् काण्डात् प्ररोहन्ति परुषः परुषस्परि। एवा नो दूर्वे प्र तनु सहस्रेण शतेन च॥ (पुरुष सूक्त, वाज. यजु, १३/२०)
इसका आरम्भ मूलाधार के अन्नमय कोष से होता है-
तदन्नेनातिरोहति (पुरुष सूक्त, २)
अन्नमय कोष अर्थात् मूलाधार के भूमि तत्त्व से ऊपर क्रमशः जल, अग्नि, वायु, आकाश और मन तत्त्व वाले चक्रों को पार परने पर पराशक्ति कुण्डलिनी सहस्रार में परमेश्वर के साथ विहार करती है-
महीं मूलाधारे कमपि मणिपूरे हुतवहं, स्थितं स्वाधिष्ठाने हृदि मरुतमाकाशमुपरि।
मनोऽपि भ्रूमध्ये सकलमपि भित्त्वा कुलपथं, सहस्रारे पद्मे सह रहसि पत्या विहरसि॥
(सौन्दर्य लहरी, ९) 
२. पार्वण श्राद्ध- प्रतिवर्ष आश्विन कृष्ण पक्ष में सभी पितरों का श्राद्ध किया जाता है। अमावास्या के दिन ज्ञात अज्ञात सभी पितरों का श्राद्ध होता है। माता-पिताका श्राद्ध उनकि मृत्यु तिथि के अनुसार होगा। उनका वार्षिक श्राद्ध भी मृत्यु की मास-तिथि के अनुसार होगा। ५ दैनिक महायज्ञों में एक पितृ यज्ञ है जिसमें पितरों को दैनिक जल द्वारा तर्पण करते हैं।
३. एकोद्दिष्ट-दशगात्र-किसी एक व्यक्ति के लिए किया जाता है। सृष्टि का आरम्भ १० सर्गों में हुआ-१ अव्यक्त से ९ व्यक्त सर्ग। इनको ब्रह्मा का दिन कहा गया है-अव्यक्ताद् व्यक्तयः सर्वे प्रभवन्त्यहरागमे। (गीता, ८/१८)। वेद में निर्माण काल को रात्रि कहा है। शान्त स्थिति में ही गर्भ में निर्माण कार्य होता है। अतः गर्भ धारण करने वाली देवी की पूजा रात्रि में होती है।
श्रीः वै दशमम् अहः (ऐतरेय ब्राह्मण, ५/२२)
मितमेव देवकर्म्म यद्दशममहः (कौषीतकि ब्राह्मण, २७/१)
अथ यद्दशरात्रं उपयन्ति। विश्वानेव देवान् देवतां यजन्ते (शतपथ ब्राह्मण, १२/१/३/१७)
मनुष्य का गर्भ में निर्माण चान्द्र मण्डल (चन्द्र कक्षा का गोल) में भृगु (सूर्य आकर्षण द्वारा ब्रह्माण्ड का सोम) तथा अंगिरा (सूर्य से प्रकाश विकिरण-अंगारा) के मिलन से होता है।
भृगूणाम् अङ्गिरसां तपसा तप्यध्वम्॥ (वाज. यजु, १/१८)
इत्येतद् वै तेजिष्ठं तेजो यद् भृगु-अङ्गिरसाम् (शतपथ ब्राह्मण, १/२/१/१३)
अथ नयन समुत्थं ज्योतिरत्रेरिवद्यौः सुरसरिदिव तेजो वह्निनिष्ठ्यूतमैशम्।
नरपतिकुलभूत्यै गर्भमाधत्त राज्ञी गुरुभिरभिनिविष्टं लोकपालानुभावैः॥ (रघुवंश २/७५)  
(नयन = सूर्य रूप चक्षु, समुत्थ ज्योति = अंगिरा, सुरसरि या आकाशगंगा का तेज = सोम)
अतः मनुष्य का जन्म चन्द्र की १० परिक्रमा (२७३ दिन में होता है। प्रेत शरीर चान्द्र लोक (चन्द्र माण्डला का बाह्य भाग) का है। उसका जन्म पृथ्वी के १० अक्ष भ्रमण (दिन) में होता है। १० दिन में प्रेत शरीर के निर्माण को दशगात्र कहते हैं। उसके बाद ११वें दिन श्राद्ध होता है। किन्तु अशौच १३ दिन रहता है। १ वर्ष में चन्द्र की १३ परिक्रमा (१२ तिथि चक्र सूर्य तुलना में) के प्रतीक १३ दिन हैं। महाभारत में बहुत बड़ा नर संहार होने के कारण ३० दिन का अशौच पालन हुआ था। 
४. एकोद्दिष्ट के भेद-
(१) विष्णु के ३ पद और परम पद-यह मुझे मुंगेर के एक विद्वान् महापात्र ने १९९९ ई. में बड़े भाई के श्राद्ध के समय बताया था। पण्डित ठीक से मन्त्र नहीं पढ़ पा रहे थे, तो उन्होंने कहा कि अशुद्ध उच्चारण द्वारा वेद का अपमान नहीं करें और पण्डित के बदले स्वयं पाठ किया। उसकी दक्षिणा भी पण्डित को ही दी। उसके बाद चर्चा में उन्होंने २ वैदिक मन्त्रों का अर्थ बताया। गुरु दक्षिणा रूप में उन्होंने महापात्र का अर्थ पूछा।
श्राद्ध में २ वैदिक मन्त्र श्राद्ध के भेद बताते हैं।
इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा निदधे पदम्। समूळ्हमस्य पांसुरे॥१७॥
तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः। दिवीव चक्षुराततम्॥२०॥
(ऋक्, १/२२/१७, २०)
ब्रह्म का चेतन या क्रिया रूप विष्णु है। उस परमात्मा की प्रतिमा मनुष्य आत्मा है। दोनों की गति एक प्रकार की है। विष्णु का प्रत्यक्ष रूप सूर्य है, जो प्रथम सविता या पिता है। उसका पिता ब्रह्माण्ड है, और उसका भी अन्तिम जनक परम-पिता या ब्रह्म है। इसे गायत्री मन्त्र में तत्-सविता कहा गया है। दृश्य सविता सूर्य है।
सूर्य के ३ पद इस पांसु (धूलि समूह, यह सौर मण्डल) में हैं। ताप क्षेत्र पृथ्वी तक अर्थात् सूर्य से १०० सूर्य व्यास दूर है। यहां सूर्य का रुद्र तेज शान्त होता है, अतः १०० को शत (शान्त) कहते हैं। १०० वर्ष बाद मनुष्य भी शान्त हो जाता है। 
तद्यदेतँ शतशीर्षाणँ रुद्रमेतेनाशमयंस्तस्माच्छतशीर्ष रुद्र शमनीयँ शतशीर्ष रुद्र शमनीयँ ह वै तच्छत रुद्रियमित्याचक्षते परोऽक्षम्। (शतपथ ब्राह्मण, ९/१/१/७)
शतयोजने ह वा एष (आदित्यः) इतस्तपति। (कौषीतकि ब्राह्मण उपनिषद्, ८/३)
सहस्र योजन (सूर्य व्यास) तक या शनि कक्षा तक तेज क्षेत्र है। यह शिवतर या अधिक शान्त है। सूर्य अक्ष (आंख, धुरी) होने से इसे सहस्राक्ष भी कहा गया है। यहां तक के ग्रहों का प्रभाव पड़ता है। आधुनिक गणित में भी पृथ्वी की कक्षा गति पर शनि तक के ग्रहों द्वारा विचलन की ही गणना होती है। इन ग्रहों के संयुक्त चक्र को सूर्य रथ का चक्र कहा गया है। इसका मान ४३,२०,००० वर्ष को ज्योतिष का युग कहा है। 
युक्ताह्यस्य (इन्द्रस्य) हरयः शतादशेति। (ऋक्, ६/४७/१८)
सहस्रं हैत आदित्यस्य रश्मयः (हरयः = रश्मयः)। (जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण, १/४४/५)
हे सूर्य सहस्रांशो तेजो राशि जगत्पते (स्तोत्र)
उसके बाद सौर मण्डल की सीमा तक सूर्य का तृतीय पद है। वहां तक सूर्य का प्रकाश ब्रह्माण्ड से अधिक है। 
त्रिंशद् धाम वि राजति वाक् पतङ्गाय धीयते। प्रति वस्तो रहद्युभिः॥ (ऋक्, १०/१८९/३)
नमः शिवाय च शिवतराय च (वाज.सं. १६/४१, तैत्तिरीय सं., ४/५/८/१, मैत्रायणी सं. १२६/५)
यो वः शिवतमो रसः(ऋक्, १०/९/२, अथर्व, १०/५/१७, वाज. सं. ११/५१) 
सूर्य प्रकाश की अन्तिम सीमा परम पद है, जहां तक सूर्य विन्दु रूप में दीखता है। इसे चक्षु (सूर्य) का आतत (विस्तार) कहा है। सूर्य सिद्धान्त में ब्रह्माण्डकी परिभाषा है कि वहां तक सूर्य किरणों का प्रसार या व्याप्ति है। 
आकाशकक्षा सा ज्ञेया करव्याप्तिस्तथा रवेः॥८१॥
ख व्योम ख-त्रय ख-सागर षट्क नाग व्योमाष्ट शून्य यम-रूप नगाष्ट चन्द्राः।
ब्रह्माण्ड सम्पुटपरिभ्रमणं समन्तादभ्यन्तरा दिनकरस्य कर प्रसाराः॥ (सूर्य सिद्धान्त, १२/८१, ९०)
यहां शिव का रूप महोदेव (ऋक्, ) या सदाशिव है।
महोदेवो मर्त्यां आविवेश॥ (ऋक्, ४/५८/३)
सदाशिवाय विद्महे, सहस्राक्षाय धीमहि तन्नो साम्बः प्रचोदयात्। (वनदुर्गा उपनिषद्, १४१)
(२) मासिक श्राद्ध-पृथ्वी से मनुष्य की आत्मा निकलने पर वह प्रेत हुआ। प्रेत = प्र + इतः, अर्थात् इह लोक (पृथ्वी) से प्रयाण हुआ।
पृथ्वी से चन्द्र मण्डल की गति एक वर्ष में पूर्ण होती है, प्रति मास वह थोड़ा थोड़ा आगे बढ़ता है। इसके लिए मृत्यु तिथि पर हर मास मासिक श्राद्ध होता है। 
चान्द्र मण्डल के बाह्य भाग में पितर रहते हैं। 
विधूर्ध्वभागे पितरो वसन्ति (सिद्धान्त शिरोमणि, गोलाध्याय, त्रि, १३)
पितृलोकः सोमः (कौषीतकि ब्राह्मण, १६/५)
मासि पितृभ्यः क्रियते (तैत्तिरीय ब्राह्मण, १/४/९/१)
मासा वै पितरो बर्हिषदः (तैत्तिरीय ब्राह्मण, १/६/८/३, ३/३/६/४)
ऋक् के सूक्त (१०/१५) में पितरों का विशद् वर्णन है।
उदीरतां अवर उत्परास उन्मध्यमाः पितरः सोम्यासः॥१॥
नीचे या भूमि के (अवर) पितर हैं, वह दूर हट जायें (उदीरताम्)। मध्यम या वायु के पितर थोड़ा और ऊपर जायें (अन्तरिक्ष गति में चन्द्र तक पहुंचे)।
पितरों को पिण्ड देते समय यह मन्त्र पढ़ते है। जिस पितर के लिए पिण्ड है, वह शान्ति से ग्रहण करे, बाकी हट जायें। भूमि पूजन के बाद भी ऐसा ही मन्त्र पढ़ा जाता है-
अपसर्पन्तु ते भूताः ये भूताः भूतले स्थिताः।
वैदिक मन्त्र भोजपुरी में गाली रूप में प्रचलित है, अर्थात् जीवित् व्यक्ति को प्रेत कह रहे हैं।
उदीरताम् = उधिया जा। उत्परासः = ऊफर पर।
(३) वार्षिक श्राद्ध-चान्द्र मण्डल में महान् आत्मा पृथ्वी के आकर्षण से बन्ध कर सूर्य की वार्षिक परिक्रमा कर रहा है। इसके लिए वार्षिक श्राद्ध होता है।
चान्द्र मण्डल में सोम युक्त महान् आत्मा है। उसका एक अंश सूर्य किरणों के दबाव से धीरे धीरे सौर मण्डल से बाहर निकलता है। रास्ते में मंगल (सेनापति रूप) के २ उपग्रह २ कुत्ते हैं। अवान्तर ग्रहों को देव सेना कहा गया है। उसके बाद वे शनि अर्थात् यम लोक तक पहुंचते हैं। शनि के वलय भाग को ३ भागों में बांटा गया है-शनि गैसीय पिण्ड है, उसकी सीमा पर प्रथम जल जैसा प्रवाह उदन्वती है, मध्य में अन्न (पीलु) के कणों का प्रवाह पीलुमती, आकाश (द्यौ) के निकट प्रद्यौ (paradise) है।
सूर्यं चक्षुषा गच्छ वातमात्मना दिवं च गच्छ पृथिवीं च धर्मभिः॥७॥
यास्ते शिवास्तन्वो जातवेदस्ताभिर्वहैनं सुकृतामु लोकम्॥८॥
अति द्रव श्वानौ सारमेयौ चतुरक्षौ शबलौ साधुना पथा॥११॥
या ते श्वानौ यम रक्षितारौ चतुरक्षौ पथिषदि नृचक्षसा॥१२॥
उत् त्वां वहन्तु मरुत उदवाहा उदप्रुतः॥२२॥
ये निखाता ये परोप्ता ये दग्धा ये चोद्धिताः। 
सर्वान् तानग्न आ वह पितॄन् हविषे अत्तवे॥३४॥
(४ प्रकार की अन्त्येष्टि-खात या गड्ढे में दबाना, परोप्ता (ऊपर रखे गये-पारसी विधि), दग्ध (दाह संस्कार), उद्धित (समुद्र में मृत्यु होने पर जल में फेंकने के अतिरिक्त अन्य उपाय नहीं है)
उदन्वती द्यौरवमापीलुमतीति मध्यमा। 
तृतीया ह प्रद्यौरिति यस्यां पितर आसते॥४८॥
ये नः पितुः पितरो ये पितामहा य आविविशुरुर्वन्तरिक्षम्।
य आक्षियन्ति पृथिवीमुत द्यां तेभ्यः पितृभ्यो नमसा विधेम॥४९॥ अथर्व वेद (१८/२)
(४) गया श्राद्ध-आत्मा परमात्मा या विष्णु का रूप है, अतः इसका वाहन भी गरुड़ रूप है जिसकी गति के लिए गरुड़ पुराण का पाठ है। सूर्य किरण का दबाव गौ पुच्छ है। यहां गौ का अर्थ किरण है।
गय प्राण शनि तक जाने पर उसका गया श्राद्ध होता है जो सूर्य की उत्तर गति की सीमा कर्क रेखा की मध्यम स्थिति पर है। अभी कर्क रेखा थोड़ा दक्षिण हट गयी है। गय प्राण इसके बाहर के लोक में जाने परया सौर मण्डल के बाहर जाने पर उसका ब्रह्म कपाल (ब्रह्माण्ड) में जाने का श्राद्ध होता है। यह बद्रीनाथ में होता है जो सौर मण्डल के ३० धाम ( पृथ्वी सतह पर ३० अक्षांश) की प्रतिमा है।
स यदाह गयो असीति सोमं या एतदाहैष ह वै चन्द्रमाभूत्वा सर्वान् लोकान् गच्छति तद् यद् गच्छति तस्माद् गयः तद् गयस्य गयत्वम् (गोपथ ब्राह्मण, पूर्व, ५/१४)
प्राणा वै गयाः (शतपथ ब्राह्मण, १४/८/१५/७)
गयस्फानः प्रतरणः सुवीर इति गवां नः स्फावयिता प्रतारयितैधीत्याह (ऐतरेय ब्राह्मण, १/१३)
गयस्फानः प्रतरणः सुवीरो अवीरहा प्र चरा सोम दुर्यान्॥ (ऋक्, १/९१/१९)
५. महापात्र-पात्र का अर्थ बर्तन है। सबसे बहुमूल्य वस्तु मनुष्य मस्तिष्क है। उसका पात्र अर्थात् सिर महापात्र है। अतः किसी विभाग के मुख्य को भी उसका सिर या महापात्र कहते हैं। कथा सरित्सागर में एक कथा है कि महावतों में विवाद होने पर वे हाथी-महापात्र के पास निर्णय के लिए गये। भुवनेश्वर में लिंगराज मन्दिर के निकट हाथी महापात्र मार्ग है।
पात्रता का अर्थ योग्यता है, अर्थात् शरीर रूपी पात्र में कितनी शक्ति या बुद्धि आ सकती है। 
दान के लिए पात्र वह है, जो उसका उचित उपयोग कर सके। मनुष्य की मरणोत्तर गति के लिए दान का सबसे योग्य पात्र खोजते हैं-वह महापात्र है।
मृतक का सिर दक्षिण दिशा की ओर ही क्यों रखना चाहिए एवं कपाल क्रिया का सच
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मृत देह को दक्षिणोत्तर क्यों रखते हैं ?👉
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जीव की प्रेतवत् अवस्था, पंचप्राणों एवं उपप्राणों के स्थूल देह संबंधी कार्य की समाप्ति दर्शाती है । जिस समय जीव निष्प्राण हो जाता है, उस समय जीव के शरीर में तरंगों का वहन लगभग थम सा जाता है व उसका रूपांतर ‘कलेवर’ में होता है । ‘कलेवर’ अर्थात स्थूल देह की किसी भी तरंग को संक्रमित करने की असमर्थता दर्शाने वाला अंश । ‘कलेवर’ अवस्था में देह से निष्कासन योग्य सूक्ष्मवायुओं का वहन बढ जाता है । मृत देह को दक्षिणोत्तर रखने से कलेवर की ओर दक्षिणोत्तर में भ्रमण करने वाली यम तरंगें आकर्षित होती हैं और मृत देह के चारों ओर इन तरंगों का कोष तैयार हो जाता है । इससे मृत देह की निष्कासन योग्य सूक्ष्म वायुओं का अल्प कालावधि में विघटन होता है । निष्कासन योग्य सूक्ष्म वायुओं का कुछ भाग मृत देह की नासिका व गुदा (मलद्वार) से वातावरण में उत्सर्जित होता है । इस प्रक्रिया के कारण, निष्कासन योग्य रज-तमात्मक दूषित वायुओं से मृत देह मुक्त हो जाता है, जिससे वातावरण में संचार करने वाली अनिष्ट शक्तियों के लिए देह को वश में करना बहुत कठिन हो जाता है । इसीलिए मृतदेह को दक्षिणोत्तर रखा जाता है ।

व्यक्ति की मृत्यु होने के उपरांत उस की देह घर में रखते समय उसके पैर दक्षिण दिशा की ओर क्यों करते हैं ?
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👉 दक्षिण यम दिशा है । व्यक्ति का प्राणोत्क्रमण होते समय उसके प्राण यम दिशा की ओर खींचे जाते हैं । देह से प्राण बाहर निकलने के उपरांत अन्य निष्कासन-योग्य वायु का देह से उत्सर्जन प्रारंभ होता है । इस उत्सर्जन की तरंगों की गति तथा उनका आकर्षण/खींचाव भी अधिक मात्रा में दक्षिण दिशा की ओर होता है ।

👉 व्यक्ति की कटि के निचले भाग से (कमर के नीचे का भाग) अधिक मात्रा में वासनात्मक तरंगों का उत्सर्जन होता रहता है, वह अधिक उचित पद्धति से हो, इसके लिए यम तरंगो के वास्तव्य वाली दक्षिण दिशा की ओर ही उस व्यक्ति के पैर रखने का शास्त्र है । ऐसा करने से यम तरंगों की सहायता प्राप्त होकर व्यक्ति की देह से उसके पैर की दिशा से अधोगति से अधिकाधिक निष्कासन-योग्य तरंगे खिंचकर इस वायु का योग्य प्रकार से अधिकतम मात्रा में उत्सर्जन होता है जिससे चिता पर रखने से पूर्व देह अधिकतम मात्रा में रिक्त हो जाती है । यह दिशा अधिकाधिक स्तर पर देह से बाह्य दिशा में विसर्जित होने वाली निष्कासन-योग्य वायु के प्रक्षेपण के लिए पूरक होती है ।

👉 यम (दक्षिण) दिशा में यम देवता का अस्तित्व होता है । इसलिए उन के सान्निध्य में देह से प्रक्षेपित होने वाली निष्कासन योग्य वायु के उत्सर्जन के उपरांत विलिनीकरणात्मक प्रक्रिया अधिकाधिक प्रमाण में दोष विरहित करने का प्रयास किया जाता है, अन्यथा निष्कासन-योग्य वायु के उत्सर्जन के लिए संबंधित दिशा पूरक न रखने पर, ये तरंगें घर में अधिक समय तक घनीभूत होने की संभावना होती है; इसलिए यमदिशा की ओर इस निष्कासन-योग्य तरंगों का वहन होने के लिए मृत व्यक्ति के पैर घर में दक्षिण दिशा की ओर रखने की पद्धति है ।’
मृत देह घर में रखते समय मृतक के पैर दक्षिण दिशा में रखने का शास्त्र ज्ञात न होने के कारण वर्तमान में कुछ स्थानों पर घर में मृतदेह रखते समय मृतक के पैर उत्तर की ओर रखने का अयोग्य कृत्य किया जाता है ।
मृतदेह को श्मशान में ले जाने के उपरांत मृतदेह चिता पर रखते समय मृतक के पैर उत्तर दिशा में रखना आवश्यक होता है ।

अंतिम संस्कार के समय कपाल क्रिया का सच
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हम सभी ने शमशान में अंत्येष्टि के समय देखा है कि मृतक व्यक्ति की चिता जलने के कुछ समय उपरांत सिर पर लकड़ी का डंडा मारा जाता है।

शव को मुखाग्नि देने के करीब आधे घंटे बाद जब शव की चमड़ी और मांस का ज्यादातर भाग जल चुका होता है, तब एक बांस में लोटा बांधकर शव के सिर वाले हिस्से में और घी डाला जाता है।

जिससे की सिर का कोई हिस्सा जलने से न बच जाए। इसे कपाल क्रिया कहते हैं। गरुड़ पुराण की मान्यता अनुसार अगर सिर या दिमाग का कोई हिस्सा जलने से रह जाए तो इंसान को अगले जन्म में पिछले जन्म की बातें याद रह जाती हैं।

इसीलिए अच्छी तरह से जलाया जाता है। अगर पिछले जन्म में इंसान की मृत्यु किसी दुखद कारण की वजह से हुई है तो नए जन्म में उसको याद रखने से मनुष्य फिर दुःखी हो जाएगा और लगातार उसके दिमाग में पूर्व जन्म की बातें और अपने करीबियों का दुःख घूमता रहेगा।

इस बात में मतभेद यह है कि कपाल क्रिया करने से इस जन्म की यादाश्त भूल कर आत्मा अगले जन्म को स्वीकार कर लेती है। दूसरा मतभेद यह है कि कपाल क्रिया करने से सहस्रार चक्र खुल जाता है, और आत्मा ज्ञान मार्ग से मोक्ष को प्राप्त होति है।

पहला मत को पूर्णतया सत्य नही कहा जा सकता है, यादाशत आत्मा के साथ रहती ही है, चाहे भले ही अगले जन्म में वह उसे भूल जाए, परंतु पिछले सभी जन्मों की याद आत्मा या अवचेत्तन मन में हमेशा रहती है। इसलिए कपाल क्रिया का इससे कोई संबंध नहीं।

जहाँ तक दुसरे मत का सवाल है, बहुत हद तक वह सत्य है। सहस्रार चक्र से आत्मा के गमन से ज्ञान मार्ग से आत्मा को मोक्ष मिल सकता है। लेकिन तभी जब आत्मा सहस्रार चक्र से निकले। यहाँ तो आत्मा पहले ही शरीर छोड़ चुकी है, सिर्फ शव पड़ा है आपके सामने। फिर क्यों किया जाए कपाल क्रिया?

बौद्ध धर्म में ख़ास तौर से तिब्बत के कुछ लामा मंत्रो से मृत्यु शय्या पर पड़े कुछ लोगो की आत्मा सहस्रार चक्र से निकालने का दावा करते है। यह एक बहुत बड़ा व्यवसाय भी बन गया है जिसके लिए लाखों रूपए भी लिए जाते है। सनातन धर्म में भी समाधि द्वारा मृत्यु से पूर्व आसन लगा कर आत्मा को सहस्रार चक्र से निकाला जाता है, लेकिन यह एक योगी ही कर सकता है, आम आदमी नहीं।

फिर कपाल क्रिया क्यों? और क्या यह जरूरी है?

जी, यह जरूरी है। यह कर्म कांड का हिस्सा तो नहीं है, लेकिन इसे बाद में कर्म कांड का हिस्सा बना दिया गया। इसका कारण थे दुष्ट तांत्रिक। बहुत से दुष्ट तांत्रिक शमशान से कपाल इखट्टे कर लेते है। इन्ही कपाल द्वारा मृत इंसान की आत्मा को प्रेत बना कर अपने काम निकाले जाते है। इसलिए ही अघोरियों ने इस दुष:क्रिया को रोकने के लिए यह प्रथा चलायी की सभी की कपाल क्रिया कर दी जाय। जब कपाल ही नहीं रहेगा तो उससे कोई दुष:क्रिया नहीं होगी। यह कारण किसी को बताया नहीं जाता, अन्यथा कोई इसे मानेगा कोई नहीं। परंतु मानने या न मानने से तांत्रिकों को तो कोई फर्क नहीं पड़ता न। समय समय पर ऐसे मामले आते ही है जहाँ कोई अच्छी आत्मा को भी प्रेत बना कर गलत कार्य करवाये जाते है। इसलिए यह क्रिया जरूरी है।
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