Saturday, May 28, 2022

शाक्त दर्शन भाग 2
त्वं स्वाहा त्वं स्वधा हि, वषट् - कारः स्वरात्मिका । सुधा त्वमक्षरे नित्ये ! त्रिधा मावात्मिका स्थिता ॥२https://astronorway.blogspot.com/

-तुम्हीं स्वाहा हो, स्वधा हो, वषट् - कार हो, तुम्ही स्वर रूपा हो । हे नित्य रहनेवाली ! तुम अमृत हो । तुम (अक्षरों में) तीनों प्रकारों की मात्राओं में रहती हो ।https://astronorway.blogspot.com/

 दर्शनिक व्याख्या -'स्वाहा' देव-हवि का 'दान-मंत्र' है। इसके बिना देव गण हवि को नहीं पा सकते। यह तदभिमानिनी 'वह्नि - शक्ति' है।
'स्वधा' पितृ हवि का 'दान मन्त्र' है, जिसके बिना 'सोमप' और 'असोमप' अर्थात् जो सोम-पान करते हैं और जो नहीं करते हैं, दोनों ही पितृ-गण हवि नहीं पा सकते। यह तदभिमानिनी 'पितृ शक्ति' है। 'वषट्-कार' देवता- विशेष का 'हवि-दान-मन्त्र' है। यथाhttps://astronorway.blogspot.com/

'वषडिन्द्राय इति'-मन्त्र-लिङ्ग से । इन तीनों- 'स्वाहा, स्वधा' और 'वषट्कार' से भगवती का वाक्-काम-धेनु होना सिद्ध है। इस वाक-रूपी गाय के १ स्वाहाकार, २ वषट्-कार, ३ हन्त-कार और ४ स्वधा-कार-रूपी-चार स्तन हैं । इनमें प्रथम दो से अर्थात् स्वाहा और वषट् कार से देवगण को स्थिति है अर्थात् इन्हीं दोनों वाक् - शक्तियों से देवता लोग पालित होते हैं। 'हन्त - कार' से मनुष्य और 'स्वधा - कार' से 'पितृ - गण' पालित होते हैं। 'बृहदारण्यक ब्राह्मण' (श्रुति) कहता है

'वाचं धेनुमुपासीत । तस्याश्चत्वारः स्तनः स्वाहा-कारो, वषट्

कारो, हन्त-कारः, स्वधा-कारः । तस्या द्वौ स्तनौ देवा उप-जीवन्सि स्वाहा - कारं च वषट् कारम् । हन्त कारं मनुष्याः, स्वधा कार पितरः ।https://astronorway.blogspot.com/

इससे यह सिद्ध है कि शब्द- ब्रह्मरूपिणी भगवती जिस प्रकार विश्व की सृजन-कर्ती है, उसी प्रकार पालनकर्त्री भी है। 'स्वर-रूपा' का वाच्यार्थ है- उदात्तादि स्वर-रूपा, किन्तु इसका अन्तस्तात्पर्य है। वर्णों (अक्षरों) की शक्ति से। इसी से 'अ' से 'अः' तक के सोलहों स्वर 'शक्ति-अक्षर' कहे गए हैं। इन स्वरों के न रहने से अक्षर या वर्ण पूर्ण नहीं होते। दूसरा तात्पर्य वेद के अशुद्ध मन्त्रों के 'स्वर' से । स्वर-हीन पाठ को अशुद्ध पाठ कहा गया है, जिससे अनिष्टापत्ति की सम्भावना है। 'इन्द्र-शोर्वर्द्धस्व' में स्वर के अशुद्ध उच्चारण के फल-स्वरूप उल्टा फल हुआ, यह पौराणिक घटना सर्वविदित है। इससे भगवती का वाग्-रूपिणी शक्ति की प्रधान 'स्वर-शक्ति' होता सिद्ध है ।
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'नित्या' से उभय-परिणामिनी नित्या सत्ता का ही बोध होता है नित्या सत्ता तीन प्रकार की है- १ अपरिणामिनी, २ सम परिणामिनी और ३ विषय परिणामिनी प्रथम चिन्मात्र वृत्ति, दूसरी अचिन्मात्र वृत्ति और तीसरी उभय अर्थात् चित् और अचित् (सत और असत्) । भगवान् श्रीकृष्ण ने भी ब्रह्म की एक परिभाषा इसी भाव की पुष्टि हेतु 'गीता' ६/१६ में कही है-'सदसच्चाहमर्जुन !" यह उपनिषदों के 'सर्व खल्विदं ब्रह्म' सिद्धान्त का समर्थक है। दोनों वृत्तिवाली है। दूसरी को 'अनित्या' भी कह सकते हैं क्योंकि प्रलय दशा में इसके रूप का अभाव हो जाता है। यहाँ नित्या से प्रकृति पुरुष-साधारणी एका सत्ता से तात्पर्य है, जिसका नीर - क्षीर - वत् संयोग-सम्बन्ध है (नित्य संयोग वादियों के मतानुसार विभु-द्वय सयोग-वत् ही यह सम्बन्ध है) ।https://astronorway.blogspot.com/

'सुधा' का अर्थ है शरीर का पोषण करनेवाली । 'सुष्टु दधाति पुष्णाति शरीरम् इति सुधा' । यहाँ शरीर से शरीर - त्रय अर्थात् १ स्थूल, २ सूक्ष्म और ३ पर-इन तीनों से तात्पर्य है।https://astronorway.blogspot.com/

'अक्षरे' शब्द 'अक्षरा' शब्द का सम्बोधनान्त भी है, जिसका अर्थ तीनों लोकों की भोक्त्री है-'अश्नाति त्रीन् लोकान् भुंक्ते, भूत-रूप 'त्वात् अक्षरा'। दूसरा अर्थ है सर्व (त्रिलोक) व्यापिका शक्ति – 'अश्नुते व्याप्नोति विश्वात्मत्वात् अक्षरा', परन्तु यहाँ 'अक्षरं-न क्षरं -विद्यादक्षरं' तात्पर्य ही और सम्बोधनान्त के स्थान में सप्तमी-कारक ही उचित प्रतीत होता है। इस 'अक्षर' से तर्क दर्शन के प्रतिकूल शब्द की नित्यता सिद्ध है (तर्क- दर्शन भी 'वैखरी' - शब्द मात्र को अनित्य कहते हैं। ऐसा ही तात्पर्य ठीक प्रतीत होता है क्योंकि परा, पश्यन्ती और मध्यमा शब्द-रूपों में तर्क का समावेश नहीं है-'तर्का प्रतिष्ठानात्' ।)https://astronorway.blogspot.com/

अक्षर में 'विधा मावात्मिका' से दो तात्पर्य हैं- (१) प्रत्येक अक्षर की शक्ति विधा है अर्थात् १ ह्रस्व, २ दीर्घ और ३ प्लुत-रूपिणी । (२) 'प्रणव' (ॐ) की त्रि-मातात्मिक शक्ति । जिस प्रकार कोई भी वर्ण ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत मात्रा से रहित होने से शक्ति हीन होत है, उसी प्रकार 'प्रणव' भी मात्रा-हीन होने से अव्यवहार्य या निष्प होता है। संक्षेप में 'त्रिधा मातात्मिका स्थिता' से 'शब्द' - ब्रह्म की 'मातृका'- शक्ति से तात्पर्य है

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