Saturday, May 7, 2022

पोस्ट करने का उद्देश्य है कि जो व्यक्ति अपने सनातन धर्म के ऋषि मुनियों के विषय में नहीं जानते उन्हें जानकारी प्राप्त हो ।
 जो मूर्ख हिन्दू साईं बाबा और अजमेर के चक्कर लगाते हैं उन्हें आद्य गुरु शंकराचार्य जी के विषय में भी जानना चाहिए कि वे कितने सिद्ध पुरुष थे । 
♦️♦️♦️
यह पोस्ट को लिखने के लिए कई लोगों के लेखों का सहयोग लिया गया है । 

पूज्य जगतगुरु श्री आद्य शंकराचार्य जी के विषय में कुछ भी लिखना सूर्य को दीपक दिखाने के समान हैं। भारत में वैदिक सनातन परंपरा की रक्षा, विकास और धर्म के प्रचार-प्रसार में जगतगुरु आद्य शंकराचार्य जी का अनमोल योगदान है। आज अद्वैत वेदांत के प्रणेता, सनातन धर्म के प्राणधार, कश्मीर से कन्याकुमारी तक सम्पूर्ण भारत को एक सूत्र में पिरोने वाले, सनातन धर्म की रक्षा करने वाले महायोद्धा और भगवान शंकर के अवतार माने जाने वाले परम महाज्ञानी विद्वान, अद्भुत तेजस्वी एवं प्रखर भविष्यदृष्टा महापुरुष जगतगुरु आद्य शंकराचार्य जी की जयंती है। जयंती पर हम उनको कोटि-कोटि नमन करते हैं। जगतगुरु आद्य शंकराचार्य जी ने उस समय देश में जिस तरह से अनेकों पंथों एवं विचारों की चुनौतियां सनातन धर्म के लिए उत्पन्न हो रही थी। उनसे बेहद सफलतापूर्वक बखूबी निपटकर और समाज को सत्य का दर्शन कराने के लिए देश में अद्वैत वेदांत का मार्ग प्रशस्त किया था। उन्होंने सम्पूर्ण भारत का भ्रमण करके देश को कश्मीर से लेकर केरल तक एक सूत्र में पिरोने का कार्य किया था।

जगतगुरु आद्य शंकराचार्य जी का जन्म 788 ई. में केरल के मालाबार क्षेत्र के छोटे से गाँव कालड़ी नामक स्थान पर नम्बूद्री ब्राह्मण शिवगुरु एवं आर्याम्बा के यहां हुआ था और वह मात्र 32 वर्ष तक ही जीवित रहे थे। शंकराचार्य जी के जन्म की एक छोटी सी कथा है जिसके अनुसार, शंकराचार्य के माता-पिता को बहुत समय तक कोई संतान प्राप्त नहीं हूई थी। तो उन दोनों ने कड़ी तपस्या की, कड़ी तपस्या के बाद भगवान शिव ने माता को सपने में दर्शन दिये और कहा कि, उनके पहले पुत्र के रूप मे वह स्वयं अवतारित होंगे परन्तु, उनकी आयु बहुत ही कम होगी और, शीघ्र ही वे देव लोक गमन कर लेंगे। शंकराचार्य जी जन्म से ही बिल्कुल अलग थे, वह स्वभाव में शांत और गंभीर थे। जो कुछ भी सुनते थे या पढ़ते थे, एक बार में ही समझ कर अपने मस्तिष्क मे बिठा लेते थे। शंकराचार्य जी ने सभी वेदों और लगभग छ: से अधिक वेदांतो में अल्पायु में ही महारथ हासिल कर ली थी। समय के साथ उनका यह ज्ञान अथाह सागर में तब्दील होता चला गया। उन्होंने अपने स्वयं इस ज्ञान को, बहुत तरह से जैसे- उपदेशो, रचनाओं के माध्यम से, देश में अलग-अलग मठों की स्थापना करके, धार्मिक ग्रन्थ लिख कर अलग-अलग तरह के सन्देशों के माध्यम से लोगों तक पहुचाया। वह संस्कृत भाषा के प्रकांड विद्वान थे।

शंकराचार्य ने देश के चारों कौनों पर चार मठों की स्थापना की थी। उत्तर दिशा में उन्होंने बद्रिकाश्रम में ज्योर्तिमठ की स्थापना की थी। इसके बाद पश्‍चिम दिशा में द्वारिका में शारदामठ की स्थापना की थी। इसके बाद उन्होंने दक्षिण में श्रंगेरी मठ की स्थापना की थी। इसके बाद उन्होंने पूर्व दिशा में जगन्नाथ पुरी में गोवर्धन मठ की स्थापना की थी। आप इन मठों में जाएंगे तो वहां इनकी स्थापना के बारे में लिखा हुआ समस्त विवरण जान सकते हैं। आद्य शंकराचार्य जी ने ब्रह्मसूत्रों की बड़ी ही विशद और रोचक व्याख्या की है। उनके विचारोपदेश आत्मा और परमात्मा की एकरूपता पर आधारित हैं, जिसके अनुसार परमात्मा एक ही समय में सगुण और निर्गुण दोनों ही स्वरूपों में रहता है। इन्होंने ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, मांडूक्य, ऐतरेय, तैत्तिरीय, बृहदारण्यक और छान्दोग्योपनिषद् पर भाष्य लिखा। वेदों में लिखे ज्ञान को एकमात्र ईश्वर को संबोधित समझा और उसका प्रचार-प्रसार तथा वार्ता पूरे भारतवर्ष में की। उस समय वेदों की समझ के बारे में मतभेद होने पर उत्पन्न चार्वाक, जैन और बौद्ध मतों को शास्त्रार्थों द्वारा खण्डित किया। और लोगों को सनातन धर्म के बारें में समझाया।

भारतीय परम्परा में जगतगुरु आद्य शंकराचार्य जी को भगवान शिव का अवतार माना जाता है। उनके जीवन के जब चमत्कारिक तथ्य सामने आते हैं, उससे प्रतीत होता है कि वास्तव में आद्य शंकराचार्य भगवान शिव के अवतार थे। जिस तरह से भगवान शिव की आराधना करने के बाद शिवगुरु ने पुत्र-रत्न पाया था, इसीलिए उन्होंने पुत्र का नाम शंकर रखा। जब ये तीन ही वर्ष के थे तब इनके पिता का देहांत हो गया। ये बड़े ही मेधावी तथा प्रतिभाशाली थे। छह वर्ष की अवस्था में ही ये प्रकांड विद्वान बन गए थे और आठ वर्ष की अवस्था में इन्होंने संन्यास ग्रहण किया था। इनके संन्यास ग्रहण करने के समय की कथा बड़ी विचित्र है। कहते हैं, माता एकमात्र पुत्र को संन्यासी बनने की आज्ञा नहीं देती थीं। तब एक दिन नदी किनारे एक मगरमच्छ ने शंकराचार्य जी का पैर पकड़ लिया, तब इस वक्त का फायदा उठाते शंकराचार्य जी ने अपनी माँ से कहा था कि- " माँ मुझे सन्यास लेने की आज्ञा दो नहीं तो यह मगरमच्छ मुझे खा जायेगा, इससे भयभीत होकर माता ने तुरंत इन्हें संन्यासी बनने की आज्ञा प्रदान कर दी और सबसे आश्चर्य की बात यह है की, जैसे ही माता ने आज्ञा दी वैसे तुरन्त मगरमच्छ ने शंकराचार्य जी का पैर छोड़ दिया।"

इसके बाद आठ वर्ष की अवस्था में गुरु श्री गोविन्द नाथ के शिष्यत्व को ग्रहण कर वो संन्यासी हो गये, पुन: वाराणसी से होते हुए बद्रिकाश्रम तक की पैदल यात्रा करना, सोलह वर्ष की अवस्था में बद्रीकाश्रम पहुंच कर ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखना, सम्पूर्ण भारत वर्ष में भ्रमण कर अद्वैत वेदान्त का प्रचार करना, दरभंगा के विद्वान मण्डन मिश्र से शास्त्रार्थ कर वेदान्त की दीक्षा देना तथा मण्डन मिश्र को संन्यास धारण कराना, भारतवर्ष में समाज में प्रचलित तत्कालीन कुरीतियों को दूर कर समभावदर्शी धर्म की स्थापना करना। इत्यादि कार्य इनके महत्व को और बढ़ा देता है। चार धार्मिक मठों में दक्षिण के शृंगेरी शंकराचार्यपीठ, पूर्व (ओडिशा) जगन्नाथपुरी में गोवर्धनपीठ, पश्चिम द्वारिका में शारदामठ तथा बद्रिकाश्रम में ज्योतिर्पीठ भारत की एकात्मकता को आज के समय में भी दिग्दर्शित कर रहा है। देश में कुछ लोग शृंगेरी को शारदापीठ तथा गुजरात के द्वारिका में मठ को काली मठ कहते है। आज उन्हीं के दिखाये मार्ग के अनुसार हिन्दू धर्म में शंकराचार्य सर्वोच्च धर्म गुरु का पद है, इस पद की परम्परा आद्य जगतगुरु शंकराचार्य ने खुद ही शुरू की थी। शंकराचार्य ने सनातन धर्म के प्रचार-प्रसार और प्रतिष्ठा के लिए भारत के 4 क्षेत्रों में जो चार मठ स्थापित किए थे। उन्होंने अपने नाम वाले इस शंकराचार्य पद पर अपने चार मुख्य शिष्यों को बैठाया था। जिसके बाद से इन चारों मठों में शंकराचार्य पद को निभाने की परंपरा लगातार चलती आ रही है

आद्य शंकराचार्य ने ही दसनामी सम्प्रदाय की स्थापना की थी। यह दस संप्रदाय निम्न प्रकार हैं - 1.गिरि, 2.पर्वत और 3.सागर, इनके ऋषि हैं भ्रगु। 4.पुरी, 5.भारती और 6.सरस्वती, इनके शांडिल्य ऋषि हैं। 7.वन और 8.अरण्य, इनके ऋषि काश्यप हैं। 9.तीर्थ और 10. आश्रम, इनके ऋषि अवगत हैं। शंकराचार्य जी ने इनकी स्थापना करके, हिंदू धर्मगुरू के रूप में हिंदुओं के प्रचार प्रसार व रक्षा का कार्य इन सभी अखाड़ों को सौपा और उन्हें अपना आध्यात्मिक उत्तराधिकारी भी बताया था । 

आदि शंकराचार्य ने अपने गुरु की छत्रछाया में रहकर ‘गौड़पादिया कारिका’, ‘ब्रह्मसूत्र’, वेद और उपनिषदों का अध्ययन किया। अपने गुरु के छत्रछाया में रहकर उन्होंने सभी वेदों एवं धार्मिक ग्रंथों का संपूर्ण रूप से अध्ययन कर लिया था। जब वह पूरी तरह से प्राचीन हिंदू धर्म की लिपियों को समझ चुके थे, तब उन्होंने ‘अद्वैत वेदांत’ और ‘दशनामी संप्रदाय’ का प्रचार करते हुए पूरे भारतवर्ष की यात्रा की। उनकी इस यात्रा के दौरान उनको कई दार्शनिकों का विरोध झेलना और विचारकों का सामना करना पड़ा था।

सभी के अतिरिक्त आदि शंकराचार्य जी हिंदू धर्म और उसकी मान्यताओं से संबंधित कई शास्त्रार्तथ में शामिल हुए थे और उन्होंने अपनी बुद्धिमता और स्पष्टता के साथ अपने सभी विरोधियों को उनका सही सही उत्तर देकर उनको आश्चर्यचकित कर दिया था । इस के बाद वे अपने उद्देश्य की ओर आगे बढ़े और उनको कई सारे लोग मिलते गए, जिन्होंने उन्हें गुरु के रूप में भी स्वीकार किया।

हिंदू धर्म में आदि शंकराचार्य की महत्वता
आदि शंकराचार्य जी ने हिंदू धर्म को बहुत ही अच्छी तरह से समझ कर एवं इसके सांस्कृतिक एवं धार्मिक मान्यताओं को पूरे विश्व में प्रचार प्रसार करने का बीड़ा उठाया था। आदि शंकराचार्य जी ने हिंदू धर्म के हित में ऐसे बहुत से महत्वपूर्ण कार्य किए हैं, जो आज भारतीय इतिहास के लिए गर्व की बात है।
हिंदू धर्म में पहले एक दूसरे के प्रति भेदभाव एवं ऊंच-नीच आदि के व्यवहार को खत्म करने के लिए अपना बहुत योगदान दिया हुआ है । शंकराचार्य जी ने हिंदू धर्म को सर्वश्रेष्ठ बताते हुए ईश्वर के प्रति आस्था और ईश्वर के महत्वता को लोगों को समझाने का कार्य किया है । उनके द्वारा किए गए सभी प्रकार के महत्वपूर्ण कार्यों को आज की पीढ़ी कहीं ना कहीं पर अवश्य याद करती है।

 गुरु की आज्ञा पर शंकराचार्य जी काशी पहुंचे गए, जहां गंगा तट पर उनका एक चाण्डाल से सामना होता है।
चाण्डाल ने जैसे शंकराचार्य को स्पर्श किया, शंकराचार्य जी कुपित हो उठे। तब चांडाल ने हंसते हुए शंकराचार्य से पूछा कि आत्मा और परमात्मा जब एक है तब तुम्हारे देह को स्पर्श करने पर कौन अपवित्र हुआ? तुम या तुम्हारे देह का अभिमान? परमात्मा सभी की आत्मा में है। इसीलिए एक सन्यासी होकर ऐसा विचार रखना सही नहीं। ऐसा विचार रखोगे तो तुम्हारे संन्यासी होने का कोई अर्थ नहीं होगा। माना जाता है कि वह चांडाल नहीं था बल्कि चांडाल के रूप में साक्षात भगवान शंकर थे, जिन्होंने शंकराचार्य जी को दर्शन दिया और उन्हें ब्रह्मा और आत्मा का सच्चा ज्ञान भी दिया है और इसी ज्ञान को प्राप्त कर के शंकराचार्य जी दुर्ग रास्ते से होते हुए बद्रिकाश्रम पहुंचे, जहां पर वे चार वर्ष रह कर तहारत पर भाष्य लिखा और वहीं से फिर वे केदारनाथ के लिए रवाना हुए।

💥 सौंदर्य लहरी आदि गुरु शंकराचार्य जी की लिखी हुई साधना से संबंधित सबसे महत्वपूर्ण एवं प्रभावशाली ग्रंथ है । माता आदिशक्ति की कृपा एवं आशीर्वाद प्राप्त करने के बाद उन्होंने इस ग्रंथ की रचना की थी । इसे स्त्रोत्र के रूप में पाठ किया जाता है । इसमें लगभग 100 मंत्र है और उन मंत्रों के माध्यम से विशेष तंत्र की साधनाये की जाती है जो बहुत ही प्रभावशाली हैं ।
श्री कनकधारा स्त्रोत्र , श्री कालिकाष्टकं , श्री दुर्गा सप्तशती में देव्यपराधक्षमापनस्तोत्रं जैसे महत्वपूर्ण स्तोत्र की रचना भी इन्होंने किया ।
उन्हें कई तरह की सिद्धियां प्राप्त थी जैसे परकाया प्रवेश इत्यादि ।
शंकराचार्य जी अपने जीवन काल में कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक भारतवर्ष की यात्रा की और चारों तरफ धर्म का प्रचार प्रसार किया।
अपनी यात्रा के दौरान उन्होंने कई विद्वानों से शास्त्रार्थ भी किया। इन्होंने समस्त भारतवर्ष में भ्रमण के दौरान बौद्ध धर्म को मिथ्या प्रमाणित किया और वेद धर्म का प्रचार प्रसार किया, जिसके कारण कुछ बौद्ध इन्हें शत्रु समझते थे। लेकिन शंकराचार्य जी ने उन सभी बौद्धो को शास्त्रार्थ में पराजित करके पुन: स्थापना वैदिक धर्म की स्थापना की।
इन सबके अतिरिक्त शंकराचार्य की 14 से ज्यादा ज्ञात आत्मकथाएं भी हैं, जिनमें उनके जीवन को दर्शाया गया है। उनके कुछ आत्मकथाओं का नाम गुरुविजय, शंकरभ्युदय और शंकराचार्यचरित करके है।

आदि शंकराचार्य की मृत्यु कैसे हुई?
विद्वानों का मानना है कि जब आदि शंकराचार्य जी की उम्र 32 वर्ष की हुई तब उन्होंने हिमालय से अपना सेवानिवृत्त किया और फिर केदारनाथ के पास एक गुफा में चले गए।
ऐसा कहा जाता है कि जिस गुफा में वे प्रवेश किए थे, वहां वे दुबारा दिखाई नहीं दिए और यही कारण है, कि वह गुफा उनका अंतिम विश्राम स्थल माना जाता है।https://astronorway.blogspot.com/

No comments:

Post a Comment