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दुःखजन्मप्रवृत्तिदोषमिथ्याज्ञानमुत्तरोत्तरापाये तदनन्तरापायादपवर्ग: (न्यायदर्शन)
मनुष्य के जन्म का मुख्य कारण है उसके पूर्व संस्कार और शेष संचित कर्म अज्ञानता के कारण दोष उत्पन्न होते हैं और दोष के कारण प्रवृत्ति बनती है। यही प्रवृत्ति जिस के कारण जन्म होता है। और सब दुःखों का कारण जन्म ही है। जब तक अज्ञानता दूर नहीं होगी यह जन्म-मरण का अनादि चक्र चलता ही रहेगा। अज्ञानता (अविद्या अंधकार) के हटने पर ही मुक्ति मिलती है। पूर्वजन्म के कर्म के आधार पर इस जन्म का वर्ण तय होता है। इस जन्म के कर्म के अनुसार आगे के जन्म में वर्ण निर्धारण ।
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विद्या तपश्च योनिश्च एतद् ब्राह्मणकारकम् । विद्यातपोभ्यां वो हीनो जातिब्राह्मण एव सः ॥
(पा. 51-115)
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विद्या, तप और ब्राह्मण-ब्राह्मणी से जन्म ये तीन बातें जिसमें पाई जाएँ वही पक्का ब्राह्मण है, पर जो विद्या तथा तप से शून्य है वह जातिमात्र के लिए ब्राह्मण है, पूज्य नहीं हो सकता । इसका आशय कैंयट ने इस प्रकार स्पष्ट कर दिया है।
योनिरिति ब्राह्मण्यां ब्राह्मणाज्जन्म। ब्राह्मणकारकमिति ब्राह्मणव्यपदेशस्य निमित्तामेतादित्यर्थः । तपः श्रुताभ्यामिति नासौ परिपूर्ण ब्राह्मण जातिलक्षणैकदेशश्रयस्तु तत्र ब्राह्मणशब्दप्रयोगः ।
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इसका तात्पर्य प्रथम ही कह चुके हैं। अतएव महाभाष्य के प्रारंभ में ही लिखा गया है कि ब्राह्मणेनाकारणो धर्मः
षडङ्गो वेदोऽध्ययो शेयश्च ।
यह न विचार कर कि वेदवेदांग के पढ़ने से हमें क्या मिलेगा किंतु अपना धर्म या कर्तव्य समझ कर यह समझ कर कि ब्राह्मण होने के नाते ही हम उनके पढ़ने को बाध्य हैं ब्राह्मण लोग छहों अंगों के सहित वेदों को पढ़े और उनका अर्थ जानें।
ब्राह्मण के बालक को जन्म से ही ब्राह्मण समझना चाहिए। श्रीमद्भागवत का कथन है जन्मना ब्राह्मणो गुरुः। संस्कारों से "दिज" संज्ञा होती है तथा विद्याध्ययन से "विन" नाम धारण करता है। स्मृतिकार अत्रि का कथन है - जन्मना ब्राह्मणो ज्ञेयः संस्कारैर्द्विज उच्यते विद्यया याति विप्रत्वम् श्रोत्रियस्त्रिभिरेव च ॥
पुनश्चhttps://astronorway.blogspot.com/
विशेष शिवपुराण में श्रीमत्रारायण प्रजापति दक्ष को चेतावनी देते हुए कहते हैं :
अपूज्या यत्र पूज्यन्ते, पूजनीयो न पूज्यते। त्रीणि तत्र भविष्यन्ति, दारिद्र्द्यं मरणं भयम् ॥
जहाँ पूजनीयों की पूजा नहीं होती, और अपूज्यों की पूजा होती है, वहाँ दरिद्रता, मृत्यु और उद्वेग आदि भय सदैव रहते हैं। पूज्य का अर्थ यहाँ सम्मानित होने से है। श्रीमद्भागवत में पापाचारी ब्राह्मण की अपेक्षा सदाचारी नारायण भक्त चांडाल की अधिक प्रशंसा की गई और कहा गया कि यदि कोई दुराचारी ब्राह्मण सदाचारी चांडाल को अवमानना करता है तो यह दण्डनीय है। चांडाल अपूज्य है, न कि अपमानित। जैसे पिता के लिए उसका पुत्र अपूज्य है, गुरु के लिए उसका शिष्य अपूज्य है, न कि अपमानित अपूज्य होने और अपमानित होने में बहुत भेद है। विद्याविनय सम्पन्न समदर्शी सबों को पूज्य नहीं मानता अपितु पूज्य के साथ पूज्यता का, और अपूज्य के साथ अपुज्यता के समानांतर भाव रखकर व्यवहार करता है।
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वर्ण और जाति अलग अलग नहीं हैं। जैसे आपका शरीर समाज का हिस्सा है और आपके आंख, कान आदि शरीर के अंग। उसमें भी कोशिका, पुतली, रोन आदि अंगों के भी उपांग है। वैसे ही सनातन समाज का हिस्सा वर्ण है और फिर उन वर्णों के अंग तदनुरूप जातियां हैं और जातियों में भी उपजातियां हैं। जैसे घर में अलग अलग कमरे, और कमरों में भी अलग अलग अलमारियों की व्यवस्था है और उनमें भी अलग अलह साँचे बने हैं, वैसे ही सगाज रूपी घर में वर्णरूपी कमरे और जातिरूपी अलमारियों की सांचे रूपी उपजातियां हैं। वर्ण समष्टि है और जाति व्यष्टि। कुछ लोग जाति शब्द को संस्कृत का न मानकर यवनों के 'अल-जात' शब्द से उसका सम्बन्ध जोड़ देते हैं, उनके भ्रम का निराकरण भी यहीं हो जाएगा। जन्म से ही ब्राह्मण सभी प्राणियों में श्रेष्ठ हैं। ब्राह्मण जन्म से ही महान् है और सभी प्राणियों के द्वारा पूजनीय है। ब्राह्मण जन्म से ही सभी मनुष्यों का गुरु है।
ब्राह्मणो जन्मना श्रेयान् सर्वेषां प्राणिनामिह ।https://astronorway.blogspot.com/
(श्रीमद्भागवत महापुराण)
जन्मनैव महाभागो ब्राह्मणो नाम जायते नमस्यः सर्वभूतानामतिथि: प्रसृताग्र भुक् ॥ (महाभारत)
बालयोरनयोर्नृणां जन्मना ब्राह्मणो गुरुः ।
(श्रीमद्भागवत महापुराण)
जन्मना जायते शूद्रः संस्काराद्विज उच्यते ॥
(स्कन्दपुराण)https://astronorway.blogspot.com/
यहाँ जन्म से शूद्र इसीलिए कहा क्योंकि असंस्कृत व्यक्ति की शूद्रवत् संज्ञा है। जैसे शुद्र को वेदाध्ययन का अधिकार नहीं, वैसे ही अनुपवती ब्राह्मण को भी नहीं। इसीलिए उसी स्कन्दपुराण में फिर कहा, ब्राह्मण जन्म से ही महान् है।
ब्राह्मणो हि महद्भुतं जन्मना सह जायते ॥ ब्रह्म को जानने वाला ब्राह्मण है, यह बात सत्य है लेकिन उससे पहले ब्राह्मण माता पिता और गुरु की भी आवश्यकता है। तब वह ब्रह्म को जान पाता है। यहां कॉलेज का सिलेबस खत्म कर नहीं पाने चले ब्रह्मज्ञान भांजने अपि च,
स्त्रीशूद्रवीजवधूनां न वेदश्रवणं स्मृतम् तेषामेवहितार्थाय पुराणानि कृतानि वै ॥
(आँशनस उपपुराण)
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प्रणवं वैदिकं चैव शूद्रे नोपदिशेच्छिवे । (परमानन्द तंत्र, त्रयोदश उल्लास)
शूद्राणां वेदमंत्रेषु नाधिकार: कदाचन । स्थाने वैदिकमंत्रस्य मूलमंत्रं विनिर्दिशेत् ॥
(योगिनी तंत्र)https://astronorway.blogspot.com/
स्त्री और शूद्र हेतु वेदश्रवण का निषेध इन प्रमाणों से मिलता है। इसीलिए उनके कल्याण के लिए पुराणों का प्रणयन किया गया। पुनः कहा जन्मना लब्धजातिस्तु (श्रीमद्देवीभागवत महापुराण) जाति की प्राप्ति जन्म से ही है।
जन्मना ब्राह्मणो ज्ञेयः
(पराशर उपपुराण, वैखानस कल्पसूत्र ) जन्मना चोत्तमोऽयं च सर्वार्चा ब्राह्मणोऽर्हति ॥
( भविष्य पुराण)https://astronorway.blogspot.com/
जन्मना ब्राह्मणो ज्ञेयः संस्कारर्द्विज उच्यते विद्यया याति विप्रत्वं त्रिभिः श्रोत्रियलक्षणम् ॥
(पद्मपुराण)
ब्राह्मण जन्म से ही उत्तम है, और सबों के द्वारा सम्माननीय है। जन्म से ब्राह्मण, संस्कार से द्विज, विद्या से विप्र और तीनों से श्रोत्रिय होता है। क्षत्रिय और वैश्य भी करोड़ों कल्पों तक तपस्या करके भी केवल तपस्या के दम पर ब्राह्मण नहीं बन सकते।
क्षत्रियो बाथ वैश्यो वा कल्पकोटिशतेन च ॥ तपसा ब्राह्मणत्वं च न प्राप्नोति श्रुती श्रुतम्
(श्रीमद्देवीभागवत महापुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण)https://astronorway.blogspot.com/
जो लोग विश्वामित्र का उदाहरण देते हैं, वो भी स्मरण रखें कि उन्होंने भी एक जन्म में ब्रह्मत्व प्राप्त नहीं किया। कई बार उनका शरीर बदला, पूरा शरीर नष्ट हो जाता तब केवल तेजरूप में बचते थे, ब्रह्मा जी नया शरीर देते थे। बीच में पक्षी की योनि भी मिली थी उन्हें, तब जाकर ब्राह्मण बने। उसमें भी उन्हें अनेक जन्मों में भी सफलता इसीलिए मिली क्योंकि उनका जन्म जिस चरु के कारण हुआ था वह ब्रह्मवक्तव्य । प्रेरित था। शुक्लयजुर्वेद की काण्व शाखा केशतपथब्राह्मण में है बृहदारण्यकोपनिषत् उसका वचन है :
ब्रह्म वा इदमग्र आसीदेकमेव सृजत क्षत्रं यान्येतानि स नैव व्यभवत्
स विशमसृजति स नैव व्यभवत्स शौद्रवर्णमसृजत् ।
अर्थात् सबसे पहले ब्राह्मण वर्ण ही था। उसने क्षत्रिय वर्णका सृजन किया। वह ब्राह्मण क्षत्रिय का सृजन करने के बाद भी अपनी वृद्धिमें सक्षम नहीं हुआ, तब उसने वैश्य वर्ण का सृजन किया। इसके अनन्तर (अर्थात् क्षत्रिय और वैश्यको रचनाके बाद भी वह ब्रह्म प्रवृद्ध न हो सका, तब उसने शूद्र वर्णकी रचना की। ये तो सिद्ध ही है सभी वर्ण भगवान् से उत्पन्न हुए अब इन वर्णों का विभाग सुनिए ! इन वर्णोंमें जन्म कैसे होता है इस विषय में भगवान् गीता में कहते हैं- गुणकर्मविभागशः अर्थात्, जन्मांतर में किये गए कर्मों और सञ्चित गुणोंके द्वारा विभाग करके ही भगवान् चारों वर्णोंमें जन्म देते हैं !https://astronorway.blogspot.com/
वर्णाश्रमाश्चस्वकर्मनिष्ठाः प्रेत्य कर्मफलमनुभूय ततः शेषेण विशिष्टदेशजातिकुलधर्मायु: श्रुतिवृत्तवित्तसुखमेधसो जन्म प्रतिपद्यन्ते ।
(स्मृतिसन्दर्भ)
अर्थात् अपने कर्मोंने तत्पर हुए वर्णाश्रमावलम्बी मरकर, परलोकमें कमका फल भोगकर बचे हुए कर्मफलके अनुसार श्रेष्ठ देश, काल, जाति, कुल, धर्म, आयु, विद्या, आवार, धन, सुख और मेधा आदिसे युक्त, जन्म ग्रहण करते हैं।
कारणं गुणसंगोस्य सदधोनिजन्मसु
(श्रीमद्भगवद्गीता)
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गुणोंमें जो आसक्ति है वही इस भोका पुरुष के अच्छी बुरी योनियों में जन्म लेने का कारण है। कुछ लोग जन्मना जायते शूद्रः .... ब्रह्म जानातीति ब्राह्मणः के आधार पर कहते हैं व्यक्ति जन्मतः शूद्र है। संस्कार से वह द्विज बन सकता है। वेदों के पठन-पाठन से विप्र हो सकता है। ब्रह्म को जानने वाला ब्राह्मण होता है। इसके आधार पर कहते हैं वर्ण कर्म के द्वारा कोई भी बदल सकता है। किन्तु इस श्लोक का ये अर्थ बिल्कुल भी नहीं है। जन्मना जायते शूद्रः से से नहीं हो जाता कि जन्म से सभी शूद्र हैं। इसका अर्थ है जना से सभी शूद्रवत् हैं अर्थात् वेद के अनधिकारी हैं किन्तु संस्कार होने से द्विज वेद का अधिकारी होता है।
ब्राह्मण सम्भवेनैव देवानामपि दैवतम् । प्रमाण चैव लोकस्य ब्रह्मात्रेव हि कारणम् ॥
(मनुस्मृति)https://astronorway.blogspot.com/
अर्थात्, जन्म से ही ब्राह्मण देवताओंका भी देवता होता है और लोक में उसका प्रमाण माना जाता है इसमें वेद ही कारण है। तपः श्रुतं च योनिश्चेत्येतद् ब्राह्मणककारणम् । (महाभाष्य) जो ब्राह्मण से ब्राह्मणी में उत्पन्न और उपनयनपूर्वक वेदाध्ययन, तप, विद्यादिसे युक्त होता है वहीं मुख्य ब्राह्मण होता है !मेरु तन्त्र और पराशर पुराण भी ब्रह्मक्षेत्रं ब्रह्मवीणं आदि श्लोकों से जन्मना महत्व का प्रतिपादन करते हैं।
तपः श्रुताभ्यां यो हीनो जातिब्राह्मण एव सः
(महाभाष्य)https://astronorway.blogspot.com/
जो तप और विद्याने हीन है वह केवल जाति से ब्राह्मण होता है। विदुरजी व्यासजीके पुत्र थे जो ब्राह्मण हैं और सर्वज्ञ वैष्णवावतार हैं, फिर भी शूद्र योनि में जन्म होने से शूद्र ही रहे। महाभारत में विदुर स्वयं को ब्रह्मविद्याका अनधिकारी बताते हैं जिसके कारण उन्होंने सनत्सुजात जी को ब्रह्मविद्या के लिए बुलाया था। विदुर जी कहते हैं
शूद्रयोनावहं जातो नातोऽन्यदकुमुत्सहे । कुमारस्य तु या बुद्धिर्वेद तां शाश्वतीमहम् ॥
( महाभारत )
अर्थात्, मेरा जन्म शूद्रयोनि में हुआ है अतः मैं (ब्रह्मविद्या में अधिकार नहीं होने से इसके अतिरिक्त और कोई उपदेश
देने का मैं साहस नहीं कर सकता, किन्तु कुमार सनत्सुजात की बुद्धि सनातन है, मैं उन्हें जानता हूँ। महर्षि आपस्तम्ब
ने धर्मसूत्रों में यह बात कही :https://astronorway.blogspot.com/
धर्मचर्चा जघन्यो वर्णः पूर्वपूर्वं वर्णमापद्यते जातिपरिवृत्ती । अधर्मचचर्यया पूर्वोवर्णो जघन्यं वर्णमापद्यते जातिपरिवृत्ती ॥
पुनश्च
तद्य इह रमणीयचरणाभ्यासो ह यत्ते रमणीयां योनिमापद्येन् ब्राह्मणयोनं वा क्षत्रिययोनं वा वैश्ययोनिं वाथ य इह
कपूयचरणाभ्यासो ह यत्ते कपूयां योनिमापद्येरनश्रयोनि वा शूकर योनिं वा चाण्डालयोनिं वा ।
(छान्दोग्योपनिषत् )https://astronorway.blogspot.com/
अर्थात्, उन में जो अच्छे आचरणवाले होते हैं वे शीघ्र ही उत्तमयोनि को प्राप्त होते हैं। वे ब्राह्मणयोनि क्षत्रिययोनि अथवा वैश्ययोनि प्राप्त करते तथा अशुभ आचरण वाले होते हैं वे तत्काल अशुभ योनिको प्राप्त होते हैं। वे कुत्ते की योनि, सूकर की योनि अथवा चाण्डालयोनि प्राप्त करते हैं। उपरोक्त नत्र में स्पष्ट उल्लेख है कर्म के द्वारा ही अलग अलग योनियों में अथवा वर्ण में जन्म होता है। यहां कोई अधिकार के हनन की बात नहीं है। जैसे कि अपनी पत्नी को वस्त्रहीन अवस्था में देख सकते हैं, लेकिन माता को नहीं। यहीं पुत्र यदि कहे कि यह हमारे अधिकार का हनन हैं, तो मार खायेगा। वह उसका काम ही नहीं है। और यह ब्राह्मण जन्म ऐसे ही आरक्षण में नहीं मिल गया। ब्राह्मण का काम शुद्र करेगा तो उसे दोष लगेगा, वैसे ही शूद्र का काम ब्राह्मण के लिए वर्जित है। तिर्यग्योनिगतः सर्वो मानुष्यं यदि गच्छति न जायते पुल्कसो वा चाण्डालो वाऽप्यसंशयः ॥ पुल्कसः पापयोनिर्वा यः कश्चिदिह लक्ष्यते । स तस्यामेव सुचिरं मतङ्ग परिवर्तते । ततो दशशते काले लभते शूद्रतामपि शूद्रयोनावपि ततो बहुशः परिवर्ती ॥ ततस्त्रिंशद्वृणे काले लभते वैश्यतामपि । वैश्यतायां चिरं कालं तत्रैव परिवर्तते ॥ ततः षष्टिगुणे काले राजन्यो नाम जायते। ततः षष्टिगुणे काले लभते ब्रह्मबन्धुताम् ॥ ब्रह्मबन्धुधिरं कालं ततस्तु परिवर्तते । ततस्तु द्विशते काले लभते काण्डपृष्ठताम् ॥ काण्डपृष्ठशिरं कालं तत्रैव परिवर्तते । ततस्तु त्रिशते काले लभते जपतामपि ॥ तं च प्राप्य चिरं कालं तत्रैव परिवर्तते । ततश्चतुःशते काले श्रोत्रियो नाम जायते ॥
(महाभारत मतंग एवं इंद्र का संवाद)https://astronorway.blogspot.com/
पशुयोनि का जीव जब पहली बार मनुष्य बनता है तो मलेच्छ या चांडाल बनता है। है मतङ्ग !! फिर वह उसी म्लेच्छ योनि में बहुत जन्मों तक बना रहता है। फिर हज़ार जन्मों के काल के बराबर समय बिताकर उसे शूद्रयोनि मिलती हैं जहां फिर वह बहुत से जन्म लेता है। वहां तीस जन्म बिताकर (यदि वह अपने वर्णगत धर्म का पालन करता रहा, तो ) वैश्य वर्ण में जन्म लेता है और पुनः कई जन्मों तक वैश्य ही रहता है। वहां साठ जन्म बिताकर वह क्षत्रिय कुल में जन्म लेता है और फिर साठ जन्मों तक क्षत्रिय रहकर ब्राह्मण कुल में जन्म लेता है। यहां केवल वह ब्रह्मबन्धुत्व की स्थिति में रहता है, यानि जन्म मिला है, कर्म ब्राह्मण के नहीं हैं। ब्रह्मबन्धुत्व की स्थिति में जब दो सौ जन्म बीतते हैं तब उसका जन्म वेदज्ञानी ब्राह्मण कुल में होता है। ऐसे कुल में तीन सौ जन्म लेने के बाद वह ब्राह्मण के आचरण और गायत्री आदि के संस्कार से भी युक्त हो जाता है। इस प्रकार से जन्मना ब्राह्मण होकर कर्मणा भी जब वह ब्राह्मण बनता है, तो ऐसे स्तर के चार सी जन्मों के बाद इसे ब्रह्मयोध होता है। यानि जम्मना ब्राह्मण बनने के नौ जन्मों बाद वह कर्मणा भी ब्राह्मण बन पाता है। ऐसे घूमते फिरते नहीं, कि जब मन किया इसी शरीर से बन गए। वर्ण देहाश्रित है। देह जन्माश्रित है। वर्ण कर्माश्रित नहीं है क्योंकि कर्म देह की अपेक्षा चिरस्थाई नहीं। वर्ण भौतिक अस्तित्व का परिचायक है और कर्म का आधार इसीलिए कर्म वर्णाश्रित है, न कि वर्ण कमश्रित कर्म बदलने से यदि वर्ण बदलेगा तो पूजा कराने वाला ब्राह्मण यदि धर्मरक्षा के लिए शस्त्र उठाये तो उसकी क्षत्रिय संज्ञा हो जाती, तो उसे अपनी पत्नी से ही ब्राह्मणीगमन का पाप लग जाता। कर्म वर्ण के ऊपर आश्रित है इसीलिए द्रोणाचार्य और युधिष्टिर का कर्म उनके वर्ण पर प्रभाव न डाल सका। यदि इच्छानुसार कर्म बदलने से वर्ण बदलने की स्वतंत्रता होती तो भगवान् गीता में क्यों कहते ? स्वै स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः । अपने अपने कर्म में लगे रहकर ही मनुष्य का कल्याण सम्भव है। इसीलिए महाभारत में जाबालि. बृहद्धर्म उपपुराण और पद्मपुराण आदि में कौशिक और नरोत्तम ब्राह्मण आदि को धर्मव्याध नामक कसाई, तुलाधार वैश्य और शुभा नामक स्त्री आदि धर्म का बोध कराते हैं। उनका कल्याण भी अपने अपने कर्म में रहकर ही हुआ। पहले वर्ण मिलता है, तब उसके अनुरूप कर्म करने का अधिकार कोई भी कर्म करके उसके अनुरूप वर्ण चयन करने का अधिकार नहीं है।
उदाहरण:- पहले व्यक्ति आरबीआई का गवर्नर बनेगा फिर नोट छापेगा। पहले पद तब अधिकार कोई भी व्यक्ति नोट छाप कर ये नहीं कह सकता है कि चूंकि मैं आरबीआई के गवर्नर का काम कर रहा हूँ तो मुझे वही पद दे दो। इसी प्रकार पूर्वजन्म की योग्यता के आधार पर इस जन्म का वर्ण मिलता है, फिर उसके अनुरूप कर्म करने का अधिकार कर्म चुनने की स्वतंत्रता किसी को भी नहीं है। यदि ऐसा होता तो भिक्षाटन करने (ब्रह्मवृत्ति) के लिए उत्सुक अर्जुन को भगवान् नहीं रोकते।
इज्याध्ययनदानानि विहितानि द्विजन्मनाम्। जन्मकर्मावदातानां क्रियाश्चाश्रमचोदिताः ॥
(श्रीमद्भागवत)https://astronorway.blogspot.com/
कुछ लोग सूत जी का उदाहरण देते हैं। सूत जी अयोनिज हैं। पृथु जी के यज्ञ में बृहस्पति और इंद्र जी का भाग मिल जाने से यज्ञ कुण्ड से सूत जी की उत्पत्ति हुई। सूत जी ब्राह्मण ही हैं, सूत उनकी संज्ञा है, न कि सूत जाति। पद्मपुराण और वायुपुराण में उनके प्रादुर्भाव की कथा है। अग्निकुण्डसमुद्भुत: सूतो विमलमानसः । लेकिन उनका पालन पोषण सन्तानहीन सूत परिवार ने किया अतः वे भी उसी से पुकारे गए। जैसे राजा उपरिचर तथा अद्रिका अप्सरा की कन्या सत्यवती तथा ब्राह्मण शक्तिपुत्र पराशर के सहयोग से उत्पन्न व्यास जी ब्राह्मण थे। कैवर्त के द्वारा लालन पालन होने से सत्यवती दाशकन्या नहीं बन गयी। ऋषि कण्व के द्वारा पालन पोषण करने मात्र से शकुंतला ब्राहाणी नहीं बन गयी।
जैसे सूत रथी के रथ का कुशलता से संचालन करके उसके मार्ग को प्रशस्त करता है, जैसे गुरु शिष्य को मार्गदर्शन देकर उसका मार्ग प्रशस्त करता है, वैसे ही सूत जी ने मार्गदर्शन के माध्यम से ऋषियों का कल्याण किया, इसीलिए उन्हें सूत कहा गया। बैसे कर्म देखें तो द्रोणाचार्य ने जीवन भर शस्त्र की ही कमाई खाई। लेकिन उन्हें कभी भी कहीं भी क्षत्रिय नहीं कहा गया। विदुर जी ने जीवन भर शास्त्रोपदेश ही किया लेकिन उन्हें किसी ने कभी भी ब्राह्मण नहीं कहा। कृष्ण जी ने अनेकों बार अर्जुन का रथ संचालन किया लेकिन उन्हें कभी किसी ने सूत नहीं कहा। महर्षि रोमहर्षण जी को ऋषियों ने अपना सूत यानि मार्गदर्शक स्वीकार किया और बाद में इन्हीं को सूत जी महाराज कहा गया, अल्पज्ञानी लोग सूत जी को सूत जाति से सम्बन्धित कर देते हैं, परन्तु सूत जी का जन्म अग्निकुण्ड से ऋषियों द्वारा यज्ञ के दौरान हुआ, जिनके दर्शन से ऋषियों के रोंगटे खड़े हो गये क्योंकि इनके ललाट पर इतना तेज था इनका प्रथम नाम रोमहर्षण हुआ । महर्षि श्री सूत जी साक्षात् ज्ञान स्वरूप थे तभी तो शौनकादि ऋषियों ने इन्हें अज्ञानान्धकार का नाश करने वाला सूर्य कहा।
अज्ञानध्यान्तविध्वंसकोटिसूर्यसमप्रभ सूताख्याहि कथासारं मम कर्ण रसायनम् ॥
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कबीर दास ने कहा :- गुरु कुम्हार सिस कुम्भ है... तो इसका अर्थ यह नहीं कि सभी गुरु कुम्हार हैं, या सभी कुम्हार गुरु हैं। अपितु यह है कि जैसे अपरिपक्क मिट्टी से कुम्हार अपने मार्गदर्शन से, कभी मार कर, कभी सहलाकर परिषक घड़ा बनाता है, वैसे ही अपरिपक्क शिष्य को अपने मार्गदर्शन से गुरु परिपक्क बनाता है। इसीलिए गुरु का कुम्हार केसमान होना बताया गया है। जैसे रोमहर्षण जी का सूत के समान वर्णन मिलता है।
कर्म से जाति का निर्धारण होता है, यह निःसंदेह सत्य है पर क्या आप ६ वर्ष के बालक को देख कर कैसे कह सकते हैं कि वह ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य शूद्र में क्या बनेगा ? क्योंकि अभी तो उसने तदनुरूप कर्म किया ही नहीं !! जहां कर्म से जाति का निर्धारण होने की बात है, तो वहाँ पिछले जन्म के कर्मों का संकेत है। पिछले जन्म के कर्म इस जन्म की जाति निर्धारित करते हैं, और इस जन्म के कर्म अगले जन्म की योनि या जाति का निर्धारण करते हैं। यदि ऐसा न होता, तो ब्राह्मणों के समान जीवन जीने वाली माता शबरी को ब्राहमण क्यों नहीं माना गया और क्षत्रिय के जैसे कर्म करने वाले परशुराम को ब्राह्मण क्यों कहा गया? यह बहुत बड़ा भ्रमजाल है। यदि कर्म के आधार पर जाति होती तो फिर संसार में कर्मों का सम्मिश्रण नहीं होता जैसे पानी पीने के कर्म को करने वाले एक श्रेणी में आते, और खाना खाने वाले दूसरी में खाने वाले लोग पीते नहीं, और पीने वाले खाते नहीं। ये नियम शाश्वत होता.. लेकिन यह तो विरोधानास है, क्योंकि यहाँ तो कर्म सम्मिश्रित है... भगवान् श्रीकृष्ण जब गाय चराते थे, तो उन्हें क्षत्रिय क्यों कहा गया, वैश्य क्यों नहीं? और भला विदुर जैसे महाज्ञानी तपस्वी को और संजय जैसे साधक को ब्राह्मण क्यों नहीं कहा गया ?
इस जन्म की जाति का निर्धारण पिछले कर्मों से होता है.. इस जन्म में यदि शूद्र धर्माचरण को मर्यादा में रहे, तो उसे अगली योनि में वर्ण में उन्नति मिलेगी, वह वैश्य बनेगा, अन्यथा नीचे गिर कर म्लेच्छ बन जायेगा। इसी प्रकार यदि क्षत्रिय मर्यादानुसार धर्माचरण करे, तो अगले जन्म में इस जन्म के कर्म फल के तौर पर ब्राह्मण बनेगा, और यदि ऐसा नहीं किया, तो अगली योनि में विषय या शूद्र या म्लेच्छ और यहां तक कि पशु भी बन सकता है। विराट पुरुष के अंगों से जहां वर्णों की उत्पत्ति का वर्णन है, वहां भी अजायत शब्द है, यानि जन्म लिया। ये नहीं कहा कि सभी मनुष्यों को उत्पन्न किया और उसमें जिसने अमुक कर्म को अपनाया उसे ये कहा गया। फिर कर्म तो शाश्वत नहीं हैं। मैं यदि साधना कर रहा हूँ, तो मैं अभी ब्राह्मण हूँ। किसी म्लेच्छ का संहार करने समय में तो क्षत्रिय बन जाऊँगा, और कृषि करते समय वैश्य और समाज सेवा करते समय शूद्र बन जाऊँगा.. एक ही दिन में में कई बार सभी जातियों में धूम जाऊँगा. तो बताईये कि मेरी जाति क्या है? मैं किस वर्ष की कन्या से विवाह करूंगा? मैं क्या कहलाऊंगा ? मनुष्य और कुत्ता दोनों रोटी खाएं तो क्या कुत्ते को मनुष्य और मनुष्य को कुत्ता कहा जा सकता है ? यदि मछली और बतख दोनों जल में तैरें, तो मछली को बतरख और बतख को मछली कहा जा सकता है? पिछले जन्म के कर्म इस जीवन की जाति तय करते हैं.... इस जीवन के कर्म जाति तय नहीं करते। वे अगले जन्म की जाति या योनि तय करते हैं। अतएव जन्मना जाति वर्ण ही वास्तविक हैhttps://astronorway.blogspot.com/
✍️✍️✍️✍️✍️ लेख : 004797335299
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