Monday, July 22, 2024

सभी सनातन प्यारे बंधुओं को सादर प्रणाम 🙏🏻वेदों के शिव 🌺 वेदों में महामृत्युंजय मन्त्र -देवता : रुद्र ॥ ऋषि : वशिष्ठ ॥छंद : विराड् ब्राह्मी अनुष्टुप् ॥ स्वर : धैवत: ॥ मन्त्र : -ॐ त्रम्वकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् ।उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात् ॥त्रम्वकं यजामहे सुगन्धिं पतिवेदनम् ।उर्वारुकमिव बन्धनादितो मुक्षीय मामुत: ॥ - ( यजुर्वेद ३.६० , ऋग्वेद ७.५९.१२ { ऋग्वेद में इस मन्त्र का छन्द : अनुष्टुप् ॥ स्वर : गांधार } ऋग्वेद मैं यह मन्त्र निम्न प्रदत्त है : - त्रम्वकं यजामहे सुगधिं पुष्टिवर्धनम् । उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् ॥अर्थ : - हम तीनों दृष्टियों ( आध्यात्मिक , आधिदैविक , आधिभौतिक ) से युक्त परमेश्वर रुद्र देव की उपासना करते है । ये रुद्रदेव जीवन मैं सुगन्धि एवं पुष्टि तथा संरक्षक सत्ता का प्रत्यक्ष बोध कराने वाले हैं । जिस प्रकार पका हुआ फल स्वयं ही डण्ठल से अलग होकर अमृत वन जाता है , उसी प्रकार हम भी मृत्यु के भय सै मुक्त हो ; किन्तु अमृतत्व से दूर न हो , साथ ही भववन्धन से मुक्त हो जाये परन्तु ; अविनाशी सुख सै नहीं ।।हिन्दू समाज में मान्यता है कि वेद में उसी शिव का वर्णन है जिसके नाम पर अनेक पौराणिक कथाओं का सृजन हुआ है। उन्हीं शिव की पूजा-उपासना वैदिक काल से आज तक चली आती है। किन्तु वेद के मर्मज्ञ इस विचार से सहमत नहीं हैं।उनके अनुसार वेद तथा उपनिषदों का शिव निराकार ब्रह्म है।पुराणों में वर्णित शिव जी परम योगी और परम ईश्वरभक्त थे। वे एक निराकार ईश्वर "ओ३म्" की उपासना करते थे। कैलाशपति शिव वीतरागी महान राजा थे। उनकी राजधानी कैलाश थी और तिब्बत का पठार और हिमालय के वे शासक थे। हरिद्वार से उनकी सीमा आरम्भ होती थी। वे राजा होकर भी अत्यंत वैरागी थे। उनकी पत्नी का नाम पार्वती था जो राजा दक्ष की कन्या थी। उनकी पत्नी ने भी गौरीकुंड, उत्तराखंड में रहकर तपस्या की थी। उनके पुत्रों का नाम गणपति और कार्तिकेय था। उनके राज्य में सब कोई सुखी था। उनका राज्य इतना लोकप्रिय हुआ कि उन्हें कालांतर में साक्षात् ईश्वर के नाम शिव से उनकी तुलना की जाने लगी।वेदों के शिव--हम प्रतिदिन अपनी सन्ध्या उपासना के अन्तर्गत नमः शम्भवाय च मयोभवाय च नम: शंकराय च मयस्कराय च नमः शिवाय च शिवतराय च(यजु० १६/४१)के द्वारा परम पिता का स्मरण करते हैं।अर्थ- जो मनुष्य सुख को प्राप्त कराने हारे परमेश्वर और सुखप्राप्ति के हेतु विद्वान् का भी सत्कार कल्याण करने और सब प्राणियों को सुख पहुंचाने वाले का भी सत्कार मङ्गलकारी और अत्यन्त मङ्गलस्वरूप पुरुष का भी सत्कार करते हैं,वे कल्याण को प्राप्त होते हैं।इस मन्त्र में शंभव, मयोभव, शंकर, मयस्कर, शिव, शिवतर शब्द आये हैं जो एक ही परमात्मा के विशेषण के रूप में प्रयुक्त हुए हैं।वेदों में ईश्वर को उनके गुणों और कर्मों के अनुसार बताया है--त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्।-यजु० ३/६०विविध ज्ञान भण्डार, विद्यात्रयी के आगार, सुरक्षित आत्मबल के वर्धक परमात्मा का यजन करें। जिस प्रकार पक जाने पर खरबूजा अपने डण्ठल से स्वतः ही अलग हो जाता है वैसे ही हम इस मृत्यु के बन्धन से मुक्त हो जायें, मोक्ष से न छूटें।या ते रुद्र शिवा तनूरघोराऽपापकाशिनी।तया नस्तन्वा शन्तमया गिरिशन्ताभि चाकशीहि।।-यजु० १६/२हे मेघ वा सत्य उपदेश से सुख पहुंचाने वाले दुष्टों को भय और श्रेष्ठों के लिए सुखकारी शिक्षक विद्वन्! जो आप की घोर उपद्रव से रहित सत्य धर्मों को प्रकाशित करने हारी कल्याणकारिणी देह वा विस्तृत उपदेश रूप नीति है उस अत्यन्त सुख प्राप्त करने वाली देह वा विस्तृत उपदेश की नीति से हम लोगों को आप सब ओर से शीघ्र शिक्षा कीजिये।अध्यवोचदधिवक्ता प्रथमो दैव्यो भिषक्।अहीँश्च सर्वाञ्जम्भयन्त्सर्वाश्च यातुधान्योऽधराची: परा सुव।।-यजु० १६/५हे रुद्र रोगनाशक वैद्य! जो मुख्य विद्वानों में प्रसिद्ध सबसे उत्तम कक्षा के वैद्यकशास्त्र को पढ़ाने तथा निदान आदि को जान के रोगों को निवृत्त करनेवाले आप सब सर्प के तुल्य प्राणान्त करनेहारे रोगों को निश्चय से ओषधियों से हटाते हुए अधिक उपदेश करें सो आप जो सब नीच गति को पहुंचाने वाली रोगकारिणी ओषधि वा व्यभिचारिणी स्त्रियां हैं, उनको दूर कीजिये।या ते रुद्र शिवा तनू: शिवा विश्वाहा भेषजी।शिवा रुतस्य भेषजी तया नो मृड जीवसे।।यजु० १६/४९हे राजा के वैद्य तू जो तेरी कल्याण करने वाली देह वा विस्तारयुक्त नीति देखने में प्रिय ओषधियों के तुल्य रोगनाशक और रोगी को सुखदायी पीड़ा हरने वाली है उससे जीने के लिए सब दिन हम को सुख कर।उपनिषदों में भी शिव की महिमा निम्न प्रकार से है-स ब्रह्मा स विष्णु: स रुद्रस्स: शिवस्सोऽक्षरस्स: परम: स्वराट्।स इन्द्रस्स: कालाग्निस्स चन्द्रमा:।।-कैवल्यो० १/८वह जगत् का निर्माता, पालनकर्ता, दण्ड देने वाला, कल्याण करने वाला, विनाश को न प्राप्त होने वाला, सर्वोपरि, शासक, ऐश्वर्यवान्, काल का भी काल, शान्ति और प्रकाश देने वाला है।प्रपंचोपशमं शान्तं शिवमद्वैतम् चतुर्थं मन्यन्ते स आत्मा स विज्ञेयः।।७।।-माण्डूक्य०प्रपंच जाग्रतादि अवस्थायें जहां शान्त हो जाती हैं, शान्त आनन्दमय अतुलनीय चौथा तुरीयपाद मानते हैं वह आत्मा है और जानने के योग्य है।यहां शिव का अर्थ शान्त और आनन्दमय के रूप में देखा जा सकता है।सर्वाननशिरोग्रीव: सर्वभूतगुहाशय:।सर्वव्यापी स भगवान् तस्मात्सर्वगत: शिव:।।-श्वेता० ४/१४जो इस संसार की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय का कर्ता एक ही है, जो सब प्राणियों के हृदयाकाश में विराजमान है, जो सर्वव्यापक है, वही सुखस्वरूप भगवान् शिव सर्वगत अर्थात् सर्वत्र प्राप्त है।इसे और स्पष्ट करते हुए कहा है-सूक्ष्मातिसूक्ष्मं कलिलस्य मध्ये विश्वस्य सृष्टारमनेकरुपम्।विश्वस्यैकं परिवेष्टितारं ज्ञात्वा शिवं शान्तिमत्यन्तमेति।।-श्वेता० ४/१४परमात्मा अत्यन्त सूक्ष्म है, हृदय के मध्य में विराजमान है, अखिल विश्व की रचना अनेक रूपों में करता है। वह अकेला अनन्त विश्व में सब ओर व्याप्त है। उसी कल्याणकारी परमेश्वर को जानने पर स्थाई रूप से मानव परम शान्ति को प्राप्त होता है।नचेशिता नैव च तस्य लिंङ्गम्।।-श्वेता० ६/१उस शिव का कोई नियन्ता नहीं और न उसका कोई लिंग वा निशान है।योगदर्शन में परमात्मा की प्रतीति इस प्रकार की गई है-क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्ट: पुरुषविशेष ईश्वर:।। १/१/२४जो अविद्यादि क्लेश, कुशल, अकुशल, इष्ट, अनिष्ट और मिश्र फलदायक कर्मों की वासना से रहित है, वह सब जीवों से विशेष ईश्वर कहाता है।स एष पूर्वेषामपि गुरु: कालेनानवच्छेदात्।। १/१/२६वह ईश्वर प्राचीन गुरुओं का भी गुरु है। उसमें भूत भविष्यत् और वर्तमान काल का कुछ भी सम्बन्ध नहीं है,क्योंकि वह अजर, अमर नित्य है।महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने भी अपने पुस्तक सत्यार्थप्रकाश में निराकार शिवादि नामों की व्याख्या इस प्रकार की है--(रुदिर् अश्रुविमोचने) इस धातु से 'णिच्' प्रत्यय होने से 'रुद्र' शब्द सिद्ध होता है।'यो रोदयत्यन्यायकारिणो जनान् स रुद्र:' जो दुष्ट कर्म करनेहारों को रुलाता है, इससे परमेश्वर का नाम 'रुद्र' है।यन्मनसा ध्यायति तद्वाचा वदति, यद्वाचा वदति तत् कर्मणा करोति यत् कर्मणा करोति तदभिसम्पद्यते।।यह यजुर्वेद के ब्राह्मण का वचन है।जीव जिस का मन से ध्यान करता उस को वाणी से बोलता, जिस को वाणी जे बोलता उस को कर्म से करता, जिस को कर्म से करता उसी को प्राप्त होता है। इस से क्या सिद्ध हुआ कि जो जीव जैसा कर्म करता है वैसा ही फल पाता है। जब दुष्ट कर्म करनेवाले जीव ईश्वर की न्यायरूपी व्यवस्था से दुःखरूप फल पाते, तब रोते हैं और इसी प्रकार ईश्वर उन को रुलाता है, इसलिए परमेश्वर का नाम 'रुद्र' है।(डुकृञ् करणे) 'शम्' पूर्वक इस धातु से 'शङ्कर' शब्द सिद्ध हुआ है। 'य: शङ्कल्याणं सुखं करोति स शङ्कर:' जो कल्याण अर्थात् सुख का करनेहारा है, इससे उस ईश्वर का नाम 'शङ्कर' है।'महत्' शब्द पूर्वक 'देव' शब्द से 'महादेव' शब्द सिद्ध होता है। 'यो महतां देव: स महादेव:' जो महान् देवों का देव अर्थात् विद्वानों का भी विद्वान्, सूर्यादि पदार्थों का प्रकाशक है, इस लिए उस परमात्मा का नाम 'महादेव' है।(शिवु कल्याणे) इस धातु से 'शिव' शब्द सिद्ध होता है। 'बहुलमेतन्निदर्शनम्।' इससे शिवु धातु माना जाता है, जो कल्याणस्वरूप और कल्याण करनेहारा है, इसलिए उस परमेश्वर का नाम 'शिव' है।निष्कर्ष- उपरोक्त लेख द्वारा योगी शिव और निराकार शिव में अन्तर बतलाया है। ईश्वर के अनगिनत गुण होने के कारण अनगिनत नाम है। शिव भी इसी प्रकार से ईश्वर का एक नाम है। आईये निराकार शिव की स्तुति, प्रार्थना एवं उपासना करे।ॐ नमः शिवायः 🙏🏻🙏🏻

।। श्रीहरिः ।।

दुर्गतिसे बचो 

 प्रश्न‒भूत-प्रेतोंको कीलित करनेवाले तान्त्रिक तो उनके कर्मोंका फल भुगतानेमें सहायक ही बनते हैं, तो फिर उनको पाप क्यों लगता है ?

उत्तर‒वे जिनको कीलित कर देते हैं, जमीनमें गाड़ देते हैं, उन भूत-प्रेतोंका तो यह कर्मफल-भोग है, पर उनको कीलित करनेवालोंका यह नया पाप-कर्म है, जिसका दण्ड उनको आगे मिलेगा । जैसे, कोई जानवरको मारता है तो जानवर अपनी मृत्यु आनेसे ही मरता है । उसकी मृत्यु आये बिना उसको कोई मार ही नहीं सकता । परन्तु उसको मारनेवाला नया पाप करता है; क्योंकि वह लोभ, कामना,स्वार्थ आदिको लेकर ही उसको मारता है । जब कामना आदिको लेकर किया हुआ शुभ कर्म भी बन्धनका कारण बन जाता है तो फिर जो कामना आदिको लेकर अशुभ कर्म करता है, वह तो पापसे बँधेगा ही ।

तात्पर्य है कि किसीको दुःख देना, तंग करना, मारना आदि मनुष्यका कर्तव्य नहीं है, प्रत्युत अकर्तव्य है । अकर्तव्यमें मनुष्य कामनाको लेकर ही प्रवृत्त होता है (३ । ३७) । अतः मनुष्यको कामना, स्वार्थ आदिका त्याग करके सबके हितके लिये ही उद्योग करते रहना चाहिये ।

प्रश्न‒जिन भूत-प्रेतोंको बोतलमें बंद कर दिया गया है, कीलित कर दिया गया है, वे कबतक वहाँ जकड़े रहते हैं ?

उत्तर‒मन्त्रोंकी शक्तिकी भी एक सीमा होती है, उम्र होती है । उम्र पूरी होनेपर जब मन्त्रोंकी शक्ति समाप्त हो जाती है अथवा प्रेतयोनिकी अवधि (उम्र) पूरी हो जाती है,तब वे भूत-प्रेत वहाँसे छूट जाते हैं । अगर उनकी उम्र बाकी रहनेपर भी कोई अनजानमें कील निकाल दे, जमीनको खोदते समय बोतल फूट जाय, पेड़के गिरनेसे बोतल फूट जाय तो वे भूत-प्रेत वहाँसे छूट जाते हैं और अपने स्वभावके अनुसार पुनः दूसरोंको दुःख देने लग जाते हैं ।

प्रश्न‒अगर कोई पेड़में गड़ी हुई कीलको निकाल दे,जमीनमें गड़ी हुई बोतलको फोड़ दे तो उसमें बन्द भूत-प्रेत उसको पकड़ेंगे तो नहीं ?

उत्तर‒वहाँसे छूटनेपर भूत-प्रेत उसको पकड़ सकते हैं; अतः हरेक आदमीको ऐसा काम नहीं करना चाहिये । जो भगवान्‌ के परायण हैं, जिनको भगवान्‌ का सहारा है,हनुमान्‌ जी का सहारा है, वे अगर भूत-प्रेतोंको वहाँसे मुक्त कर दें तो भूत-प्रेत उनका कुछ भी बिगाड़ नहीं सकते, प्रत्युत उनके दर्शनसे उन भूत-प्रेतोंका उद्धार हो जाता है । सन्त-महापुरुषोंने बहुत-से भूत-प्रेतोंका उद्धार किया है ।
हरिहर 
१. शब्दार्थ- समान्यतः विष्णु को हरि और शिव को हर कहते हैं। शिव का स्मरण ’हर हर महादेव’ से होता है। प्रायः युद्ध में अन्तिम आक्रमण के समय ’हर हर महादेव’ कहते हैं, जब मरने या मारने की स्थिति होती है। लोक भाषा में जगत् और विश्व का एक ही अर्थ है, पर पुराण की वैज्ञानिक भाषा में विष्णु को जगन्नाथ और शिव को विश्वनाथ कहते हैं। दोनों में कुछ एकत्व है जैसा स्कन्दोपनोषद् में कहा गया है-
शिवाय विष्णुरूपाय शिवरूपाय विष्णवे। शिवस्य हृदयं विष्णुः, विष्णोश्च हृदयं शिवः॥८॥
यथा शिवमयो विष्णुः, एवं विष्णुमयं शिवः। यथान्तरं न पश्यामि तथा मे स्वस्तिरायुषि॥९॥ 
भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा है-
रुद्रो नारायणश्चैव सत्त्वमेकं द्विधा कृतम्। लोके चरति कौन्तेय व्यक्तिस्थं सर्वकर्मसु॥
(महाभारत, शान्ति पर्व, ३४१/२७)
भगवान् श्री राम ने भी सेतुबन्ध के बाद रामेश्वर शिवलिङ्ग की स्थापना कर्र कहा था-
शिवद्रोही मम भगत कहावा। सो नर सपनेहु मोहि न भावा॥७॥
शंकर विमुख भगति चह मोरी। सो नर नारकी मूढ़ मति थोरी॥८॥
(रामचरितमानस, लंका काण्ड, २/७-८)
सामान्यतः विष्णु क्रिया रूप और शिव ज्ञान रूप हैं।
हरिहर शब्द का अर्थ विष्णु और शिव का मिलन है। विष्णु के मोहिनी रूप से शिव को सन्तान हुई थी जिसकी केरल में अयप्पा के नाम से पूजा होती है।
२. गायत्री मन्त्र का खण्ड- एकमूर्तिस्त्रयो देवाः, ब्रह्मविष्णु महेश्वराः। त्रयाणामन्तरं नास्ति गुणभेदाः प्रकीर्तिताः॥ 
(स्कन्द पुराण ५ अवन्ती खण्ड, रेवा खण्ड १४६/११६, पद्म पुराण, २ भूमि खण्ड, ७१/२१) 
गायत्री मन्त्र के ३ पाद ब्रह्म के ३ रूप वर्णन करते हैं-
प्रथम पाद स्रष्टा रूप ब्रह्मा- तत् सवितुर्वरेण्यम्।
द्वितीय पाद क्रिया रूप विष्णु-भर्गो देवस्य धीमहि।
तृतीय पाद ज्ञान रूप शिव-धियो यो नः प्रचोदयात्।
३. हरि, हर-(१) अर्थ-कोष में व्याकरण के अनुसार दोनों शब्दों की एक ही व्युत्पत्ति दी गयी है-जो पापों का हरण करे। अन्तर देखने के लिए वैदिक परिभाषा देखनी पड़ेगी। वेद में प्राण या उसके प्रकाश रूप को हरि कहा है।
प्राणो वै हरिः, स हि हरति (कौषीतकि ब्राह्मण, १७/१)
यहां हरण अर्थ में भी हरि का प्रयोग है।
ऊर्जा का एक रूप किरण है; इस अर्थ में हरि का प्रयोग है-
इन्द्रो मायाभिः पुरु-रूप ईयते, युक्ता ह्यस्य हरयः शता दश (ऋक्, ६/४७/१८)
= इन्द्र बिना रूप का प्रकाश रूप तेज है, वह माया (आवरण) द्वारा अनेक प्रकार के पुरु रूप में चलता है। पुर का अर्थ रचना है, पुरु उसका क्रिया रूप है। हरयः शतादश = सहस्र किरण।
वेद में शिव के लिए प्रायः रुद्र शब्द है। उसके शान्त रूप को शिव कहा है। 
घोरो वै रुद्रः (कौषीतकि ब्राह्मण, १६/७)
या ते रुद्र शिवा तनूः अघोरा पापकाशिनी॥ (वाज.यजु, १६/२, ४९, श्वेताश्वतर उपनिषद्, ३/५ आदि)
शिव इति शमयन्ति एव एनं (अग्निम्), एतद् अहिंसायै, तथो हैष (अग्निः) इमान् लोकान् शान्तो न हिनस्ति (शतपथ ब्राह्मण, ६/७/३/१५)-वाज. यजु (१२/१७) में शिव का अर्थ।
सूर्य से किरण या कण निकलना उसका रुदन है।
(२) सौर मण्डल के सन्दर्भ में-
सूर्य पिण्ड = अग्नि (पदार्थ पिण्ड)। किरणों का प्रसार = इन्द्र। उनकी ऊर्जा या प्राण = हरि। तेज का अनुभव = हर, रुद्र।
चन्द्र कक्षा तक का क्षेत्र = १०० सूर्य व्यास तक ताप क्षेत्र = रुद्र।
चन्द्र कक्षा केन्द्र में पृथ्वी से शिव क्षेत्र का आरम्भ। इस अर्थ में शिव के ललाट पर चन्द्र है। 
शनि कक्षा तक शिवतर क्षेत्र = १००० सूर्य व्यास तक।
उसके बाहर शिवतम क्षेत्र सौर मण्डल सीमा तक।
सौर मण्डल के बाहर महः लोक में महादेव रूप, महिष सोम।
जनः लोक (ब्रह्माण्ड या गैलेक्सी) में सदाशिव रूप। उसके अप् में शब्द होने से अम्भ होता है, जन्म स्थान होने से अम्ब। ३ पृथिवी (पृथ्वी ग्रह, सौर मण्डळ का आकर्षण क्षेत्र, ब्रह्माण्ड) ३ अम्ब हैं। उसके साथ साम्ब-सदाशिव रूप है।
नमः शिवाय च शिवतराय च (वाजसनेयी सं. १६/४१, तैत्तिरीय सं. ४/५/८/१, मैत्रायणी सं. २/९/७)
यो वः शिवतमो रसः, तस्य भाजयतेह नः। (अघमर्षण मन्त्र, वाजसनेयी सं., ११/५१)
सदाशिवाय विद्महे, सहस्राक्षाय धीमहि तन्नो साम्बः प्रचोदयात्। (वनदुर्गा उपनिषद्, १४१)
आापो वा अम्बयः । (कौषीतकि ब्राह्मण उपनिषद्, १२/२)
अयं वै लोकोऽम्भांसि (तैत्तिरीय ब्राह्मण, ३/८/१८/१)
शत योजने ह वा एष (आदित्य) इतस्तपति (कौषीतकि ब्राह्मण उपनिषद्, ८/३) 
स एष (आदित्यः) एक शतविधस्तस्य रश्मयः । शतविधा एष एवैक शततमो य एष तपति (शतपथ ब्राह्मण, १०/२/४/३) 
युक्ता ह्यस्य (इन्द्रस्य) हरयः शतादशेति । सहस्रं हैत आदित्यस्य रश्मयः (इन्द्रः=आदित्यः) जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण, १/४४/५)
असौ यस्ताम्रो अरुण उत बभ्रुः सुमङ्गलः । ये चैनं रुद्रा अभितो दिक्षु श्रिताः सहस्रोऽवैषां हेड ईमहे ॥ (वा.यजु.१६/६) 
महत् तत् सोमो महिषः चकार (ऋक्, ९/९७/४१, सामवेद, १/५४२, २/६०५)
ब्रह्माण्ड के बाहर अनन्त आकाश में परमेश्वर रूप जिसके सङ्कल्प से सृष्टि का आरम्भ।
सूर्य अपने आकर्षण से पृथ्वी आदि ग्रहों को कक्षा में बान्ध कर रखता है। यह सुप्त रूप विष्णु है। उसकी किरण ऊर्जा हरि से पृथ्वी पर जीवन चल रहा है, यह जगन्नाथ या जाग्रत रूप है।
(३) पृथ्वी पर-वेद संहिता संकलन के लिए स्वायम्भुव मनु से कृष्ण द्वैपायन तक २८ व्यास हुए हैं। उनको ज्ञान रूप शिव का अवतार कहा गया है (कूर्म पुराण, अध्याय, १/५२, शिव पुराण, अध्याय, ३/४-५)। असुरों को पराजित कर धर्म स्थापना करने वालों को विष्णु का अवतार कहा गया है। (गीता, ४/७)।
(४) मनुष्य शरीर-शरीर का आवरण रूप लिङ्ग है (लिङ्ग शरीर)-
सूक्ष्मशरीराणि सप्तदशावयवानि लिङ्गशरीराणि । अवय वास्तु ज्ञानेन्द्रियपञ्चकं बुद्धिमनसी कर्मेन्द्रियपञ्चकं चायुपञ्चकं चेति । ज्ञानेन्द्रियाणि श्रोत्रत्वक्चक्षुर्जिह्वाघ्राणाख्यानि। (वेदान्त सार, खण्ड १३)।
इसमें ११ इन्द्रियां रुद्र हैं (५ कर्मेन्द्रिय, ५ ज्ञानेन्द्रिय, उभयात्मक मन)। इनमें मन को शिव कहा गया है। इनके रूप १० प्राण और आत्मा हैं।
कतमे रूद्रा इति, दशेमे पुरुषे प्राणा, आत्मा एकादशः, ते यद् यस्मात् मर्त्यात् शरीरात् उत्क्रामन्ति, अथ रोदयन्ति। तद् यद् रोदयन्ति, तस्मात् रुद्रा, इति। (माध्य. शतपथ ब्राह्मण, १/६/३/७, बृहदारण्यक उपनिषद्, ३/९/४)
दश पुरुषे प्राणा, इति ह उवाच। आत्मा एकादशः। ते यत् उत्क्रामन्तः यन्ति अथ रोदयन्ति। तस्मात् रुद्राः, इति। (जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण, २/७७)
४. शिव, विष्णु-विष्णु -वेवेष्टि इति विष्णुः-सर्वत्र व्याप्त है, अतः विष्णु।
शिव-शेरते अस्मिन् सर्वे, इति शिवः-सब कुछ इसी में है।
बाह्य आवरण शिव है, केन्द्र में क्रिया का सञ्चालक विष्णु है। विष्णु क्रिया रूप में यज्ञ है-विष्णुः वै यज्ञः (ऐतरेय ब्राह्मण, १/३३) 
बाह्य आवरण लिङ्ग है। लीनं + गमयति = लिंग। ३ प्रकार के लिंग हैं-
मूल स्वरूप लिङ्गत्वान्मूलमन्त्र इति स्मृतः । सूक्ष्मत्वात्कारणत्वाच्च लयनाद् गमनादपि । 
लक्षणात्परमेशस्य लिङ्गमित्यभिधीयते ॥ (योगशिखोपनिषद्, २/९, १०)
(क) स्वयम्भू लिङ्ग-लीनं गमयति यस्मिन् मूल स्वरूपे। जिस मूल स्वरूप में वस्तु लीन होती है तथा उसी से पुनः उत्पन्न होती है, वह स्वयम्भू लिंग है। यह एक ही है। 
(ख) बाण लिंग-लीनं गमयति यस्मिन् दिशायाम्-जिस दिशा में गति है वह बाण लिंग है। बाण चिह्न द्वारा गति की दिशा भी दिखाते हैं। ३ आयाम का आकाश है, अतः बाण लिंग ३ हैं। 
(ग) इतर लिंग-लीनं गमयति यस्मिन् बाह्य स्वरूपे-जिस बाहरी रूप या आवरण में वस्तु है वह इतर (other) लिंग है। यह अनन्त प्रकार का है, पर १२ मास में सूर्य की १२ प्रकार की ज्योति के अनुसार १२ ज्योतिर्लिंग हैं। 
भाषा भी लिङ्ग (Lingua, Language) है, जिससे हमारे आन्तरिक विचार दीखते हैं।
एषः प्रजापतिर्यद् हृदयमेतद् ब्रह्मैतत् सर्वम्। तदेतत् त्र्यक्षरं हृदयमिति हृ इत्येकमक्षरमभिहरन्त्यस्मै स्वाश्चान्ये च य एवं वेद। द इत्येकमक्षरं ददन्त्यस्मै स्वाश्चान्ये च य एवं वेद। यमित्येकमक्षरमेति स्वर्गं लोकं य एवं वेद॥ (शतपथ ब्राह्मण १४/८४/१, बृहदारण्यक उपनिषद् ५/३/१) = यह हृदय ही प्रजापति है, तथा ब्रह्म और सर्व है । इसमें ३ अक्षर हैं। एक हृ है जिसमें अपना और अन्य का आहरण होता है। एक ’द’ है जो अपना और अन्य का देता है । एक ’यम्’ है जिसे जानने से स्वर्ग लोक को जाता है।
५. ग्रन्थि भेद-मूलाधार और स्वाधिष्ठान में पृथिवी और जल की ब्रह्म ग्रन्थि है। मणिपूर के ऊपर अग्नि और सूर्यमण्डलों में विष्णु ग्रन्थि है। आज्ञाचक्र के नीचे वायु और आकाश में रुद्र ग्रन्थि है।
योगशिखोपनिषद्, अध्याय १-
प्रविशेच्चन्द्र तुण्डे तु सुषुम्नावदनान्तरे। वायुना वह्निना सार्धं ब्रह्मग्रन्थिं भिनत्ति सा॥८६॥
विष्णु ग्रन्थिं ततो भित्त्वा रुद्रग्रन्थौ च तिष्ठति। ततस्तु कुम्भकैर्गाढं पूरयित्वा पुनः पुनः॥८७॥
३ ग्रन्थियों के भेदन में सहायक ३ बन्ध हैं-मूल बन्ध (मूलाधार), उड्डीयान बन्ध (मणिपूर) और जालन्धर बन्ध (विशुद्धि)। योगशिखोपनिषद्, अध्याय १-
प्रथम् मूलबन्धस्तु द्वितीयोड्डीयानाभिधः। जालन्धरस्तृतीयस्तु लक्षणं कथयाम्यहम्॥१०३॥
कुर्यादनन्तरं बस्त्रीं कुण्डलीमाशु बोधयेत्। भिद्यन्ते ग्रन्थयो वंशे तप्तलोह शलाकया॥११३॥
चण्डी पाठ की साधन समर व्याख्या में उसके ३ चरित्रों को ३ ग्रन्थिभेद कहा गया है। विस्तार के लिये वहीं देखें।
मुण्डकोपनिषद् के भी ३ मुण्डक भी ३ ग्रन्थिभेद हैं-
(१/१/८)-तपसा चीयते ब्रह्म ततो ऽन्नमभिजायते। अन्नात् प्राणो मनः सत्यं लोकाः कर्मसु चामृतम्॥
(२/२/८)-भिद्यते हृदयग्रन्थिः छिद्यन्ते सर्वसंशयाः। क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन् दृष्टे परावरे॥
(३/२/९)-स यो ह वै तत् परमं ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति नास्याब्रह्मवित् कुले भवति। तरति शोकं तरति पाप्मानं गुहा-ग्रन्थिभ्यो विमुक्तोऽमृतो भवति॥
६. हरिहर क्षेत्र- लोकभाषाओं के सन्धि क्षेत्रों के नाम हरिहर क्षेत्र हैं। उत्तर पूर्व में काशी में शिव-यज्ञ सम्बन्धी शब्द हैं, मिथिला में कृषि (अथर्व वेद के दर्भ सूक्त तथा कृषिसूक्त) तथा शक्ति के शब्द हैं। मगध में विष्णु (विष्णुपद क्षेत्र गया) के शब्द हैं। इन भाषाओं का सन्धि स्थल हरिहर क्षेत्र है। पश्चिम ओड़िशा का नरसिंह क्षेत्र या हरिशंकर तीर्थ ओड़िया, छत्तीसगढ़ी, तेलुगु का समन्वय है। कर्णाटक का हरिहर क्षेत्र ५ भाषाओं का केन्द्र है-केरल में हरिहर पुत्र अयप्पा (बाइबिल का इयापेन Eapen), महाराष्ट्र के गणेश, आन्ध्र का वराह, तमिलनाडु का सुब्रह्मण्य (कार्त्तिकेय), कर्णाटक का शारदा।
🚩 हमारी एडमिन टीम की ओर से पवित्र श्रावण मास की हार्दिक शुभकामनाएँ 🚩

शिव पञ्चाक्षर स्तोत्रम्

नागेन्द्रहाराय त्रिलोचनाय भस्माङ्गरागाय महेश्वराय । 
नित्याय शुद्धाय दिगम्बराय तस्मै ‘न’काराय नमः शिवाय ॥१॥ 
मन्दाकिनीसलिलचन्दनचर्चिताय नन्दीश्वरप्रमथनाथमहेश्वराय । 
मन्दारपुष्पबहुपुष्पसुपूजिताय तस्मै ‘म’काराय नमः शिवाय ॥२॥ 
शिवाय गौरीवदनाब्जवृन्दसूर्याय दक्षाध्वरनाशकाय ।
श्रीनीलकण्ठाय वृषध्वजाय तस्मै ‘शि’काराय नमः शिवाय ॥३॥ 
वसिष्ठकुम्भोद्भवगौतमार्य मुनीन्द्रदेवार्चितशेखराय ।
चन्द्रार्कवैश्वानरलोचनाय तस्मै ‘व’काराय नमः शिवाय ॥४॥ 
यक्षस्वरूपाय जटाधराय पिनाकहस्ताय सनातनाय ।
दिव्याय देवाय दिगम्बराय तस्मै ‘य’काराय नमः शिवाय ॥५॥

पञ्चाक्षरमिदं पुण्यं यः पठेच्छिवसन्निधौ । 
शिवलोकमवाप्नोति शिवेन सह मोदते ॥६॥

भावार्थ: जिनके कंठ में साँपों का हार है,जिनके तीन नेत्र हैं, भस्म ही जिनका अंगराग(अनुलेपन) है;दिशाएँ ही जिनका वस्त्र है [अर्थात् जो नग्न हैं] , उन शुद्ध अविनाशी महेश्वर ‘न’कारस्वरूप शिव को नमस्कार है || गंगाजल और चन्दन से जिनकी अर्चना हुई है, मंदार पुष्प तथा अन्यान्य कुसुमों से जिनकी सुन्दर पूजा हुई है, उन नंदी के अधिपति प्रथमगणों के स्वामी महेश्वर ‘म’कारस्वरूप शिव को नमस्कार है || जो कल्याणस्वरूप हैं, पार्वती के मुखकमल को विकसित(प्रसन्न) करने के लिए जो सूर्यस्वरूप हैं,जो दक्ष के यज्ञ का नाश करने वाले हैं.जिनकी ध्वजा में बैल का चिन्ह है, उन शोभाशाली नीलकंठ ‘शि’कारस्वरूप शिव को नमस्कार है || वसिष्ठ,अगस्त्य,और गौतम आदि श्रेष्ठ मुनियों ने तथा इन्द्रादि देवताओं ने जिनके मस्तक की पूजा की है, चन्द्रमा,सूर्य और अग्नि जिनके नेत्र हैं, उन ‘व’कारस्वरूप शिव को नमस्कार है || जिन्होंने यक्षरूप धारण किया है, जो जटाधारी हैं, जिनके हाथ में पिनाक है. जो दिव्य सनातनपुरुष हैं,उन दिगंबर देव ‘य’कारस्वरूप शिव को नमस्कार है || जो शिव के समीप इस शिवपञ्चाक्षर- स्तोत्र का पाठ करता है, वह शिवलोक को प्राप्त करता है और वहाँ शिवजी के साथ आनंदित होता है ||