१. शब्दार्थ- समान्यतः विष्णु को हरि और शिव को हर कहते हैं। शिव का स्मरण ’हर हर महादेव’ से होता है। प्रायः युद्ध में अन्तिम आक्रमण के समय ’हर हर महादेव’ कहते हैं, जब मरने या मारने की स्थिति होती है। लोक भाषा में जगत् और विश्व का एक ही अर्थ है, पर पुराण की वैज्ञानिक भाषा में विष्णु को जगन्नाथ और शिव को विश्वनाथ कहते हैं। दोनों में कुछ एकत्व है जैसा स्कन्दोपनोषद् में कहा गया है-
शिवाय विष्णुरूपाय शिवरूपाय विष्णवे। शिवस्य हृदयं विष्णुः, विष्णोश्च हृदयं शिवः॥८॥
यथा शिवमयो विष्णुः, एवं विष्णुमयं शिवः। यथान्तरं न पश्यामि तथा मे स्वस्तिरायुषि॥९॥
भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा है-
रुद्रो नारायणश्चैव सत्त्वमेकं द्विधा कृतम्। लोके चरति कौन्तेय व्यक्तिस्थं सर्वकर्मसु॥
(महाभारत, शान्ति पर्व, ३४१/२७)
भगवान् श्री राम ने भी सेतुबन्ध के बाद रामेश्वर शिवलिङ्ग की स्थापना कर्र कहा था-
शिवद्रोही मम भगत कहावा। सो नर सपनेहु मोहि न भावा॥७॥
शंकर विमुख भगति चह मोरी। सो नर नारकी मूढ़ मति थोरी॥८॥
(रामचरितमानस, लंका काण्ड, २/७-८)
सामान्यतः विष्णु क्रिया रूप और शिव ज्ञान रूप हैं।
हरिहर शब्द का अर्थ विष्णु और शिव का मिलन है। विष्णु के मोहिनी रूप से शिव को सन्तान हुई थी जिसकी केरल में अयप्पा के नाम से पूजा होती है।
२. गायत्री मन्त्र का खण्ड- एकमूर्तिस्त्रयो देवाः, ब्रह्मविष्णु महेश्वराः। त्रयाणामन्तरं नास्ति गुणभेदाः प्रकीर्तिताः॥
(स्कन्द पुराण ५ अवन्ती खण्ड, रेवा खण्ड १४६/११६, पद्म पुराण, २ भूमि खण्ड, ७१/२१)
गायत्री मन्त्र के ३ पाद ब्रह्म के ३ रूप वर्णन करते हैं-
प्रथम पाद स्रष्टा रूप ब्रह्मा- तत् सवितुर्वरेण्यम्।
द्वितीय पाद क्रिया रूप विष्णु-भर्गो देवस्य धीमहि।
तृतीय पाद ज्ञान रूप शिव-धियो यो नः प्रचोदयात्।
३. हरि, हर-(१) अर्थ-कोष में व्याकरण के अनुसार दोनों शब्दों की एक ही व्युत्पत्ति दी गयी है-जो पापों का हरण करे। अन्तर देखने के लिए वैदिक परिभाषा देखनी पड़ेगी। वेद में प्राण या उसके प्रकाश रूप को हरि कहा है।
प्राणो वै हरिः, स हि हरति (कौषीतकि ब्राह्मण, १७/१)
यहां हरण अर्थ में भी हरि का प्रयोग है।
ऊर्जा का एक रूप किरण है; इस अर्थ में हरि का प्रयोग है-
इन्द्रो मायाभिः पुरु-रूप ईयते, युक्ता ह्यस्य हरयः शता दश (ऋक्, ६/४७/१८)
= इन्द्र बिना रूप का प्रकाश रूप तेज है, वह माया (आवरण) द्वारा अनेक प्रकार के पुरु रूप में चलता है। पुर का अर्थ रचना है, पुरु उसका क्रिया रूप है। हरयः शतादश = सहस्र किरण।
वेद में शिव के लिए प्रायः रुद्र शब्द है। उसके शान्त रूप को शिव कहा है।
घोरो वै रुद्रः (कौषीतकि ब्राह्मण, १६/७)
या ते रुद्र शिवा तनूः अघोरा पापकाशिनी॥ (वाज.यजु, १६/२, ४९, श्वेताश्वतर उपनिषद्, ३/५ आदि)
शिव इति शमयन्ति एव एनं (अग्निम्), एतद् अहिंसायै, तथो हैष (अग्निः) इमान् लोकान् शान्तो न हिनस्ति (शतपथ ब्राह्मण, ६/७/३/१५)-वाज. यजु (१२/१७) में शिव का अर्थ।
सूर्य से किरण या कण निकलना उसका रुदन है।
(२) सौर मण्डल के सन्दर्भ में-
सूर्य पिण्ड = अग्नि (पदार्थ पिण्ड)। किरणों का प्रसार = इन्द्र। उनकी ऊर्जा या प्राण = हरि। तेज का अनुभव = हर, रुद्र।
चन्द्र कक्षा तक का क्षेत्र = १०० सूर्य व्यास तक ताप क्षेत्र = रुद्र।
चन्द्र कक्षा केन्द्र में पृथ्वी से शिव क्षेत्र का आरम्भ। इस अर्थ में शिव के ललाट पर चन्द्र है।
शनि कक्षा तक शिवतर क्षेत्र = १००० सूर्य व्यास तक।
उसके बाहर शिवतम क्षेत्र सौर मण्डल सीमा तक।
सौर मण्डल के बाहर महः लोक में महादेव रूप, महिष सोम।
जनः लोक (ब्रह्माण्ड या गैलेक्सी) में सदाशिव रूप। उसके अप् में शब्द होने से अम्भ होता है, जन्म स्थान होने से अम्ब। ३ पृथिवी (पृथ्वी ग्रह, सौर मण्डळ का आकर्षण क्षेत्र, ब्रह्माण्ड) ३ अम्ब हैं। उसके साथ साम्ब-सदाशिव रूप है।
नमः शिवाय च शिवतराय च (वाजसनेयी सं. १६/४१, तैत्तिरीय सं. ४/५/८/१, मैत्रायणी सं. २/९/७)
यो वः शिवतमो रसः, तस्य भाजयतेह नः। (अघमर्षण मन्त्र, वाजसनेयी सं., ११/५१)
सदाशिवाय विद्महे, सहस्राक्षाय धीमहि तन्नो साम्बः प्रचोदयात्। (वनदुर्गा उपनिषद्, १४१)
आापो वा अम्बयः । (कौषीतकि ब्राह्मण उपनिषद्, १२/२)
अयं वै लोकोऽम्भांसि (तैत्तिरीय ब्राह्मण, ३/८/१८/१)
शत योजने ह वा एष (आदित्य) इतस्तपति (कौषीतकि ब्राह्मण उपनिषद्, ८/३)
स एष (आदित्यः) एक शतविधस्तस्य रश्मयः । शतविधा एष एवैक शततमो य एष तपति (शतपथ ब्राह्मण, १०/२/४/३)
युक्ता ह्यस्य (इन्द्रस्य) हरयः शतादशेति । सहस्रं हैत आदित्यस्य रश्मयः (इन्द्रः=आदित्यः) जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण, १/४४/५)
असौ यस्ताम्रो अरुण उत बभ्रुः सुमङ्गलः । ये चैनं रुद्रा अभितो दिक्षु श्रिताः सहस्रोऽवैषां हेड ईमहे ॥ (वा.यजु.१६/६)
महत् तत् सोमो महिषः चकार (ऋक्, ९/९७/४१, सामवेद, १/५४२, २/६०५)
ब्रह्माण्ड के बाहर अनन्त आकाश में परमेश्वर रूप जिसके सङ्कल्प से सृष्टि का आरम्भ।
सूर्य अपने आकर्षण से पृथ्वी आदि ग्रहों को कक्षा में बान्ध कर रखता है। यह सुप्त रूप विष्णु है। उसकी किरण ऊर्जा हरि से पृथ्वी पर जीवन चल रहा है, यह जगन्नाथ या जाग्रत रूप है।
(३) पृथ्वी पर-वेद संहिता संकलन के लिए स्वायम्भुव मनु से कृष्ण द्वैपायन तक २८ व्यास हुए हैं। उनको ज्ञान रूप शिव का अवतार कहा गया है (कूर्म पुराण, अध्याय, १/५२, शिव पुराण, अध्याय, ३/४-५)। असुरों को पराजित कर धर्म स्थापना करने वालों को विष्णु का अवतार कहा गया है। (गीता, ४/७)।
(४) मनुष्य शरीर-शरीर का आवरण रूप लिङ्ग है (लिङ्ग शरीर)-
सूक्ष्मशरीराणि सप्तदशावयवानि लिङ्गशरीराणि । अवय वास्तु ज्ञानेन्द्रियपञ्चकं बुद्धिमनसी कर्मेन्द्रियपञ्चकं चायुपञ्चकं चेति । ज्ञानेन्द्रियाणि श्रोत्रत्वक्चक्षुर्जिह्वाघ्राणाख्यानि। (वेदान्त सार, खण्ड १३)।
इसमें ११ इन्द्रियां रुद्र हैं (५ कर्मेन्द्रिय, ५ ज्ञानेन्द्रिय, उभयात्मक मन)। इनमें मन को शिव कहा गया है। इनके रूप १० प्राण और आत्मा हैं।
कतमे रूद्रा इति, दशेमे पुरुषे प्राणा, आत्मा एकादशः, ते यद् यस्मात् मर्त्यात् शरीरात् उत्क्रामन्ति, अथ रोदयन्ति। तद् यद् रोदयन्ति, तस्मात् रुद्रा, इति। (माध्य. शतपथ ब्राह्मण, १/६/३/७, बृहदारण्यक उपनिषद्, ३/९/४)
दश पुरुषे प्राणा, इति ह उवाच। आत्मा एकादशः। ते यत् उत्क्रामन्तः यन्ति अथ रोदयन्ति। तस्मात् रुद्राः, इति। (जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण, २/७७)
४. शिव, विष्णु-विष्णु -वेवेष्टि इति विष्णुः-सर्वत्र व्याप्त है, अतः विष्णु।
शिव-शेरते अस्मिन् सर्वे, इति शिवः-सब कुछ इसी में है।
बाह्य आवरण शिव है, केन्द्र में क्रिया का सञ्चालक विष्णु है। विष्णु क्रिया रूप में यज्ञ है-विष्णुः वै यज्ञः (ऐतरेय ब्राह्मण, १/३३)
बाह्य आवरण लिङ्ग है। लीनं + गमयति = लिंग। ३ प्रकार के लिंग हैं-
मूल स्वरूप लिङ्गत्वान्मूलमन्त्र इति स्मृतः । सूक्ष्मत्वात्कारणत्वाच्च लयनाद् गमनादपि ।
लक्षणात्परमेशस्य लिङ्गमित्यभिधीयते ॥ (योगशिखोपनिषद्, २/९, १०)
(क) स्वयम्भू लिङ्ग-लीनं गमयति यस्मिन् मूल स्वरूपे। जिस मूल स्वरूप में वस्तु लीन होती है तथा उसी से पुनः उत्पन्न होती है, वह स्वयम्भू लिंग है। यह एक ही है।
(ख) बाण लिंग-लीनं गमयति यस्मिन् दिशायाम्-जिस दिशा में गति है वह बाण लिंग है। बाण चिह्न द्वारा गति की दिशा भी दिखाते हैं। ३ आयाम का आकाश है, अतः बाण लिंग ३ हैं।
(ग) इतर लिंग-लीनं गमयति यस्मिन् बाह्य स्वरूपे-जिस बाहरी रूप या आवरण में वस्तु है वह इतर (other) लिंग है। यह अनन्त प्रकार का है, पर १२ मास में सूर्य की १२ प्रकार की ज्योति के अनुसार १२ ज्योतिर्लिंग हैं।
भाषा भी लिङ्ग (Lingua, Language) है, जिससे हमारे आन्तरिक विचार दीखते हैं।
एषः प्रजापतिर्यद् हृदयमेतद् ब्रह्मैतत् सर्वम्। तदेतत् त्र्यक्षरं हृदयमिति हृ इत्येकमक्षरमभिहरन्त्यस्मै स्वाश्चान्ये च य एवं वेद। द इत्येकमक्षरं ददन्त्यस्मै स्वाश्चान्ये च य एवं वेद। यमित्येकमक्षरमेति स्वर्गं लोकं य एवं वेद॥ (शतपथ ब्राह्मण १४/८४/१, बृहदारण्यक उपनिषद् ५/३/१) = यह हृदय ही प्रजापति है, तथा ब्रह्म और सर्व है । इसमें ३ अक्षर हैं। एक हृ है जिसमें अपना और अन्य का आहरण होता है। एक ’द’ है जो अपना और अन्य का देता है । एक ’यम्’ है जिसे जानने से स्वर्ग लोक को जाता है।
५. ग्रन्थि भेद-मूलाधार और स्वाधिष्ठान में पृथिवी और जल की ब्रह्म ग्रन्थि है। मणिपूर के ऊपर अग्नि और सूर्यमण्डलों में विष्णु ग्रन्थि है। आज्ञाचक्र के नीचे वायु और आकाश में रुद्र ग्रन्थि है।
योगशिखोपनिषद्, अध्याय १-
प्रविशेच्चन्द्र तुण्डे तु सुषुम्नावदनान्तरे। वायुना वह्निना सार्धं ब्रह्मग्रन्थिं भिनत्ति सा॥८६॥
विष्णु ग्रन्थिं ततो भित्त्वा रुद्रग्रन्थौ च तिष्ठति। ततस्तु कुम्भकैर्गाढं पूरयित्वा पुनः पुनः॥८७॥
३ ग्रन्थियों के भेदन में सहायक ३ बन्ध हैं-मूल बन्ध (मूलाधार), उड्डीयान बन्ध (मणिपूर) और जालन्धर बन्ध (विशुद्धि)। योगशिखोपनिषद्, अध्याय १-
प्रथम् मूलबन्धस्तु द्वितीयोड्डीयानाभिधः। जालन्धरस्तृतीयस्तु लक्षणं कथयाम्यहम्॥१०३॥
कुर्यादनन्तरं बस्त्रीं कुण्डलीमाशु बोधयेत्। भिद्यन्ते ग्रन्थयो वंशे तप्तलोह शलाकया॥११३॥
चण्डी पाठ की साधन समर व्याख्या में उसके ३ चरित्रों को ३ ग्रन्थिभेद कहा गया है। विस्तार के लिये वहीं देखें।
मुण्डकोपनिषद् के भी ३ मुण्डक भी ३ ग्रन्थिभेद हैं-
(१/१/८)-तपसा चीयते ब्रह्म ततो ऽन्नमभिजायते। अन्नात् प्राणो मनः सत्यं लोकाः कर्मसु चामृतम्॥
(२/२/८)-भिद्यते हृदयग्रन्थिः छिद्यन्ते सर्वसंशयाः। क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन् दृष्टे परावरे॥
(३/२/९)-स यो ह वै तत् परमं ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति नास्याब्रह्मवित् कुले भवति। तरति शोकं तरति पाप्मानं गुहा-ग्रन्थिभ्यो विमुक्तोऽमृतो भवति॥
६. हरिहर क्षेत्र- लोकभाषाओं के सन्धि क्षेत्रों के नाम हरिहर क्षेत्र हैं। उत्तर पूर्व में काशी में शिव-यज्ञ सम्बन्धी शब्द हैं, मिथिला में कृषि (अथर्व वेद के दर्भ सूक्त तथा कृषिसूक्त) तथा शक्ति के शब्द हैं। मगध में विष्णु (विष्णुपद क्षेत्र गया) के शब्द हैं। इन भाषाओं का सन्धि स्थल हरिहर क्षेत्र है। पश्चिम ओड़िशा का नरसिंह क्षेत्र या हरिशंकर तीर्थ ओड़िया, छत्तीसगढ़ी, तेलुगु का समन्वय है। कर्णाटक का हरिहर क्षेत्र ५ भाषाओं का केन्द्र है-केरल में हरिहर पुत्र अयप्पा (बाइबिल का इयापेन Eapen), महाराष्ट्र के गणेश, आन्ध्र का वराह, तमिलनाडु का सुब्रह्मण्य (कार्त्तिकेय), कर्णाटक का शारदा।
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