Wednesday, June 29, 2022

हिरण्यगर्भ शब्द भारतीय सनातनी विचारधारा में सृष्टि का आरंभिक स्रोत माना जाता है। https://astronorway.blogspot.com/

इसका शाब्दिक अर्थ है – प्रदीप्त गर्भ (अंडज् या उत्पत्ति-स्थान)। इस शब्द का प्रथमतः उल्लेख #ऋग्वेद में हुआ है। 

हिरण्यगर्भ: समवर्तताग्रे भूतस्य जात: पतिरेक आसीत्।
 स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम॥ 
--- सूक्त ऋग्वेद -१०-१२१-१ https://astronorway.blogspot.com/

भावार्थ- "सब सूर्यादि तेजस्वी पदार्थों क आधार जो जगत हो और होएगा उसका आधार परमात्मा जगत की उत्पत्ति के पूर्व विद्य़मान था। जिसने पृथ्वी और सूर्य-तारों का सृजन किया उस देव की प्रेम भक्ति किया करें।" https://astronorway.blogspot.com/

इस श्लोक से हिरण्यगर्भ ईश्वर का अर्थ लगाया जाता है - यानि वो गर्भ जहाँ हर कोई वास करता हो। वेदान्त और दर्शन ग्रंथों में हिरण्यगर्भ शब्द कई बार आया है। अनेक भारतीय परम्पराओं में इस शब्द का अर्थ अलग प्रकार से लगाया जाता है।https://astronorway.blogspot.com/

सामान्यतः हिरण्यगर्भ शब्द का प्रयोग जीवात्मा के लिए हुआ है जिसे ब्रह्मा जी भी कहा गया है। ब्रह्म और ब्रह्मा जी एक ही ब्रह्म के दो अलग अलग तत्त्व हैं। ब्रह्म अव्यक्त अवस्था के लिए प्रयुक्त होता है और ब्रह्माजी ब्रह्म की तैजस अवस्था है। ब्रह्म का तैजस स्वरूप ब्रह्मा जी हैं। 
https://astronorway.blogspot.com/
हिरण्यगर्भ शब्द का अर्थ है सोने के अंडे के भीतर रहने वाला. सोने का अंडा क्या है और सोने के अंडे के भीतर रहने वाला कौन है? पूर्ण शुद्ध ज्ञान की शांतावस्था ही हिरण्य - सोने का अंडा है। उसके अंदर अभिमान करनेवाला चैतन्य ज्ञान ही उसका गर्भ है जिसे हिरण्यगर्भ कहते हैं। 

स्वर्ण आभा को पूर्ण शुद्ध ज्ञान का प्रतीक माना गया है जो शान्ति और आनन्द देता है जैसे प्रातः कालीन सूर्य की अरुणिमा. इसके साथ ही अरुणिमा सूर्य के उदित होने (जन्म) का संकेत है। 

ब्रह्म की ४ अवस्थाएँ हैं प्रथम अवस्था #अव्यक्त है, जिसे कहा नहीं जा सकता, बताया नहीं जा सकता। दूसरी #प्राज्ञ है जिसे पूर्ण विशुद्ध ज्ञान की शांतावस्था कहा जाता है। इसे हिरण्य कह सकते हैं। क्षीर सागर में शेष नाग शय्या पर लेटे श्रीहरि विष्णु इसी का चित्रण है। मनुष्य की सुषुप्ति इसका प्रतिरूप है। शैवों ने इसे ही शिव कहा है। तीसरी अवस्था #तैजस है जो हिरण्य में जन्म लेता है इसे हिरण्यगर्भ कहा है। यहाँ ब्रह्म ईश्वर कहलाता है। इसे ही ब्रह्मा जी कहा है। 

मनुष्य की स्वप्नावाथा इसका प्रतिरूप है। यही मनुष्य में जीवात्मा है। यह जगत के आरम्भ में जन्म लेता है और जगत के अन्त के साथ लुप्त हो जाता है। ब्रह्म की चौथी अवस्था #वैश्वानर है। मनुष्य की जाग्रत अवस्था इसका प्रतिरूप है। सम्पूर्ण सृष्टि का निर्माण विस्तार ब्रह्म का वैश्वानर स्वरूप है।

 ---ऋग्वेद का #ऐतरेयोपनिषद इससे यह न समझें कि ब्रह्म या ईश्वर चार प्रकार का होता है, यह एक ब्रह्म की चार अवस्थाएँ है। इसकी छाया मनुष्य की चार अवास्थों में मिलती है, जाग्रत, स्वप्न, सुसुप्ति और तुर्या स्वरूप स्थिति जिसे बताया नहीं जा सकता। https://astronorway.blogspot.com/

सृष्ठि के आरंभ:: वेद प्राचीन भारतीय उपमहाद्वीप का ग्रंथों का ग्रन्थ है। वैदिक संस्कृत में रचित संस्कृत ग्रंथ साहित्य की सबसे पुरानी परत और हिंदू धर्म के सबसे पुराने शास्त्रों का गठन है। वेदों में प्रथम ऋग्वेद के "हिरण्यगर्भ सूक्त" वाणी है कि- "शुरुआत में, भगवान ब्रह्मांड के निर्माता के रूप में खुद को प्रकट किया, सब बातों को शामिल, खुद के भीतर सब कुछ, सामूहिक समग्रता सहित।" 

"हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेकासीत । 
स दाधार पृथ्वीं ध्यामुतेमां कस्मै देवायहविषा विधेम ॥ 

य आत्मदा बलदा यस्य विश्व उपासते प्रशिषं यस्यदेवाः । 
यस्य छायामृतं यस्य मर्त्युः कस्मै देवायहविषा विधेम ॥ 

यः प्राणतो निमिषतो महित्वैक इद्राजा जगतो बभूव । 
य ईशे अस्य द्विपदश्चतुष्पदः कस्मै देवाय हविषाविधेम ॥ 

यस्येमे हिमवन्तो महित्वा यस्य समुद्रं रसया सहाहुः । 
यस्येमाः परदिशो यस्य बाहू कस्मै देवाय हविषाविधेम ॥ 

येन दयौरुग्रा पर्थिवी च दर्ळ्हा येन सव सतभितं येननाकः । 
यो अन्तरिक्षे रजसो विमानः कस्मै देवायहविषा विधेम ॥ 

यं करन्दसी अवसा तस्तभाने अभ्यैक्षेतां मनसारेजमाने । 
यत्राधि सूर उदितो विभाति कस्मै देवायहविषा विधेम ॥ 

आपो ह यद बर्हतीर्विश्वमायन गर्भं दधानाजनयन्तीरग्निम । 
ततो देवानां समवर्ततासुरेकःकस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ 

यश्चिदापो महिना पर्यपश्यद दक्षं दधानाजनयन्तीर्यज्ञम । 
यो देवेष्वधि देव एक आसीत कस्मैदेवाय हविषा विधेम ॥ 

मा नो हिंसीज्जनिता यः पर्थिव्या यो वा दिवंसत्यधर्मा जजान। यश्चापश्चन्द्रा बर्हतीर्जजानकस्मै देवाय हविषा विधेम ॥

परजापते न तवदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परि ताबभूव । यत्कामास्ते जुहुमस्तन नो अस्तु वयं सयाम पतयोरयीणाम॥" ---ऋग्वेद १०-१२१ 

भावार्थ:: "सृष्टि से पहले सत् नहीं था, असत् भी नहीं.. अंतरिक्ष भी नहीं, आकाश भी नहीं था! छिपा था क्या, कहाँ, किसने ढ़ँक दिया था? उस पल तो अगम, अटल जल भी कहाँ था! सृष्टि का कौन है कर्ता? कर्ता है या विकर्ता? ऊंचे आकाश में रहता। सदा अध्यक्ष बना रहता। वही सच में जानता.. या नहीं भी जानता था! हैं किसी को नहीं पता, नहीं पता, नहीं है पता, नहीं है पता...!!" "वोह था हिरण्य गर्भ सृष्टि से पहले विद्यमान। वो ही तो सारे भूत जाति का स्वामी महान। जो है अस्तित्वमान धरती आसमान धारण कर। ऐसे किस देवता की उपासना करे हम हवी देकर? जिस के बल पर तेजोमय है अम्बर। पृथ्वी हरी भरी स्थापित स्थिर। स्वर्ग और सूरज भी स्थिर। ऐसे किस देवता की उपासना करे हम हवी देकर? गर्भ में अपने अग्नि धारण कर पैदा कर, व्याप था जल इधर उधर नीचे ऊपर, जगा चुके वो का एकमेव प्राण बनकर, ऐसे किस देवता की उपासना करे हम हवी देकर? ॐ ! सृष्टि निर्माता स्वर्ग रचयिता पूर्वज रक्षा कर। सत्य धर्म पालक अतुल जल नियामक रक्षा कर। फैली हैं दिशाएं बहु जैसी उसकी सब में सब पर, ऐसे ही देवता की उपासना करे हम हवी देकर, ऐसे ही देवता की उपासना करे हम हवी देकर।" (कस्मै = किस; देवाय = देवता; हविषा = हवी; विधेम = देना, समर्पित करना) सृजन और जीवन का मूल है हिरण्यगर्भ:: हमारा ध्यान उस ओर नहीं जाता, जिसकी चर्चा जीवन में सबसे कम होती है। पर ज्यादातर मामलों में जो अचर्चित रहता है, वही सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता है। इसका अभिप्राय किसी अन्य तत्व के महत्व को कम करना नहीं, बल्कि जो वास्तव में महत्वपूर्ण है, उसकी महत्ता जानने का प्रयास करना है। https://astronorway.blogspot.com/

जैसे बीज को ही लें। वृक्ष है, तो वह बीज से ही पैदा हुआ होगा। बीज का अंकुरण हुआ, उससे पौधा बना और फिर पौधा बड़ा होकर वृक्ष के रूप में सामने आया। बीज और वृक्ष, इनमें से किसी का महत्व कम नहीं है, पर क्या किसी को यह ध्यान रहता है कि बीज को धारण करने और उसे सुरक्षित रखने वाला एक खोल या छिलका भी होता है। न वह बीज है और न वृक्ष, तो क्या इससे छिलके का महत्व कम हो जाता है? पिता महत्वपूर्ण है, माता की भी महत्ता है, मगर माता जन्म देने में सफल मात्र इसलिए होती है कि उसके शरीर में 'गर्भाशय' है। गर्भाशय जीव नहीं है, स्वयं में जीवन नहीं है, किन्तु वह सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि वह जीव को धारण करता है। उसी के अन्दर जीव सुरक्षित रहता है, पलता है और परिपक्व होकर जन्म लेता है। अंडा फूटता है, उसका खोल निष्क्रिय, बेकार हो जाता है, किन्तु उस खोल की अनुपस्थिति में अंडा कैसा? जीव कहाँ? जीवन कैसे? धान कूटकर चावल निकाल लिया जाता है, भूसा फेंक दिया जाता है। 
https://astronorway.blogspot.com/
लगता है कि जैसे उसमें कोई तत्व नहीं, किन्तु उस भूसे में भी बहुत कुछ है। बहुत उपयोग है उसका। कई कार्यों में वह सहायक होता है। उसे जब जलाया जाता है, तब वह निरंतर मंद ताप देता है। वही चावल को धारण करने वाला है। बेकार नहीं है वह, बल्कि महत्वपूर्ण है। जो खोल का महत्व है, वही वेदों में वर्णित हिरण्यगर्भ का है। वेद बताते हैं कि हिरण्यगर्भ का सृजन सर्वप्रथम हुआ था। यहां 'सर्वप्रथम' शब्द पर विवाद जरूर है, किन्तु कई मान्यताओं के अनुसार उसकी सर्जना पहले हुई। वही शून्य था। वह शून्य बढ़ते हुए महाशून्य हुआ। इसी महाशून्य में संपूर्ण ब्रह्मांड विराजमान है। 

यह हिरण्यगर्भ गर्भाशय है, जीव का भी और सृष्टि का भी। इसी हिरण्यगर्भ को भगवान, समष्टि और बुद्धि भी कहते हैं। योगियों के लिए यह अजन्मा है (क्योंकि जन्म इसी से सम्भव है)। 'https://astronorway.blogspot.com/
हिरण्यगर्भ सूक्त - ऋग्वेद संहिता के दशम मण्डल के १२१वें सूक्त को 'हिरण्यगर्भ सूक्त' कहते हैं क्योंकि इसका देवता हिरण्यगर्भ है। नौ मन्त्रों के इस सूक्त में प्रत्येक मन्त्र में 'कस्मै देवाय हविषा विधेम' कहकर यह बात दोहरार्इ गयी है कि ऐसे विशिष्ट हिरण्यगर्भ को छोड़कर हम किस अन्य देव की आराधना करेंं? हमारे लिए तो यह 'क' संज्ञक प्रजापति ही सर्वाधिक पूजनीय है। इस हिरण्यगर्भ का स्वरूप, महिमा और उससे होने वाली उत्पत्ति का विवरण इस सूक्त में बड़े सरल और स्पष्ट शब्दों में किया गया है। हिरण्यगर्भ ही सृष्टि का नियामक और धर्ता है। https://astronorway.blogspot.com/

 "

No comments:

Post a Comment