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यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते | येन जातानि जीवन्ति |
यत् प्रयन्त्यभिसंविशन्ति | तद्विजिज्ञासस्व | तद् ब्रह्मेति || – तैत्तिरीयोपनिषत् ३-१-३
इमानि भूतानि यतो जायन्ते, जातानि येन जीवन्ति, यदेव अभिसंविशन्ति प्रयन्ति, तदेव ब्रह्म,
तदेव विजिज्ञासस्व | अर्थात् – समस्तम् इदम् विश्वं यस्माद् उत्पद्यते, येनैव जीवति, यस्मिन्नेव च लीयते तदेव ब्रह्म | एवं समस्तस्यापि जगतः सृष्टिस्थितिलयकारणभूतं तत्त्वं वेदान्तेषु ब्रह्मशब्देन गीयते | सकलस्यास्य विश्वस्य ब्रह्म उपादानं निमित्तं च कारणं भवति | अतः ब्रह्म नैव कार्यं भवेत् | जगत्कारणत्वेन ब्रह्मण एव प्रतिपादितत्वात् कापिलसांख्यदर्शने प्रतिपादितं प्रधानं वा वैशेषिकदर्शने प्रतिपादितः परमाणुर्वा जगतः कारणं नैव भवति इत्यभिप्रायः ||https://astronorway.blogspot.com/
अस्तु , अब प्रश्न ये है कि ब्रह्म का ज्ञान कैसे होता है ? अब इसके उत्तर में आगे देखो –
वेद कहता है तपस्या से ब्रह्म को जानो क्योंकि तप ही ब्रह्म है – तपसा ब्रह्म विजिज्ञासस्व| तपो ब्रह्मेति| – तैत्तिरीयोपनिषत् / भृगुवल्ली / ० १https://astronorway.blogspot.com/
अपनी तपस्या से पूर्वकाल में स्त्रियाँ वेद मन्त्रों का साक्षात्कार कर लेतीं थी, उनकी तपस्या क्या है ? स्वधर्म पर चलने से उनको वेद्य तत्त्व का ज्ञान हो जाता था वो तपस्या है स्वधर्मपालन, देव, द्विज, गुरु, प्राज्ञों का पूजन , आर्जव , इन्द्रियों पर निग्रह , अहिंसा , इसी से वे पापदेहा स्त्रियाँ शुद्धता को प्राप्त होती हैं | (देवस्य द्विजस्य आचार्यस्य पण्डितस्य च अर्चनम्, शुद्धता, आर्जवम्, ब्रह्मचर्यम्, अहिंसा च शारीरं तपः इत्युच्यते) –https://astronorway.blogspot.com/
देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम् | ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते || (-भगवद्गीता १४/१४ ) ऋषन्ति ज्ञानसंसारयोः पारं गच्छन्ति ऋषयः| ऋषी श गतौ नाम्नीति किः| रिषिर्हसादिश्च| विद्याविदग्धमतयो रिषयः प्रसिद्धाः| इति प्रयोगात्| स्त्रियां ऋषी च| इत्यमरटीकायां भरतः इति हि श्रूयते |https://astronorway.blogspot.com/
अथवा ऋषन्ति अवगच्छन्ति इति ऋषयो मन्त्राः| · ऋषि दर्शनात् (नि०२|१९|१). · स्तोमान् ददर्शेत्यौपमन्यवः| · तद् यद् एतांस्तपस्यमानान् ब्रह्म (वेदं) स्वयम्भवभ्यानर्षत्, त ऋषयोऽभवन्, तद् ऋषिणामृषित्वम्| -निरुक्त २/१९/१ ऋषि गोत्र प्रवर्तक , दीर्घायु , मन्त्रसाक्षात्कर्ता, दिव्यद्रष्टा आदि हुए | दीर्घायुषो मन्त्रकृत ईश्वरा दिव्यचक्षुषः| बुद्धाः प्रत्यक्षधर्माणो गोत्रप्रवर्तकाश्च ये || (वायुपु० पूर्वार्ध ६१/९४ ) ऋषि शब्द का ही स्त्रीत्व विवक्षा में प्रयोग हुआ है ऋषिका , क्यों कहा है ऋषिका ? क्योंकि किसी एक समानधर्म से उसे वह कहा गया , यथा लोक में शौर्य या क्रौर्य आदि किसी सामान धर्म के आधार पर बालक को भी सिंह कह दिया जाता है (सिंहोsयं माणवकः) | क्या समानता है ? समानता है दीर्घायुत्व की , दिव्य-द्रष्टृत्व की , प्रत्यक्षा धर्मा होने की | स्त्रियाँ भी तो दिव्यदर्शिणी हो सकती हैं | किन्तु क्या कभी तुमने किसी ऋषिका के नाम से गोत्र सुना ? नहीं न ! क्यों ? क्या किसी शास्त्र में कभी स्त्रियों की शिष्या परम्परा सुनी ? कोई स्थान विशेष में पाठ शाला पढी , जहां उनको वेदाध्ययन कराया जाता था ? नहीं न ! वो इसलिए क्योंकि उनका ऋषिका होना ऋषियों के मार्ग की भांति न रहा | उनका सिद्धि प्राप्ति का मार्ग दूसरा है | इसी प्रकार वेदोक्त सीता , सावित्री आदि सभी शब्द लौकिक अर्थ तुल्य ग्राह्य नहीं , लौकिक शब्दों तथा वैदिक शब्दों के अर्थ में बहुत भेद होता है | जैसे लोक में कवि शब्द का अर्थ कविता करने वाला होता है किन्तु वेद में त्रिकालज्ञ , लोक में क्रतु का अर्थ यज्ञ होता है किन्तु वेद में इसी शब्द का अर्थ बुद्धि हो जाता है – अग्निर्होता कविक्रतु: (ऋग्वेद , अग्निसूक्त ५ ) वेद के एक ही शब्द का ब्राह्मण ग्रन्थ अनेक अर्थ प्रकाशित करते हैं, विचक्षणता के बिना इसे नहीं समझा जा सकता | बहुभक्तिवादीनि हि ब्राह्मणानि भवन्ति | पृथिवी वैश्वानर:, संवत्सरो वैश्वानरो, ब्राह्मणो वैश्वानर इति” (- निरुक्त ७/७/२४ ) अस्तु ,https://astronorway.blogspot.com/
शास्त्रकारों का कथन है कि मनुस्मृति के विरुद्ध जो स्मृति वचन है वह प्रशस्त नहीं माना गया है क्योंकि वेदार्थ के अनुसार निबद्ध होने से सर्वप्रथम मनु की मान्यता है (सर्वधर्ममयो मनु : ) , जैसा कि –
मनुस्मृति विरुद्धा या सा स्मृतिर्न प्रशस्यते |
वेदार्थोपनिबद्धत्त्वात् प्राधान्यं हि मनोः स्मृतेः | | तथाहि ——–>
यद् वै किञ्च मनुरवदत् तद् भेषजम् | ( तैत्तिरीय सं०२/२/१०/२)
मनु र्वै यत् किञ्चावदत् तत् भेषज्यायै | (- ताण्ड्य-महाब्रा०२३/१६/१७)
अथापि निष्प्रचमेव मानव्यो हि प्रजाः | ऋग्वे० १/८०/१६ अपि द्रष्टव्यम् |https://astronorway.blogspot.com/
……..ये तो हो गया पाराशर संहिता पर द्विविधा स्त्रियो ० और “पुराकल्पे हि नारीणां मौञ्जीबन्ध ० आदि का उत्तर |
अब सुनिए ब्रह्मसूत्रेण पवित्रीकृतकायाम् का उत्तर —>
ब्रह्मसूत्र शब्द विविध अर्थों वाला है , ब्रह्म शब्द के अर्थ तप , वेद , ब्रह्मा , विप्र , प्रजापति आदि माने गए हैं | अतः महाश्वेता स्वधर्म पालन रूप तपस्या से ही पवित्र काया हुई थी ऐसा सिद्ध होता है —->
ब्रह्मशब्दं तपो वेदो ब्रह्मा विप्रः प्रजापतिः इति वचनेन अत्र ब्रह्मसूत्रशब्दस्य तपः सूत्रेण पवित्रीकृतकायामिति तात्पर्यं समीचीनम् | बह्वर्थको हि ब्रह्मसूत्रशब्दः, तथाहि यज्ञोपवीतभिन्नार्थे – ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैरिति गीतायाम् |
अब आगे देखिये –https://astronorway.blogspot.com/
स्त्री का पति ही उसका गुरु है | शास्त्र कहता है –
गुरुरग्निर्द्विजातीनां वर्णानां ब्राह्मणो गुरुः |
पतिरेव गुरुः स्त्रीणां सर्वस्याऽभ्यागतो गुरुः ||
(-पद्मपुराण स्वर्ग॰५१/५१, ब्रह्मपुराण ८०/४७ )
‘अग्नि द्विजातियोँ का गुरु है, ब्राह्मण चारोँ वर्णोँ का गुरु है, एकमात्र पति ही स्त्रियोँ का गुरु है और अतिथि सबका गुरु है |’ स्त्रियों का जनेऊ संस्कार घोर पाखंड है , किं च –
वैवाहिको विधिः स्त्रीणां संस्कारो वैदिकः स्मृतः |
पतिसेवा गुरौ वासो गृहार्थोँऽग्निपरिक्रिया || (मनुस्मृति २/६७ )
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