Tuesday, June 14, 2022

https://astronorway.blogतन्त्रं वै वेदसम्मतम्

गुरु-शिष्य पदे स्थित्वा स्वयमेव भगवान् शिवः ।
प्रश्नोत्तर परैः वाक्यैः तन्त्रम् समवातारयत् ॥

'कुमारी-तन्त्र'https://astronorway

सम्पूर्ण मानव जाति के लौकिक एवं पारलौकिक कल्याण के लिये सदार्द्रचित्त भगवान् शिव ने स्वयं ही गुरु एवं शिष्य पद पर प्रतिष्ठित होकर जिस शास्त्र का उपदेश दिया है, वह ही तंत्र शास्त्र नाम से परिचित है । आर्ष वाङ्मय में 'तन्त्र' शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों में हुआ है। एक शास्त्र के रूप में यह समादृत और प्रतिष्ठित है, परन्तु विडम्बना यह है कि जन-सामान्य ही नहीं अच्छे-अच्छे पढ़े-लिखें लोग भी 'तन्त्र' के तत्त्व-रूप, उसके लक्ष्य एवं उद्देश्य तथा उसके सिद्धान्तात्मक एवं क्रियात्मक पक्ष की वास्तविकता से वाकिफ नहीं है। उनकी दृष्टि में तन्त्र शास्त्र वशीकरण आदि षट्कर्मो विशेषकर अभिचार-कर्मों एवं प्रयोगों की शिक्षा देने वाला शास्त्र है। वे भारत की तन्त्र-विद्या को अफ्रीकी और यूरोपीय देशों के ब्लैक मैजिक (Black Magic) का पर्याय समझते हैं। तन्त्र शास्त्र के प्रति उनकी यह अवधारणा सर्वथा भ्रान्त और सतही है।https://astronorway

आगम-निगम-यामल आदि भी इसी तन्त्र शास्त्र के ही भेद हैं। विस्तार अर्थक 'तन्' धातु के साथ 'सर्व धातुभ्योः ष्ट्न्' इस सूत्र से 'ष्ट्रन' प्रत्यय लगाने पर 'तन्त्र' शब्द निष्पन्न होता है।

'तन्यते विस्तार्यते ज्ञानमनेन' इति तन्त्रम् । https://astronorway

इसका अर्थ है ज्ञान का विस्तार करने वाला शास्त्र। तन्त्र की इस परिभाषा को और अधिक स्पष्ट करते हुए 'कामिकागम' में कहा गया है कि यह शास्त्र तत्त्व और मन्त्र सहित विपुल अर्थों का विस्तार अर्थात् विस्तृत व्याख्या करके साधक की रक्षा करता है।

तनोति विपुलानर्थान् तत्त्व मन्त्र समन्वितान् ।
त्राणं च कुरुते यस्मात् तन्त्रमित्यभिधीयते ॥

यह तन्त्र-शास्त्र किसी मनुष्य की रचना नहीं अपितु भगवान् शिव का कृपा प्रसाद हैं जो उन्होंने वेदों का अर्थ ग्रहण करने में असमर्थ और/अथवा वेदों का अध्ययन करने के अधिकार से वञ्चित जनों की मुक्ति के लिये प्रदान किया है-

निखिल वेदार्थानभिज्ञानां, तत्र नाधिकारिणाञ्च
मुक्त्युपायं निखिलवेदसाराम्नाय विद्यां प्रणिनाय ॥

उनका यह कृपा-प्रसाद रूप उपदेश भगवान् वासुदेव के द्वारा अनुमोदित भी है, जैसा कि उसके एक अपर नाम 'आगम' की परिभाषा से स्पष्ट है---https://astronorway

आगतं शिव- वक्त्रेभ्योः गतं च गिरिजामुखे ।
मतं श्री वासुदेवस्य तस्मादागम उच्यते ॥

'आगतं गतं मतं' इन तीनों पदों के आद्य वर्णों के संयोजन से 'आगम' शब्द बना है। 'रुद्रयामल' में दी गई उक्त परिभाषा स्पष्ट भी है और सर्वमान्य भी । 'बाराही तन्त्र' में 'आगम' के सात लक्षण बताये गये हैं- (१) सृष्टि, (२) प्रलय, (३) देवार्चन-विधि, (४) मन्त्र-साधन, (५) पुरश्चरण-विधान, (६) षट्कर्म साधन एवं (७) चतुर्विध-ध्यान योग का जिसमें निरूपण किया गया है, वह आगम है।https://astronorway

'निर्गतं गतं और मतम्' इन तीन पदों के आद्य-वर्णों के संयोजन से 'निगम' शब्द बना है। यह भी ‘तन्त्र' का भाग है। गुरु पद पर प्रतिष्ठित होकर भगवती ने शिवजी को जो उपदेश दिया, वह 'निगम' है

निर्गतो गिरिजावक्त्रात् गतश्च गिरीश श्रुतम् ।
मतश्च वासुदेवस्य, निगमः परिकथ्यते ॥https://astronorway

'वाराही तत्त्र' के अनुसार जिसमें (१) सृष्टि. (२) ज्योतिष, (३) संस्थान, (४) नित्य-कर्म उपदेश, (४) क्रम, (५) सूत्र. (६) वर्ण-भेद, (७) जाति-भेद और (८) युगधर्म ये आठ विषय प्रतिपादित हो, वह 'यामल' है।

आगम, निगम और यामल के इन तत्त्वों अथवा विषयों का समाहार करते हुए 'विश्वसार तन्त्र' में 'तन्त्र' का जो लक्षण बताया गया है, उसके अनुसार इस शास्त्र में समाहित विषयों की संख्या ३४ है। इसमें उपासना-काण्ड, औषषि कल्प, ग्रह-नक्षत्र संस्थान, रसायन शास्त्र, रसायन-सिद्धि, स्त्री-पुरुष लक्षण, राजधर्म-दानधर्म-युगधर्म, व्यवहार नीति आदि जैसे लौकिक विषय भी शामिल है। तन्त्र-शास्त्र की इस बहु-आयामी व्यापकता के कारण 'मत्स्य-पूक्त' में इसे सर्वश्रेष्ठ शास्त्र कहा गया हैhttps://astronorway

तथा समस्त शास्त्राणां तन्त्रशास्त्रमनुत्तमम् ।
सर्व कामप्रदं पुण्यं तन्त्रं वै वेदसम्मतम् ॥

यद्यपि 'मत्स्य सूक्त' में तन्त्र को वेद-सम्मत कहा गया है, तथापि ये आक्षेप लगाये जाते हैं कि तन्त्र-शास्त्र 'अवैदिक' है, वेद-वाह्य है और यह कि इसकी उत्पत्ति बुद्धोत्तर काल में हुई।

 क्रमशhttps://astronorway

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