Thursday, February 29, 2024

स्वास्तिक शब्द का हिंदी अर्थ :~~~

संस्कृत में यह शब्द सु+अस+क से बना है। इसमें सु- का अर्थ है शुभ, अस- का अर्थ है अस्तित्व और क- से तात्पर्य है कर्ता। इस प्रकार स्वास्तिक शब्द का अर्थ हुआ शुभ के अस्तित्व को स्थापित करने वाला। भारत में इसे सौभाग्य का प्रतीक कहा जाता है।

सिंदूर में क्या मिलाकर स्वास्तिक बनाना चाहिए?
इन दिशाओं में देवी देवताओं का वास होता है। अतः उत्तर और पूर्व दिशा में स्वास्तिक बनाना उत्तम माना जाता है। इससे देवी देवता भी प्रसन्न होते हैं। स्वास्तिक का निशान हमेशा हल्दी या सिंदूर से बनाए ।

स्वास्तिक कितने प्रकार के होते हैं? 
मान्यता के अनुसार लाल और पीले रंग के स्वास्तिक चिन्ह को श्रेष्ठ और उत्तम फल प्रदान करने वाला माना गया है. स्वास्तिक में चार रेखाएं होती हैं.

 स्वास्तिक से क्या लाभ होता है?

स्वास्तिक के चिह्न को घर के लिए बहुत शुभ माना जाता है और ऐसा माना जाता है कि किसी भी शुभ काम में स्वास्तिक बनाना शुभता का प्रतीक होता है। पूजा -पाठ से लेकर नए घर में प्रवेश करने तक में स्वास्तिक बनाने से उस काम में सफलता मिलती है और ये समृद्धि को आकर्षित करता है।

मंगल चिह्न : शुभ है स्वास्तिक

स्वास्तिक मन्त्र

स्वस्तिक मंत्र शुभ और शांति के लिए प्रयुक्त होता है। ऐसा माना जाता है कि इससे हृदय और मन मिल जाते हैं। मंत्रोच्चार करते हुए दर्भ से जल के छींटे डाले जाते थे तथा यह माना जाता था कि यह जल पारस्परिक क्रोध और वैमनस्य को शांत कर रहा है। गृहनिर्माण के समय स्वस्तिक मंत्र बोला जाता है। मकान की नींव में घी और दुग्ध छिड़का जाता था। ऐसा विश्वास है कि इससे गृहस्वामी को दुधारु गाएँ प्राप्त हेती हैं एवं गृहपत्नी वीर पुत्र उत्पन्न करती है। खेत में बीज डालते समय मंत्र बोला जाता था कि विद्युत् इस अन्न को क्षति न पहुँचाए, अन्न की विपुल उन्नति हो और फसल को कोई कीड़ा न लगे। पशुओं की समृद्धि के लिए भी स्वस्तिक मंत्र का प्रयोग होता था जिससे उनमें कोई रोग नहीं फैलता था। गायों को खूब संतानें होती थीं।
यात्रा के आरंभ में स्वस्तिक मंत्र बोला जाता था। इससे यात्रा सफल और सुरक्षित होती थी। मार्ग में हिंसक पशु या चोर और डाकू नहीं मिलते थे। व्यापार में लाभ होता था, अच्छे मौसम के लिए भी यह मंत्र जपा जाता था जिससे दिन और रात्रि सुखद हों, स्वास्थ्य लाभ हो तथा खेती को कोई हानि न हो।
पुत्रजन्म पर स्वस्तिक मंत्र बहुत आवश्यक माने जाते थे। इससे बच्चा स्वस्थ रहता था, उसकी आयु बढ़ती थी और उसमें शुभ गुणों का समावेश होता था। इसके अलावा भूत, पिशाच तथा रोग उसके पास नहीं आ सकते थे। षोडश संस्कारों में भी मंत्र का अंश कम नहीं है और यह सब स्वस्तिक मंत्र हैं जो शरीररक्षा के लिए तथा सुखप्राप्ति एवं आयुवृद्धि के लिए प्रयुक्त होते हैं।

मंगल चिह्न : शुभ है स्वास्तिक

भारतीय संस्कृति और धर्म में स्वास्तिकको शुभ माना जाता है। आश्चर्य की बात यह है कि न केवल हिंदू धर्म, बल्कि कुछ दूसरे धर्मावलंबी भी बडी श्रद्धा और भक्ति भाव से इसे अपने भवनों, दुकानों और प्रतिष्ठानों में लगाते हैं। यहां तक कि विदेश में भी विभिन्न जाति और धर्म को मानने वाले लोग उत्सव के अवसर पर इसे मंगल चिह्न के रूप में बनाते हैं।

मंगलवार को धारण करें महिलाएं -
महिलाएं अपने आभूषणों मसलन हार, कंगन और कुंडलों आदि में इसका प्रयोग करती हैं। पुराण में कहा गया है जो स्त्रियां इस मंगल चिह्न वाले गहने को मंगलवार के दिन धारण करती हैं, उनकी कामनाएं श्री ब्रह्मा जी अवश्य पूरी करते हैं। बाणभट्टके एक ग्रंथ कादंबरी में भी गोबर से स्वास्तिकबनाने का उल्लेख है।

इसके अलावा, हडप्पा व मोहनजोदडो की खुदाई से निकले सिक्कों पर भी स्वास्तिक के मंगल चिह्न बने हुए हैं। चारो पुरुषार्थो को दर्शाता है स्वास्तिकका चिह्न दो तरह से बनाया जाता है। एक सीधा और दूसरा उल्टा। ऐसी मान्यता है कि इसकी चार भुजाएं चार पुरुषार्थो को दर्शाती हैं। ऊपर बाईभुजा धर्म की प्रतीक है और दाहिनी ओर अर्थ, यानी संपत्ति की है।

नीचे बाई ओर काम, संपत्ति तथा दाहिनी ओर की भुजा मोक्ष दर्शाती है। यह इस बात को दर्शाता है कि धर्म की प्रतिष्ठा से ही अर्थ, काम, और मोक्ष की भी प्रतिष्ठा होती है। कहने का मतलब है कि हमारे जीवन में मंगल तभी आ सकता है, जब हम धर्म का पालन करेंगे। सच तो यह है कि संपूर्ण विश्व का कल्याण धर्म की स्थापना से ही हो सकता है। स्वास्तिकका निर्माण अलग-अलग धातुओं और तत्वों से मिलकर होता है। गोबर और मिट्टी से बना स्वास्तिक मंगल कार्यो में बनाना चाहिए। खासकर विवाह, मुंडन, संतान पैदा होने और गोबर्धनपूजा के दिन।
पूजा की विधि-
हिंदू धर्म में स्वास्तिककी पूजा की विधि भी बताई गई है। अमूमन मंगल और वृहस्पतिवार को इसकी पूजा करनी चाहिए। सूरज निकलने से पहले नहा धोकर परिवार सहित स्वास्तिककी विधिपूर्वक पूजा करना फलदाई माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि चावल, लाल डोरा, फूल, पान और सुपारी के साथ पूजन करने से न केवल परिवार की सारी मनोकामनाएंपूरी होती हैं, बल्कि दुखों से भी मुक्ति मिलती है।

शास्त्र के अनुसार अच्छी सेहत, धन और आज्ञाकारी संतान के लिए घर के मुखिया को न केवल स्वास्तिक धारण करना चाहिए, बल्कि उनके मंत्रों का जाप भी करना चाहिए। पूजा के मंत्र वेदों में विश्व कल्याण के लिए हजारों मंत्रों की व्याख्या की गई है। इनमें स्वास्तिक की पूजा करने के लिए भी मंत्र बताए गए हैं। इन मंत्रों का उच्चारण संपूर्ण विश्व के लिए कल्याणकारी माना गया है। इसमें सबसे पहले ज्ञान स्वरूप परमात्मा की स्तुति की गई है। इसमें कहा गया है, हे परमात्मा आप हमारे पिता हैं और मैं आपका पुत्र हूं। जिस तरह से पिता अपने पुत्र की हर समय भलाई के बारे में सोचता रहता है, उसी तरह आप भी हमारी भलाई में लगे रहो।

हर तरह के उत्सवों, यज्ञों आदि के अवसर पर इसके गायन की परंपरा है। प्राचीनकाल से यज्ञ की हवन-वेदी के चारों ओर स्वास्तिक का निर्माण किया जाता रहा है और विधिपूर्वक मंत्रों का उच्चारण किया जाता है। कहते हैं कि इन मंत्रों का उच्चारण करने वाले व्यक्ति में न केवल संकल्प शक्ति दृढ होती है, बल्कि वह साहसी भी होता है। यह प्रतीक और जाप हमें पे्ररणा देते हैं कि हमें केवल अपने लिए नहीं, बल्कि सबके कल्याण के लिए सोचना और कार्य करना चाहिए।

स्वास्तिक की गरिमा, विदेशों में भी

स्वास्तिक का भारतीय संस्कृति में बडा महत्व है। विघ्नहर्ता गणेश जी की उपासना धन, वैभव और ऎश्वर्य की देवी लक्ष्मी के साथ ही शुभ लाभ, और स्वास्तिक की पूजा का भी विधान है। विभिन्न प्रकार के सुख और समृद्धि का प्रतीक स्वास्तिक घर, द्वार, आंगन आदि में प्रत्येक शुभ एवं मांगलिक कार्य के आरम्भ बनाया जाता है। यह मंगल भावना और सुख-सौभाग्य का द्योतक है। इसे सूर्य और विष्णु का प्रतीक माना जाता है। ऋग्वेद में स्वास्तिक के देवता संतृन्त का उल्लेख है। सविन्तृ सूत्र के अनुसार इस देवता को मनोवांछित फलदाता, सम्पूर्ण जगत का कल्याण करने और देवताओं को अमरत्व प्रदान करने वाला कहा गया है। " सिद्धान्तसार " के अनुसार इसे ब्रम्हाण्ड का प्रतीक माना जाता है। इसके मघ्य भाग को विष्णु की नाभि, चारों रेखाओं को ब्रम्हाजी के चार मुख, चार हाथ और चार वेदों के रूप में निरूपित करने की भावना है। देवताओं के चारों ओर घूमने वाले आभामंडल का चिह्न ही स्वास्तिक के आकार का होने के कारण इसे शास्त्रों में शुभ माना जाता है। तर्क से भी इसे सिद्ध किया जा सकता है।

श्रुति, अनुभूति तथा युक्ति इन तीनों का यह एक-सा प्रतिपादन प्रयागराज में होने वाले संगम के समान है। दिशाएं मुख्यत: चार हैं, खडी और सीधी रेखा खींचकर, जो धन चिह्न (+) जैसा आकार बनता है। यह आकार चारों दिशाओं का द्योतक है, ऎसी मान्यता सर्वत्र है। स्वस्ति का अर्थ है—क्षेम, मंगल अर्थात् शुभता और क अर्थात कारक या करने वाला। इसलिए देवताओं के तेज के रूप में शुभत्व देने वाला स्वास्तिक है। स्वास्तिक को भारत में ही नहीं, अपितु विश्व के कई अन्य देशों में विभिन्न स्वरूपों में मान्यता प्राप्त है।

जर्मनी, यूनान, फ्रांस, रोम, मिस्त्र, ब्रिटेन, अमरीका, सिसली, स्पेन, सीरिया, तिब्बत, चीन, साइप्रस और जापान आदि देशों में भी स्वास्तिक का प्रचलन है। स्वास्तिक की रेखाओं को कुछ विद्वान अग्नि उत्पन्न करने वाली, अश्वत्थ अथवा पीपल की दो लकडियां मानते हैं। प्राचीन मिस्त्र के लोग स्वास्तिक को निर्विवाद रूप में काष्ठ दण्डों का प्रतीक मानते हैं। यज्ञ में अग्नि मंथन के कारण इसे प्रकाश का भी प्रतीक माना जाता है। अधिकांश लोगों की मान्यता है कि स्वास्तिक सूर्य का प्रतीक है। जैन धर्मावलम्बी अक्षत पूजा के समय स्वास्तिक चिह्न बनाकर तीन बिन्दु बनाते हैं। पारसी इसे चतुर्दिक दिशाओं और चारों समय की प्रार्थना का प्रतीक मानते हैं। व्यापारी वर्ग इसे शुभ-लाभ का प्रतीक मानते हैं। बहीखातों में ऊपर की ओर श्री लिखा जाता है। इसके नीचे स्वास्तिक बनाया जाता है।

ऎतिहासिक साक्ष्यों में स्वास्तिक का महत्व भरा पडा है। मोहनजोदडो, हडप्पा, संस्कृति, अशोक के शिलालेखों, रामायण, हरवंश पुराण, महाभारत आदि में इसका अनेक बार उल्लेख मिलता है। दूसरे देशों में स्वास्तिक का प्रचार महात्मा बुद्ध की चरण पूजा से बढा है। तिब्बती इसे अपने शरीर पर गुदवाते हैं और चीन में इसे दीर्घायु और कल्याण का प्रतीक माना जाता है। विभिन्न देशों के रीति-रिवाज के अनुसार पूजा पद्धति में परिवर्तन होता रहता है। सुख, समृद्धि और रक्षित जीवन के लिए ही स्वास्तिक पूजा का विधान है। यह प्रथा हजारों वर्षो पूर्व से चली आ रही है।

स्वास्तिक दर‍असल समृद्धि का सूचक है। संस्कृत में इस शब्द का अर्थ ही होता है समृद्धि या अक्षय जीवन ऊर्जा। स्वास्तिक हज़ारों साल से हिन्दू और बौद्ध परम्परा में इसी प्रतीक के रूप में चला आ रहा है। जर्मनी में नाज़ियों ने स्वास्तिक को पहले अपने पार्टी-चिन्ह के रूप में अपनाया था और बाद में उसे जर्मनी का राजकीय-चिन्ह बना दिया था। तीन सहस्त्राब्दी ईसा पूर्व की हडप्पा-सभ्यता के स्मारकों की खुदाई में भी बर्तनों और दीवारों पर स्वास्तिक बना हुआ मिला था। इसलिए दुनिया में कोई भी इसे मानवविरोधी या संस्कृतिविरोधी प्रतीक नहीं मानता है।

समृद्धि के प्रतीक के रूप में दुनिया के बहुत से देशों की जातियाँ स्वास्तिक का उपयोग करती रही हैं। ख़ुद अमरीका के बहुत से मूल निवासी भी इसे अपना धार्मिक प्रतीक मानते हैं। यही नहीं बीसवीं शताब्दी के शुरू में, जब यह बात सामने आई थी कि इंडोयूरोपियन जातियाँ एक-दूसरे की सहोदर जातियाँ हैं और आर्य ही उनके पूर्वज थे तो पश्चिमी देशों में स्वास्तिक बहुत लोकप्रिय हो गया था। यह अलग बात है कि जर्मन नाज़ियों ने सबसे पहले उसका व्यापक तौर पर इस्तेमाल करना शुरू किया। कनाडा में तो स्वास्तिक नाम का एक शहर भी है।

लेकिन जैसाकि कभी-कभी होता है, हज़ारों वर्षों की इस परम्परा का बीसवीं शताब्दी के एक दशक ने ही पूरी तरह से मटियामेट कर दिया। इसलिए यहूदियों की नाराज़गी को भी समझा जा सकता है।

बरीस वलख़ोन्स्की ने कहा:

ब्रुकलीन न्यूयार्क का यहूदी बहुल इलाका है। इस इलाके में प्रायः यहूदी-विरोधी कार्रवाइयाँ भी होती रहती हैं। दीवारों पर प्रायः यहूदी विरोधी नारे लिख दिए जाते हैं या स्वास्तिक का चिन्ह बना दिया जाता है। इसलिए शो-केस से स्वास्तिक को हटवाने का काम एकदम उचित था।

यह अलग बात है कि जिस अधिकारी ने यानी स्कॉट स्ट्रिंगर ने यह काम किया उन्होंने सख़्ती से काम लिया और ज़रा भी विनम्रता नहीं दिखाई। इसका कारण शायद उनका यह अज्ञान रहा कि हिन्दू और बौद्ध परम्परा में यही स्वास्तिक एक धार्मिक प्रतीक भी है, तभी तो उन्होंने उसे सभ्यता का अपमान बता दिया।

नाज़ी सैनिकों की वर्दियों पर स्वास्तिक का चिन्ह बने होने के साथ-साथ यह भी लिखा रहता था- ‘Gott mit uns’ यानी ख़ुदा हमारे साथ है। अब न्यूयार्क के अफ़सर इस आधार पर सारी दुनिया में मन्दिर और मस्ज़िद या गिरजे थोड़े ही बन्द करवाएँगे या वे सारे धार्मिक साहित्य पर प्रतिबन्ध थोड़े ही लगाएँगे।

शायद इंटरनेट पर एक ब्लॉगर ने इस बारे में जो लिखा है, वह बात ही एकदम ठीक है। उसका कहना है कि हमें सहिष्णुता से काम लेना चाहिए। यदि किसी को किसी चीज़ से अपमान महसूस होता है तो उस चीज़ से बचने की ज़रूरत है। दुनिया में पहले ही मुसीबतों की कमी नहीं है।
ज्योतिष को अंधविश्वास का प्रतीक मानने वाली एक महिला राजनेता का रसोई घर तो पहले से ही द.-प .(S .W .)में था जो कलह की जड़ था ही;अब उसी क्षेत्र में नल -कूप भी लगवा लिया है.परिणामस्वरूप पहली छमाही क़े भीतर ही ज्येष्ठ पुत्र को आपरेशन का शिकार होना पड़ गया.

चित्र के बारे में
१ .चित्रा-२७ नक्षत्रों में मध्यवर्ती तारा है जिसका स्वामी इंद्र है ,वही इस मन्त्र में प्रथम निर्दिष्ट है.
२ .रेवती -चित्रा क़े ठीक अर्ध समानांतर १८० डिग्री पर स्थित है जिसका देवता पूषा है.नक्षत्र विभाग में अंतिम नक्षत्र होने क़े कारण इसे मन्त्र में विश्ववेदाः (सर्वज्ञान युक्त )कहा गया है.
३ .श्रवण -मध्य से प्रायः चतुर्थांश ९० डिग्री की दूरी पर तीन ताराओं से युक्त है.इसे इस मन्त्र में तार्क्ष्य (गरुण )है.
४ .पुष्य -इसके अर्धांतर पर तथा रेवती से चतुर्थांश ९० डिग्री की दूरी पर पुष्य नक्षत्र है जिसका स्वामी बृहस्पति है जो मन्त्र क़े पाद में निर्दिष्ट हुआ है.

इस प्रकार हम देखते हैं कि धार्मिक अनुष्ठानों में स्वास्तिक निर्माण व स्वस्ति मन्त्र का वाचन पूर्णतयः ज्योतिष -सम्मत है.धर्म का अर्थ ही धारण करना है अर्थात ज्ञान को धारण करने वाली प्रक्रिया ही धर्म है.इस छोटे से स्वस्ति -चिन्ह और छोटे से मन्त्र द्वारा सम्पूर्ण खगोल का खाका खींच दिया जाता है. अब जो लोग इन्हें अंधविश्वास कह कर इनका उपहास उड़ाते हैं वस्तुतः वे स्वंय ही अन्धविश्वासी लोग ही हैं जो ज्ञान (Knowledge ) को धारण नहीं करना चाहते.अविवेकी मनुष्य इस संसार में आकर स्वम्यवाद अर्थात अहंकार से ग्रस्त हो जाते हैं.अपने पूर्व -संचित संस्कारों अर्थात प्रारब्ध में मिले कर्मों क़े फलस्वरूप जो प्रगति प्राप्त कर लेते हैं उसे भाग्य का फल मान कर भाग्यवादी बन जाते हैं और अपने भाग्य क़े अहंकार से ग्रसित हो कर अंधविश्वास पाल लेते हैं.उन्हें यह अंधविश्वास हो जाता है कि वह जो कुछ हैं अपने भाग्य क़े बलबूते हैं और उन्हें अब किसी ज्ञान को धारण करने की आवश्यकता नहीं है.जबकि यह संसार एक पाठशाला है और यहाँ निरंतर ज्ञान की शिक्षा चलती ही रहती है.जो विपत्ति का सामना करके आगे बढ़ जाते हैं ,वे एक न एक दिन सफलता का वरन कर ही लेते हैं.जो अहंकार से ग्रसित होकर ज्ञान को ठुकरा देते हैं,अन्धविश्वासी रह जाते हैं.ज्योतिष वह विज्ञान है जो मनुष्य क़े अंधविश्वास रूपी अन्धकार का हरण करके ज्ञान का प्रकाश करता है.

Sunday, February 25, 2024

वैदिक ज्योतिष में षोडश वर्ग कुंडली महत्त्व -

     
लग्नचक्र या राशीचक्र देखकर ही सही फलादेश संभव होता तो... हमारे आदि ऋषी-मुनि कभी भी "षोडश वर्गीय कुंडली" अथवा "प्राण-दशा" जैसी अति शूक्ष्म एवं जटिल गणनाऔं को खोजने पर अपना बहुमूल्य समय कदापि व्यय नहीं करते ।।

आज जानते हैं..षोडश वर्गीय कुंंडली क्या होती है.

षोडश अर्थात 16 वर्ग का फलित ज्योतिष में विशेष महत्व है, क्यों की कुंडली का सूक्ष्म अध्ययन करने में उनकी ही विशेष भूमिका होती है। आईये सबसे पहले जानें शोडश वर्ग क्या है......

तो पहले गणितीय समझ लीजिए :-

कुंडली के सभी 12 भाव 360 अंश परिधि के होते हैं, यानि आकाश मंडल के 360 अंश के 12 भाग ही कुंडली के 12 भाव हैं। अत: कुंडली का कोई भी एक भाव 30 अंश परिधि का माना जाता है। इन 12 भावों में प्रथम भाव "लग्न" कहलाता है। इस "लग्न" भाव के 30 अंशों के विस्त्रत क्षेत्र को यदि 2 से भाग किया जाये तो प्रत्येक भाग 15-15 अंश का होगा इस डिवीजन की लग्न भाग को होरा लग्न कहते हैं, इसी प्रकार यदि इस 30 अंश के 3 भाग किये जायें तो प्रत्येक भाग 10 अंश का होगा, इसे द्रेष्कांण और इस के लग्न भाग को द्रेष्कांण लग्न कहते हैं। चार भाग किसे जायेंगे तो इसके लग्न को चतुर्थांश कहेंगे। इसी प्रकार 7 भाग करने पर ‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌सप्तमांश लग्न, 9 भाग करने पर नवमांश लग्न, 10 भाग करने पर दशमांश लग्न, 12 भाग करने पर द्वादशांश लग्न, तथा 16, 20, 24, 30 और 60 भाग करने पर क्रमशः षोडशांश, विंशांश, चतुर्विंशांश तथा त्रिशांश लग्न आदि कहते हैं।

इस तरह "वैदिक ज्योतिष" में 16 कुंडली बनती है जिसे "षोड़श वर्ग" कहते हैं और ये षोडश चक्र ही जीवन के बिभिन्न पहलुओं के सटीकतम फलादेश करने में सहायक होते हैं।

या ऐसे भी कह सकते हैं कि इन वर्गों के अध्ययन के बिना जन्म कुंडली का विश्लेषण सटीक होता ही नहीं है।

  क्योंकि लग्न कुंडली या राशि कुंडली से मात्र जातक के शरीर, उसकी शूक्ष्म संरचना एवं प्रवृत्ति के बारे में ही जानकारी मिलती है।

षोडश वर्ग कुंडली का प्रत्येक चक्र जातक के जीवन के एक विशिष्ट कारकत्व या घटना के अध्ययन में सहायक होता है। 

जातक के जीवन के जिस पहलू के बारे में हम जानना चाहते हैं, उस पहलू के वर्ग का जब तक हम अध्ययन न करें तो, विश्लेषण अधूरा ही रहता है।

जैसे :- यदि जातक की संपत्ति, संपन्नता या प्रतिष्ठा आदि के विषय में जानना हो, तो जरूरी है कि होरा वर्ग का अध्ययन किया जाए। इसी प्रकार व्यवसाय के बारे में पूर्ण जानकारी के लिए दशमांश चक्र की सहायता ली जाती है। जातक के जीवन के विभिन्न पहलुओं को जानने के लिए षोड़श चक्र कुंडली में से किसी विशेष चक्र का अध्ययन किए बिना फलित गणना में चूक हो सकती है।

षोडश वर्गीय कुंडली में सोलह चक्र बनते हैं, जो जातक के जीवन के विभिन्न पहलुओं की जानकरी देते हैं। वैदिक ज्योतिष- जीवन की किसी भी समस्या का सटीक समय और समाधान खोजने में पूर्ण सक्षम है।
जैसे :-

होरा से संपत्ति , समृद्धि एवं मान प्रतिष्ठा।

द्रेष्काण से भाई-बहन व पराक्रम।

चतुर्थांश से भाग्य, चल एवं अचल संपत्ति। 

सप्तांश से संतान एवं उनकी प्रकृति।

नवमांश से वैवाहिक जीवन व जीवन साथी।

दशमांश से व्यवसाय व जीवन की उपलब्धियां।

द्वादशांश से माता-पिता।

षोडशांश से सवारी एवं सामान्य खुशियां।

विंशांश से पूजा-उपासना और आशीर्वाद।

चतुर्विंशांश से विद्या, शिक्षा, दीक्षा, ज्ञान आदि।

सप्तविंशांश से बल एवं दुर्बलता।

त्रिशांश से दुःख, तकलीफ, दुर्घटना, अनिष्ट।

खवेदांश से शुभ या अशुभ फल।

अक्षवेदांश से जातक का चरित्र।

षष्ट्यांश से जीवन के सामान्य शुभ-अशुभ फल आदि अनेक पहलुओं का सूक्ष्म अध्ययन किया जाता है।

षोडश वर्ग में सोलह वर्ग ही होते हैं, लेकिन इनके अतिरिक्त और चार वर्ग पंचमांश, षष्ट्यांश, अष्टमांश, और एकादशांश भी होते हैं।

पंचमांश से जातक की आध्यात्मिक प्रवृत्ति, पूर्व जन्मो के पुण्य एवं संचित कर्मों की जानकारी प्राप्त होता है।

षष्ट्यांश से जातक के स्वास्थ्य, रोग के प्रति अवरोधक शक्ति, ऋण, झगड़े आदि का विवेचन किया जाता है।

एकादशांश जातक के बिना प्रयास के धन लाभ को दर्शाता है। यह वर्ग पैतृक संपत्ति, शेयर, सट्टे आदि के द्वारा स्थायी धन की प्राप्ति की जानकारी देता है।

अष्टमांश से जातक की आयु एवं आयुर्दाय के विषय में जानकारी मिलती है।

षोडश वर्ग में सभी वर्ग महत्वपूर्ण हैं, लेकिन आज के युग में जातक धन, पराक्रम, भाई-बहनों से विवाद, रोग, संतान वैवाहिक जीवन, साझेदारी, व्यवसाय, माता-पिता और जीवन में आने वाले संकटों के बारे में अधिक प्रश्न करता है।
इन प्रश्नों के विश्लेषण के लिए सात वर्ग होरा, द्रेष्काण, सप्तांश, नवांश, दशमांश, द्वादशांश और त्रिशांश ही पर्याप्त हैं।

।। आपका आज का दिन शुभ मंगलमय हो ।।

               🙏 धन्यवाद 🙏

Saturday, February 24, 2024

10 महाविद्या: हर संकट से तुरंत उबारती हैं ये महाविद्याएं, जानिए उपासना का महत्व और मंंत्र
हमारे शास्त्रों में दस महाविद्याओं का उल्लेख किया गया है। तंत्र क्रिया में विद्या में इन 10 महाविद्याओं का विशेष महत्व होता है। इन 10 विद्याओं की साधना और उपासना से विशेष फल की प्राप्ति होती है। ये महाविद्याओं को दशावतार माना गया है। 10 महाविद्याएं मां दुर्गा के ही रूप है जिसे सिद्धि देने वाली मानी जाती है। मां दुर्गा के इन दस महाविद्याओं की साधना करने वाला व्यक्ति सभी भौतिक सुखों को प्राप्त कर बंधन से भी मुक्त हो जाता है। मां को प्रसन्न करने के लिए तांत्रिक साधकों द्वारा यह पूजा की जाती है। ये दस महाविद्याएं इस प्रकार है- काली, तारा, छिन्नमस्ता, षोडशी, भुवनेश्वरी, त्रिपुर भैरवी, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी व कमला। 
1- काली
सभी 10 महाविद्याओं में काली को प्रथम रूप माना जाता है। माता दुर्गा ने राक्षसों का वध करने के लिए माता ने यह रूप धारण किया था। सिद्धि प्राप्त करने के लिए माता के इस रूप की पूजा की जाती है। जिस तरह से भगवान शिव जल्दी प्रसन्न और जल्द रूठने वाले देवता है उसी तरह काली माता भी स्वभाव है। इसलिए जो भी भक्त इनकी साधना कर चाहता है उसे एकनिष्ठ और पवित्र मन का होना चाहिए। देवताऔं और दानवों के बीच हुए युद्ध में मां काली ने ही देवताओं को विजय दिलवाई थी। मुख्य बातें-
- दस महाविद्या में काली प्रथम रूप है।

हमारे शास्त्रों में दस महाविद्याओं का उल्लेख किया गया है। तंत्र क्रिया में विद्या में इन 10 महाविद्याओं का विशेष महत्व होता है। इन 10 विद्याओं की साधना और उपासना से विशेष फल की प्राप्ति होती है। ये महाविद्याओं को दशावतार माना गया है। 10 महाविद्याएं मां दुर्गा के ही रूप है जिसे सिद्धि देने वाली मानी जाती है। मां दुर्गा के इन दस महाविद्याओं की साधना करने वाला व्यक्ति सभी भौतिक सुखों को प्राप्त कर बंधन से भी मुक्त हो जाता है। मां को प्रसन्न करने के लिए तांत्रिक साधकों द्वारा यह पूजा की जाती 

ये दस महाविद्याएं इस प्रकार है- काली, तारा, छिन्नमस्ता, षोडशी, भुवनेश्वरी, त्रिपुर भैरवी, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी व कमला। 
1- काली
सभी 10 महाविद्याओं में काली को प्रथम रूप माना जाता है। माता दुर्गा ने राक्षसों का वध करने के लिए माता ने यह रूप धारण किया था। सिद्धि प्राप्त करने के लिए माता के इस रूप की पूजा की जाती है। जिस तरह से भगवान शिव जल्दी प्रसन्न और जल्द रूठने वाले देवता है उसी तरह काली माता भी स्वभाव है। इसलिए जो भी भक्त इनकी साधना कर चाहता है उसे एकनिष्ठ और पवित्र मन का होना चाहिए। देवताऔं और दानवों के बीच हुए युद्ध में मां काली ने ही देवताओं को विजय दिलवाई थी। कोलकाता, उज्जैन और गुजरात में महाकाली के जाग्रत चमत्कारी मंदिर हैं।
मुख्य बातें-
- दस महाविद्या में काली प्रथम रूप है।
- माता का स्वरूप हाथ में त्रिशूल और तलवार
- पूजा के लिए विशेष दिन शुक्रवार और अमावस्या
- कालिका पुराण में इनका विस्तार से वर्णन किया गया है
- काली को ॐ ह्रीं श्रीं क्रीं परमेश्वरि कालिके स्वाहा के प्रसन्न किया जा सकता है।
- कोलकाता, उज्जैन और गुजरात में महाकाली के जाग्रत चमत्कारी मंदिर हैं।
 
2- तारा
सर्वप्रथम महर्षि वशिष्ठ ने तारा की आराधना की थी। यह तांत्रिकों की मुख्य देवी हैं। देवी के इस रूप की आराधना करने पर आर्थिक उन्नति और मोक्ष की प्राप्ति होती है। पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले में तारापीठ है इसी स्थान पर देवी तारा की उपासना महर्षि वशिष्ठ ने करके तमाम सिद्धियां हासिल की थी। तारा देवी का दूसरा प्रसिद्ध मंदिर हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला में स्थित है।
मुख्य बातें-
- चैत्र मास की नवमी तिथि और शुक्ल पक्ष के दिन तंत्र साधकों के लिए सर्वसिद्धिकारक माना गया है।
- तारा मां को जगृति करने के लिए ऊँ ह्नीं स्त्रीं हुम फट' मंत्र का जाप कर सकते हैं।
- परेशनियों को दूर करने के कारण इन्हें तारने वाली माता तारा कहा जाता हैत्रिपुर सुंदरी
इन्हें ललिता, राज राजेश्वरी और त्रिपुर सुंदरी भी कहते हैं। त्रिपुरा में स्थित त्रिपुर सुंदरी का शक्तिपीठ है। यहां पर माता की चार भुजा और 3 नेत्र हैं। नवरात्रि में रुद्राक्ष की माला से ऐं ह्नीं श्रीं त्रिपुर सुंदरीयै नम: मंत्र का जाप कर सकते हैं।
मुख्य बातें-
- इनकी चार भुजा और तीन नेत्र हैं।
- ऐ ह्नीं श्रीं त्रिपुर सुंदरीयै नम: मंत्र का जाप कर सकते हैं।
 
4- भुवनेश्वरी
पुत्र प्राप्ति के लिए माता भुवनेश्वरी की आराधना फलदायी मानी जाती है। यह शताक्षी और शाकम्भरी नाम से भी जानी जाती है। इस महाविद्या की आराधना से सूर्य के समान तेज ऊर्जा प्राप्ति होती है और जीवन में मान सम्मान मिलता है।

मंत्र- ह्नीं भुवनेश्वरीयै ह्नीं नम:- छिन्नमस्ता
इनका स्वरूप कटा हुआ सिर और बहती हुई रक्त की तीन धाराएं से सुशोभित रहता है। इस महाविद्या की उपासना शांत मन से करने पर शांत स्वरूप और उग्र रूप में उपासना करने पर देवी के उग्र रूप के दर्शन होते है। छिन्नमस्तिके का यह मंदिर झारखंड की राजधानी रांची में स्थिति है। कामाख्या के बाद यह दूसरा सबसे लोकप्रिय शक्तिपीठ है।
मंत्र- 
 'श्रीं ह्नीं ऎं वज्र वैरोचानियै ह्नीं फट स्वाहा
6-भैरवी
भैरवी की उपासना से व्यक्ति सभी बंधनों से मुक्त हो जाता है। इनकी पूजा से व्यापार में लगातार बढ़ोतरी और धन सम्पदा की प्राप्ति होती है। 
मंत्र- ह्नीं भैरवी क्लौं ह्नीं स्वाहा:
7-धूमावती
धूमावती माता को अभाव और संकट को दूर करने वाली माता कहते है। इनका कोई भी स्वामी नहीं है। इनकी साधना से व्यक्ति की पहचान महाप्रतापी और सिद्ध पुरूष के रूप में होती है। ऋग्वेद में इन्हें 'सुतरा' कहा गया है।

मंत्र- ऊँ धूं धूं धूमावती देव्यै स्वाहा:
8- बगलामुखी
बगलामुखी की साधना दुश्मन के भय से मुक्ति और वाक् सिद्धि के लिए की जाती है। जो साधक नवरात्रि में इनकी साधना करता है वह हर क्षेत्र में सफलता प्राप्त करता है। महाभारत के युद्ध में कृष्ण और अर्जुन ने कौरवों पर विजय हासिल करने के लिए माता बगलामुखी की पूजा अर्चना की थी। भारत में मां बगलामुखी के तीन प्रमुख ऐतिहासिक मंदिर माने गए हैं।

मंत्र-
- ऊँ ह्नीं बगुलामुखी देव्यै ह्नीं ओम नम:' 
- 'ह्मीं बगलामुखी सर्व दुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तम्भय जिह्वां कीलम बुद्धिं विनाशय ह्मीं ॐ स्वाहा
 
9- मातंगी
जो भक्त अपने गृहस्थ जीवन को सुखमय और सफल बनाना चाहते हैं उन्हें मां मातंगी की आराधना करना चाहिए। मतंग भगवान शिव का भी एक नाम है। जो भक्त मातंगी महाविद्या की सिद्धि प्राप्त करता है वह अपने खेल, कला और संगीत के कौशल से दुनिया को अपने वश में कर लेता है।

मंत्र- ऊँ ह्नीं ऐ भगवती मतंगेश्वरी श्रीं स्वाहा:
10- कमला
मां कमला की साधना समृद्धि, धन, नारी, पुत्र की प्राप्ति के लिए की जाती है। इनकी साधना से व्यक्ति धनवान और विद्यावान हो जाता है।

मंत्र- हसौ: जगत प्रसुत्तयै स्वाहा:
जन्म कुंडली के अनुसार विवाह की उम्र की गणना मैं पहले पोस्ट किया था परंतु उसमें और प्रमाणिक गणना करने के लिए आज हम हस्तरेखा का भी सहयोग लेंगे ।
👉 हस्तरेखा की जो तस्वीर पोस्ट की गई है उसमें जो हरे ( green )रंग का बॉक्स बना है वह बुध पर्वत पर बना है । हृदय रेखा से लेकर कनिष्ठा उंगली के प्रारंभ होने के स्थान तक का जो स्थान है उसे 50 वर्ष माना जाता है । इन दोनों को दो भाग में विभाजित करने से 25 - 25 वर्ष का योग बनेगा । यदि हृदय रेखा से ऊपर जहां 25 लिखा है उसके ऊपर यदि विवाह रेखा है तो 25 वर्ष के बाद विवाह का योग बनेगा यदि 25 वर्ष के ऊपर के बीच से भाग दिया जाए तो वह लगभग 32 वर्ष के आसपास का उम्र बनेगा इसके अनुसार आप अपने हस्तरेखा में 2 - 3 भाग में विभाजित करके विवाह की उम्र निकाल सकते हैं ।
👉 कई व्यक्तियों की विवाह रेखा के स्थान पर दो तीन रेखाएं बनी रहती है उनमें से जो सबसे साफ स्पष्ट रेखा होगी उसे ही विवाह रेखा माना जाएगा ।
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💢 सामान्य मान्यता के अनुसार विवाह का समय
💥 आधुनिक समय के अनुसार
जल्दी विवाह करवाने वाले ग्रहों के वर्ष  को और विलंब से समझना  चाहिए जो कि सरकारी मान्यता के अनुसार नियम है । यह विवाह का समय पूर्व में लिखे गए ज्योतिष ग्रंथों के अनुसार है । 40 -  50 वर्ष पूर्व बहुत कम उम्र में विवाह होता था परंतु समय के अनुसार परिवर्तन होता रहता है । 
💥आज के समय में दिए गए उम्र से दो-तीन वर्ष बढ़ाकर मानें  । एवं सरकार के नियम के अनुसार 21 वर्ष के बाद ही विवाह का समय मानें । 

♦️बुध सप्तमेश हो तो 16 से 18 वर्ष की आयु में 
♦️ मंगल सप्तमेश हो तो 18 से 20 वर्ष की आयु में 
♦️ शुक्र हो तो 20 से 22 वर्ष की आयु में 
♦️ चंद्रमा हो तो 22 से 24 वर्ष की आयु में 
♦️ गुरु हो तो 24 से 26 वर्ष की आयु में 
♦️ सूर्य हो तो 26 से 28 वर्ष की आयु में 
♦️ शनि हो तो 28 से 30 वर्ष की आयु में 

💢सप्तमेश कम आयु में विवाह करने वाला ग्रह हो परंतु सप्तम भाव पर राहु ,  केतु , शनि जैसे  विलंब से  विवाह करवाने वाले ग्रहों की  दृष्टि या प्रभाव हो तो  30 - 32 वर्ष के बाद विवाह का योग बनता है । 💢

👉  यदि सप्तमेश , शुक्र या गुरु बिल्कुल कमजोर हो एवं सप्तम भाव पर एक से ज्यादा विलंब करवाने वाले ग्रहों का प्रभाव हो तब  विवाह में बहुत ज्यादा विलंब हो जाता है ।
👉 विवाह का समय आने पर शुक्र , गुरु  , सप्तमेश ,  द्वितीयेश या सप्तम भाव में मित्र ग्रह की दृष्टि या विराजमान ग्रह  की अंतर्दशा - प्रत्यंतर दशा में  विवाह का योग बनता है ।
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💥 कुंडलि या हाथ का फोटो कमेंट में ना चिपकाए ।  आप स्वयं देखकर अपने हाथ से मिलान करें अध्ययन करें ।
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Thursday, February 22, 2024

मिथुन लग्न – प्रथम भाव में शनि 

मिथुन राशि शनि देव की मित्र राशि है । अतः शनि की महादशा में भाग्य पूर्ण साथ देता है, प्रोफेशन में उन्नति होती है । छोटे भाई बहन , पत्नी, बिज़नेस पार्टनर से लाभ मिलता है । विवाह के बाद प्रोफेशनल लाइफ और बेहतर होती है । 

मिथुन लग्न – द्वितीय भाव में शनि 

ऐसे जातक को धन , परिवार कुटुंब का भरपूर साथ मिलता है । जातक उत्तम वाणी वाला एवं न्यायप्रिय बात करता है । माता , मकान, वाहन , भूमि का सुख प्राप्तकरता है । रुकावटें दूर होती हैं , बड़े भाई बहनों का साथ मिलता है। 

मिथुन लग्न – तृतीय भाव में शनि 

जातक बहुत परिश्रमी होता है । जातक का भाग्य बहुत परिश्रम के बाद ही उसका साथ देता है ।। छोटी बहन का योग बनता है । पेट खराब , कमजोर याददाश्त , क्षीण संकल्प , संतान को अनेक मुश्किलों का सामना करना पड़ता है । पिता से नहीं बनती , फिजूल खर्च व् विदेश यात्रा होती है । 

मिथुन लग्न – चतुर्थ भाव में शनि 

जातक को भूमि , मकान , वाहन का सुख मिलता है । काम काज शनि देव से जुड़ा हो तो बेहतर स्थिति में होता है । प्रतियोगिता में विजयश्री हाथ आती है , कोर्टकेस में जीत होती है । 

मिथुन लग्न – पंचम भाव में शनि 

पुत्री का योग बनता है । अचानक लाभ की स्थिति बनती है । जातक की याददाश्त बहुत बेहतर होती है । प्रेम विवाह का योग बनता है । पत्नी , पार्टनर्स से संबंधमधुर रहते हैं । बड़े भाइयों बहनो से संबंध मधुर रहते हैं, मनचाहे काम के पूरा होने का योग बनता है । धन , कुटुंब का सहयोग रहता है । 

मिथुन लग्न – षष्टम भाव में शनि 

यदि लग्नेश बुद्ध बलवान हों और शुभ स्थित भी हों तो विपरीत राजयोग बनता है और अधिकतर परिणाम शुभ ही प्राप्त होते हैं । यदि बुद्ध कमजोर हों या शुभ स्थित नहों तो बहुत मेहनत करने पर भी परिणाम नकारात्मक रहते हैं । लोन वापसी का रास्ता नहीं दिखता , फिजूल व्यय , हर काम में रुकावट आती है । 

मिथुन लग्न – सप्तम भाव में शनि 

भार्या बुद्धिमान होती है व् साझेदारों से लाभ मिलता है । जातक पितृ भक्त, न्यायप्रिय होता है , भाग्य साथ देता है , मकान, वाहन, सम्पत्ति का सुख मिलता है औरमाता का आशीर्वाद हमेशा सर पर बना रहता है । 

मिथुन लग्न – अष्टम भाव में शनि 

जातक के हर काम में रुकावट आती है , टेंशन बनी रहती है । परिवार साथ नहीं देता है । काम काज ठप हो जाता है । संतान को/से कष्ट मिलता है । याददाश्त कमजोर हो जाती है । विपरीत राजयोग की स्थिति में परिणाम शुभ जान्ने चाहियें । 

मिथुन लग्न – नवम भाव में शनि 

स्वग्रही होने से ऐसा जातक पितृ भक्त , भाग्यवान होता है । जातक बहुत परिश्रमी होता है , प्रतियोगिता में विजयी होता है । विदेश यात्राएं करने वाला होता है । 

मिथुन लग्न – दशम भाव में शनि 

जातक का काम काज बहुत अच्छा चलता है । विदेश सेटलमेंट का योग बनता है । भूमि, मकान, वाहन का सुख मिलता है । सातवें भाव सम्बन्धी सभी लाभ प्राप्तहोते हैं ।

मिथुन लग्न – एकादश भाव में शनि 

नीच राशि मेष में आने से जातक न्याय का साथ देने वाला नहीं होता है । यहां स्थित होने पर बड़े भाई बहनो से क्लेश बना रहता है । पुत्री प्राप्ति का योग बनता है, यादाश्त बहुत कमजोर होती है, संकल्प शक्ति मजबूत नहीं होती है। रुकावटों दूर होने का नाम नहीं लेती हैं । 

मिथुन लग्न – द्वादश भाव में शनि 

विदेश सेटलमेंट का योग बनता है, काम काज ठप हो जाता है , कोर्ट केस चलता है, फिजूल खर्च होते है । परिवार का साथ नहीं मिलता, वाणी बहुत खराब होतीहै। जातक नास्तिक होता है , पिता से रुष्ट रहता है । 

जानिए भगवान विष्णु के श्री हरि और नरायण नामों का रहस्य...

संसार के पालनहार भगवान विष्णु की विशेष पूजा गुरुवार को की जाती है। इस दिन भक्त पूरे विधि – विधान के साथ भगवान विष्णु की पूजा करते हैं। हिंदू धर्म शास्त्र के अनुसार गुरुवार को भगवान विष्णु की विधिवत पूजा करने से जीवन के सभी संकटों से छुटकारा मिलता है। साथ ही वैवाहिक जीवन में खुशहाली आती है।

पुराणों में भगवान विष्णु के दो रूप बताए गए हैं। एक रूप में तो उन्हें बहुत शांत, प्रसन्न और कोमल बताया गया है और दूसरे रूप में प्रभु को बहुत भयानक बताया गया है। श्रीहरि, काल स्वरूप शेषनाग पर आरामदायक मुद्रा में बैठे हैं। कहा जाता है कि भगवान विष्णु का शांत चेहरा कठिन परिस्थितियों में व्यक्ति को शांत रहने की प्रेरणा देता है। भगवान विष्णु का मानना है कि समस्याओं का समाधान शांत रहकर ही सफलतापूर्वक ढूंढा जा सकता है।

भगवान विष्णु के 'हरि' नाम का रहस्य
भगवान विष्णु को 'हरि' नाम से भी बुलाया जाता है। हरि की उत्पत्ति हर से हुई है। "हरि हरति पापानि" का अर्थ है - हरि भगवान हमारे जीवन में आने वाली सभी समस्याओं और पापों को दूर करें। इसीलिए भगवान विष्णु को हरि भी कहा जाता है, क्योंकि सच्चे मन से श्रीहरि का स्मरण करने वालों को कभी निराशा नहीं मिलती। कष्ट और दु:ख चाहे जितने भी हो, श्रीहरि सब हर लेते हैं।

भगवान विष्णु के 'नारायण' नाम का रहस्य
भगवान विष्णु अपने भक्तों पर हर रूप और हर स्वरूप से कृपा बरसाते हैं और इसीलिए वो जगत के पालनहार कहलाते हैं। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि भगवान विष्णु का नाम नारायण क्यों है? उनके भक्त उन्हें नारायण क्यों बुलाते हैं? एक पौराणिक कथा के अनुसार पानी का जन्म भगवान विष्णु के पैरों से हुआ है। पानी को नीर या नर भी कहा जाता है।
भगवान विष्णु भी जल में ही निवास करते हैं। इसलिए नर शब्द से उनका नारायण नाम पड़ा है। इसका अर्थ ये है कि पानी में भगवान निवास करते हैं। इसीलिए भगवान विष्णु को उनके भक्त 'नारायण' नाम से बुलाते हैं।
♦️भूमि, भवन, वाहन, पशु एवं भाग्य योग♦️

♦️(1) यदि चतुर्थेश और नवमेश मिलकर लग्न में स्थित हों तो जातक को वाहन, भूमि, भवन पशु एवं भाग्य की प्राप्ति होती है।

♦️(2) यदि गुरु चतुर्थ भाव को देखे अथवा उसमें स्थित हो तो जातक को बहुत सुख की प्राप्ति होती है और धीरे-धीरे जातक भूमि, भवन, वाहन आदि का मालिक बन जाता है।

♦️(3) यदि चतुर्थ भाव का स्वामी और गुरु किसी केन्द्र अथवा त्रिकोण स्थान में इकट्ठे हों तो जातक सुखी जीवन एवं भूमि, भवन, वाहन आदि को पाता है।

♦️(4) वाहन कारक शुक्र चतुर्थ भाव के स्वामी के साथ चतुर्थ भाव में स्थित हो तो वाहन,भूमि, मकान आदि की सुगम रूप से प्राप्ति होती है।

♦️ (5) यदि चतुर्थ भाव का स्वामी और शुक्र दोनों एकादश नवम अथवा दशम भाव में स्थित हो तो विशेष रूप से अच्छे वाहन की प्राप्ति होती है।

♦️ (6) यदि चतुर्थ भाव के स्वामी की युति अथवा दृष्टि आदि द्वारा चन्द्रमा से सम्बन्ध हो तो टांगा आदि ऐसे वाहन की प्राप्ति होती है जिसमें अश्व का उपयोग होता हो।

♦️ (7) कर्क लग्न हो और बुध, शुक्र चतुर्थ भाव में स्थित हों तो बुध और की दशा में शत्रु ग्रह शत्रु की भुक्ति में जातक को वाहन, भूमि आदि की प्राप्ति होती है।

♦️ (8) यदि चतुर्थ भाव में बृहस्पति स्थित हों तो जातक को घोड़े की सवारी प्रिय होती है।

♦️ (9) यदि चतुर्थेश लाभ स्थान में हो और लाभेश चतुर्थ स्थान में हो तो भाग्य वाहन योग सिद्ध होता है।

♦️(10) यदि पांचवें भाव का स्वामी नवम भाव में हो और यदि नवम भाव का स्वामी दशम भाव में हो तो जातक की कुण्डली में भाग्य, वाहन योग सिद्ध होता है।
वास्तु दोष का प्रभाव कम करने के लिए दिशा अनुसार मंत्रोच्चार -

आजकल शायद ही कोई ऐसा घर हो जो वास्तु दोष से मुक्त हो। वास्तु दोष का प्रभाव कई बार देर से होता है तो कई बार इसका प्रभाव शीघ्र असर दिखने लगता है।
इसका कारण यह है कि सभी दिशाएं किसी न किसी ग्रह और देवताओं के प्रभाव में होते हैं। जब किसी मकान मालिक ( जिसके नाम पर मकान हो) पर ग्रह विशेष की दशा चलती है तब जिस दिशा में वास्तु दोष होता है उस दिशा का अशुभ प्रभाव घर में रहने वाले व्यक्तियों पर दिखने लगता है।

आज में आपको सभी दिशाओं के दोष को दूर करने का सबसे आसान तरीका बता रहा हूँ।। इन मंत्र जप के प्रभाव स्वरूप (फलस्वरूप) आप काफी हद तक अपने वस्तुदोषो से मुक्ति प्राप्त कर पायेंगें ।। ध्यान रखें मन्त्र जाप में में आस्था और विश्वास अति आवश्य हैं। यदि आप सम्पूर्ण भक्ति भाव और एकाग्रचित्त होकर इन मंत्रो को जपेंगें तो निश्चित ही लाभ होगा।। देश- काल और मन्त्र सधाक की साधना(इच्छा शक्ति) अनुसार परिणाम भिन्न भिन्न हो सकते हैं।।

ईशान दिशा -

इस दिशा के स्वामी बृहस्पति हैं। और देवता हैं भगवान शिव। इस दिशा के अशुभ प्रभाव को दूर करने के लिए नियमित गुरू मंत्र ' ॐ बृं बृहस्पतये नमः’ मंत्र का जप करें। शिव पंचाक्षरी मंत्र ॐ नमः शिवाय का 108 बार जप करना भी लाभप्रद होता है।

पूर्व दिशा -

घर का पूर्व दिशा वास्तु दोष से पीड़ित है तो इसे दोष मुक्त करने के लिए प्रतिदिन सूर्य मंत्र ‘ॐ ह्रां ह्रीं ह्रौं सः सूर्याय नमः’ का जप करें। सूर्य इस दिशा के स्वामी हैं। इस मंत्र के जप से सूर्य के शुभ प्रभावों में वृद्घि होती है। व्यक्ति मान-सम्मान एवं यश प्राप्त करता है। इन्द्र पूर्व दिशा के देवता हैं। प्रतिदिन 108 बार इंद्र मंत्र ‘ॐ इन्द्राय नमः’ का जप करना भी इस दिशा के दोष को दूर कर देता है।।

आग्नेय दिशा -

इस दिशा के स्वामी ग्रह शुक्र और देवता अग्नि हैं। इस दिशा में वास्तु दोष होने पर शुक्र अथवा अग्नि के मंत्र का जप लाभप्रद होता है। शुक्र का मंत्र है ‘ॐ शुं शुक्राय नमः’। अग्नि का मंत्र है ‘ॐ अग्नेय नमः’। इस दिशा को दोष से मुक्त रखने के लिए इस दिशा में पानी का टैंक, नल, शौचालय अथवा अध्ययन कक्ष नहीं होना चाहिए।

दक्षिण दिशा -

इस दिशा के स्वामी ग्रह मंगल और देवता यम हैं। दक्षिण दिशा से वास्तु दोष दूर करने के लिए नियमित ‘ॐ अं अंगारकाय नमः’ मंत्र का 108 बार जप करना चाहिए। यह मंत्र मंगल के कुप्रभाव को भी दूर कर देता है। ‘ॐ यमाय नमः’ मंत्र से भी इस दिशा का दोष समाप्त हो जाता है।

नैऋत्य दिशा -

इस दिशा के स्वामी राहु ग्रह हैं। घर में यह दिशा दोषपूर्ण हो और कुण्डली में राहु अशुभ बैठा हो तो राहु की दशा व्यक्ति के लिए काफी कष्टकारी हो जाती है। इस दोष को दूर करने के लिए राहु मंत्र ‘ॐ रां राहवे नमः’ मंत्र का जप करें। इससे वास्तु दोष एवं राहु का उपचार भी उपचार हो जाता है।

पश्चिम दिशा -

यह शनि की दिशा है। इस दिशा के देवता वरूण देव हैं। इस दिशा में किचन कभी भी नहीं बनाना चाहिए। इस दिशा में वास्तु दोष होने पर शनि मंत्र ‘ॐ शं शनैश्चराय नमः’ का नियमित जप करें। यह मंत्र शनि के कुप्रभाव को भी दूर कर देता है।

वायव्य दिशा -

चन्द्रमा इस दिशा के स्वामी ग्रह हैं। यह दिशा दोषपूर्ण होने पर मन चंचल रहता है। घर में रहने वाले लोग सर्दी जुकाम एवं छाती से संबंधित रोग से परेशान होते हैं। इस दिशा के दोष को दूर करने के लिए चन्द्र मंत्र ‘ॐ चन्द्रमसे नमः’ का जप लाभकारी होता है।

उत्तर दिशा -

यह दिशा के देवता धन के स्वामी कुबेर हैं। यह दिशा बुध ग्रह के प्रभाव में आता है। इस दिशा के दूषित होने पर माता एवं घर में रहने वाले स्त्रियों को कष्ट होता है।। माता एवं घर में रहने वाले स्त्रियों को कष्ट होता है। आर्थिक कठिनाईयों का भी सामना करना होता है। इस दिशा को वास्तु दोष से मुक्त करने के लिए ‘ॐ बुधाय नमः या ‘ओम कुबेराय नमः’ मंत्र का जप करें। आर्थिक समस्याओं में कुबेर मंत्र का जप अधिक लाभकारी होता है। 

।। आपका आज का दिन शुभ मंगलमय हो ।।

                 🙏 धन्यवाद 🙏
यदि जन्म विवरण सही है तो मात्र लग्न कुंडली से सभी समस्याओं के विषय में जानकारी प्राप्त की जा सकती है।

♦️विवाह के लिए सप्तम भाव द्वितीय भाव एवं गुरु या शुक्र को देखा जाता है ।
👉 सप्तम भाव एवं द्वितीय भाव के स्वामी मंगल उच्च राशि में विराजमान है एवं सप्तम भाव में स्वराशि में दृष्टि भी डाल रहे हैं । 
परंतु मंगल  – राहु ,  केतु , शनि से पीड़ित है ।  वैवाहिक जीवन में समस्या का सबसे बड़ा कारण है । यदि सप्तम भाव या सप्तमेश पर  राहु – शनि का प्रभाव हो तो विवाह में बहुत ज्यादा विलंब होता है
👉 और सप्तम भाव में विलंब करवाने वाले ग्रह शनि स्वयं विराजमान है एवं द्वितीय भाव में सूर्य भी राहु से पीड़ित है अर्थात द्वितीय भाव भी पीड़ित माना जाएगा । 
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ऐसे योग में 30 – 32  वर्ष  के पहले विवाह होना मुश्किल है और यदि इसके पहले विवाह हो जाता है तो ज्यादातर देखा गया है कि दो विवाह का योग बन जाता है । 
💥और विवाह का समय जानने के लिए जन्म कुंडली के साथ हस्तरेखा में भी विवाह रेखा की स्थिति को देखना आवश्यक है । क्योंकि पहले के समय में जो ग्रहों के अनुसार विवाह के समय की गणना की गई है आज में बहुत अंतर है । जैसे पहले ग्रहों के अनुसार गणना करके 16 वर्ष में भी विवाह का योग बताया गया था और उस समय होता भी था । परंतु आज तो किसी का नहीं होता है ।
 ♦️अब कोई भी उपाय करके वैवाहिक जीवन के समय को आगे पीछे नहीं किया जा सकता है ।
👉 उपाय करने से वैवाहिक जीवन में जो समस्या का योग बन रहा है अर्थात की विवाह होने के बाद जो परेशानी , मतभेद , विच्छेद इत्यादि का योग बन रहा है उसका समाधान किया जा सकता है । 
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