Wednesday, June 29, 2022

हिरण्यगर्भ शब्द भारतीय सनातनी विचारधारा में सृष्टि का आरंभिक स्रोत माना जाता है। https://astronorway.blogspot.com/

इसका शाब्दिक अर्थ है – प्रदीप्त गर्भ (अंडज् या उत्पत्ति-स्थान)। इस शब्द का प्रथमतः उल्लेख #ऋग्वेद में हुआ है। 

हिरण्यगर्भ: समवर्तताग्रे भूतस्य जात: पतिरेक आसीत्।
 स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम॥ 
--- सूक्त ऋग्वेद -१०-१२१-१ https://astronorway.blogspot.com/

भावार्थ- "सब सूर्यादि तेजस्वी पदार्थों क आधार जो जगत हो और होएगा उसका आधार परमात्मा जगत की उत्पत्ति के पूर्व विद्य़मान था। जिसने पृथ्वी और सूर्य-तारों का सृजन किया उस देव की प्रेम भक्ति किया करें।" https://astronorway.blogspot.com/

इस श्लोक से हिरण्यगर्भ ईश्वर का अर्थ लगाया जाता है - यानि वो गर्भ जहाँ हर कोई वास करता हो। वेदान्त और दर्शन ग्रंथों में हिरण्यगर्भ शब्द कई बार आया है। अनेक भारतीय परम्पराओं में इस शब्द का अर्थ अलग प्रकार से लगाया जाता है।https://astronorway.blogspot.com/

सामान्यतः हिरण्यगर्भ शब्द का प्रयोग जीवात्मा के लिए हुआ है जिसे ब्रह्मा जी भी कहा गया है। ब्रह्म और ब्रह्मा जी एक ही ब्रह्म के दो अलग अलग तत्त्व हैं। ब्रह्म अव्यक्त अवस्था के लिए प्रयुक्त होता है और ब्रह्माजी ब्रह्म की तैजस अवस्था है। ब्रह्म का तैजस स्वरूप ब्रह्मा जी हैं। 
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हिरण्यगर्भ शब्द का अर्थ है सोने के अंडे के भीतर रहने वाला. सोने का अंडा क्या है और सोने के अंडे के भीतर रहने वाला कौन है? पूर्ण शुद्ध ज्ञान की शांतावस्था ही हिरण्य - सोने का अंडा है। उसके अंदर अभिमान करनेवाला चैतन्य ज्ञान ही उसका गर्भ है जिसे हिरण्यगर्भ कहते हैं। 

स्वर्ण आभा को पूर्ण शुद्ध ज्ञान का प्रतीक माना गया है जो शान्ति और आनन्द देता है जैसे प्रातः कालीन सूर्य की अरुणिमा. इसके साथ ही अरुणिमा सूर्य के उदित होने (जन्म) का संकेत है। 

ब्रह्म की ४ अवस्थाएँ हैं प्रथम अवस्था #अव्यक्त है, जिसे कहा नहीं जा सकता, बताया नहीं जा सकता। दूसरी #प्राज्ञ है जिसे पूर्ण विशुद्ध ज्ञान की शांतावस्था कहा जाता है। इसे हिरण्य कह सकते हैं। क्षीर सागर में शेष नाग शय्या पर लेटे श्रीहरि विष्णु इसी का चित्रण है। मनुष्य की सुषुप्ति इसका प्रतिरूप है। शैवों ने इसे ही शिव कहा है। तीसरी अवस्था #तैजस है जो हिरण्य में जन्म लेता है इसे हिरण्यगर्भ कहा है। यहाँ ब्रह्म ईश्वर कहलाता है। इसे ही ब्रह्मा जी कहा है। 

मनुष्य की स्वप्नावाथा इसका प्रतिरूप है। यही मनुष्य में जीवात्मा है। यह जगत के आरम्भ में जन्म लेता है और जगत के अन्त के साथ लुप्त हो जाता है। ब्रह्म की चौथी अवस्था #वैश्वानर है। मनुष्य की जाग्रत अवस्था इसका प्रतिरूप है। सम्पूर्ण सृष्टि का निर्माण विस्तार ब्रह्म का वैश्वानर स्वरूप है।

 ---ऋग्वेद का #ऐतरेयोपनिषद इससे यह न समझें कि ब्रह्म या ईश्वर चार प्रकार का होता है, यह एक ब्रह्म की चार अवस्थाएँ है। इसकी छाया मनुष्य की चार अवास्थों में मिलती है, जाग्रत, स्वप्न, सुसुप्ति और तुर्या स्वरूप स्थिति जिसे बताया नहीं जा सकता। https://astronorway.blogspot.com/

सृष्ठि के आरंभ:: वेद प्राचीन भारतीय उपमहाद्वीप का ग्रंथों का ग्रन्थ है। वैदिक संस्कृत में रचित संस्कृत ग्रंथ साहित्य की सबसे पुरानी परत और हिंदू धर्म के सबसे पुराने शास्त्रों का गठन है। वेदों में प्रथम ऋग्वेद के "हिरण्यगर्भ सूक्त" वाणी है कि- "शुरुआत में, भगवान ब्रह्मांड के निर्माता के रूप में खुद को प्रकट किया, सब बातों को शामिल, खुद के भीतर सब कुछ, सामूहिक समग्रता सहित।" 

"हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेकासीत । 
स दाधार पृथ्वीं ध्यामुतेमां कस्मै देवायहविषा विधेम ॥ 

य आत्मदा बलदा यस्य विश्व उपासते प्रशिषं यस्यदेवाः । 
यस्य छायामृतं यस्य मर्त्युः कस्मै देवायहविषा विधेम ॥ 

यः प्राणतो निमिषतो महित्वैक इद्राजा जगतो बभूव । 
य ईशे अस्य द्विपदश्चतुष्पदः कस्मै देवाय हविषाविधेम ॥ 

यस्येमे हिमवन्तो महित्वा यस्य समुद्रं रसया सहाहुः । 
यस्येमाः परदिशो यस्य बाहू कस्मै देवाय हविषाविधेम ॥ 

येन दयौरुग्रा पर्थिवी च दर्ळ्हा येन सव सतभितं येननाकः । 
यो अन्तरिक्षे रजसो विमानः कस्मै देवायहविषा विधेम ॥ 

यं करन्दसी अवसा तस्तभाने अभ्यैक्षेतां मनसारेजमाने । 
यत्राधि सूर उदितो विभाति कस्मै देवायहविषा विधेम ॥ 

आपो ह यद बर्हतीर्विश्वमायन गर्भं दधानाजनयन्तीरग्निम । 
ततो देवानां समवर्ततासुरेकःकस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ 

यश्चिदापो महिना पर्यपश्यद दक्षं दधानाजनयन्तीर्यज्ञम । 
यो देवेष्वधि देव एक आसीत कस्मैदेवाय हविषा विधेम ॥ 

मा नो हिंसीज्जनिता यः पर्थिव्या यो वा दिवंसत्यधर्मा जजान। यश्चापश्चन्द्रा बर्हतीर्जजानकस्मै देवाय हविषा विधेम ॥

परजापते न तवदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परि ताबभूव । यत्कामास्ते जुहुमस्तन नो अस्तु वयं सयाम पतयोरयीणाम॥" ---ऋग्वेद १०-१२१ 

भावार्थ:: "सृष्टि से पहले सत् नहीं था, असत् भी नहीं.. अंतरिक्ष भी नहीं, आकाश भी नहीं था! छिपा था क्या, कहाँ, किसने ढ़ँक दिया था? उस पल तो अगम, अटल जल भी कहाँ था! सृष्टि का कौन है कर्ता? कर्ता है या विकर्ता? ऊंचे आकाश में रहता। सदा अध्यक्ष बना रहता। वही सच में जानता.. या नहीं भी जानता था! हैं किसी को नहीं पता, नहीं पता, नहीं है पता, नहीं है पता...!!" "वोह था हिरण्य गर्भ सृष्टि से पहले विद्यमान। वो ही तो सारे भूत जाति का स्वामी महान। जो है अस्तित्वमान धरती आसमान धारण कर। ऐसे किस देवता की उपासना करे हम हवी देकर? जिस के बल पर तेजोमय है अम्बर। पृथ्वी हरी भरी स्थापित स्थिर। स्वर्ग और सूरज भी स्थिर। ऐसे किस देवता की उपासना करे हम हवी देकर? गर्भ में अपने अग्नि धारण कर पैदा कर, व्याप था जल इधर उधर नीचे ऊपर, जगा चुके वो का एकमेव प्राण बनकर, ऐसे किस देवता की उपासना करे हम हवी देकर? ॐ ! सृष्टि निर्माता स्वर्ग रचयिता पूर्वज रक्षा कर। सत्य धर्म पालक अतुल जल नियामक रक्षा कर। फैली हैं दिशाएं बहु जैसी उसकी सब में सब पर, ऐसे ही देवता की उपासना करे हम हवी देकर, ऐसे ही देवता की उपासना करे हम हवी देकर।" (कस्मै = किस; देवाय = देवता; हविषा = हवी; विधेम = देना, समर्पित करना) सृजन और जीवन का मूल है हिरण्यगर्भ:: हमारा ध्यान उस ओर नहीं जाता, जिसकी चर्चा जीवन में सबसे कम होती है। पर ज्यादातर मामलों में जो अचर्चित रहता है, वही सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता है। इसका अभिप्राय किसी अन्य तत्व के महत्व को कम करना नहीं, बल्कि जो वास्तव में महत्वपूर्ण है, उसकी महत्ता जानने का प्रयास करना है। https://astronorway.blogspot.com/

जैसे बीज को ही लें। वृक्ष है, तो वह बीज से ही पैदा हुआ होगा। बीज का अंकुरण हुआ, उससे पौधा बना और फिर पौधा बड़ा होकर वृक्ष के रूप में सामने आया। बीज और वृक्ष, इनमें से किसी का महत्व कम नहीं है, पर क्या किसी को यह ध्यान रहता है कि बीज को धारण करने और उसे सुरक्षित रखने वाला एक खोल या छिलका भी होता है। न वह बीज है और न वृक्ष, तो क्या इससे छिलके का महत्व कम हो जाता है? पिता महत्वपूर्ण है, माता की भी महत्ता है, मगर माता जन्म देने में सफल मात्र इसलिए होती है कि उसके शरीर में 'गर्भाशय' है। गर्भाशय जीव नहीं है, स्वयं में जीवन नहीं है, किन्तु वह सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि वह जीव को धारण करता है। उसी के अन्दर जीव सुरक्षित रहता है, पलता है और परिपक्व होकर जन्म लेता है। अंडा फूटता है, उसका खोल निष्क्रिय, बेकार हो जाता है, किन्तु उस खोल की अनुपस्थिति में अंडा कैसा? जीव कहाँ? जीवन कैसे? धान कूटकर चावल निकाल लिया जाता है, भूसा फेंक दिया जाता है। 
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लगता है कि जैसे उसमें कोई तत्व नहीं, किन्तु उस भूसे में भी बहुत कुछ है। बहुत उपयोग है उसका। कई कार्यों में वह सहायक होता है। उसे जब जलाया जाता है, तब वह निरंतर मंद ताप देता है। वही चावल को धारण करने वाला है। बेकार नहीं है वह, बल्कि महत्वपूर्ण है। जो खोल का महत्व है, वही वेदों में वर्णित हिरण्यगर्भ का है। वेद बताते हैं कि हिरण्यगर्भ का सृजन सर्वप्रथम हुआ था। यहां 'सर्वप्रथम' शब्द पर विवाद जरूर है, किन्तु कई मान्यताओं के अनुसार उसकी सर्जना पहले हुई। वही शून्य था। वह शून्य बढ़ते हुए महाशून्य हुआ। इसी महाशून्य में संपूर्ण ब्रह्मांड विराजमान है। 

यह हिरण्यगर्भ गर्भाशय है, जीव का भी और सृष्टि का भी। इसी हिरण्यगर्भ को भगवान, समष्टि और बुद्धि भी कहते हैं। योगियों के लिए यह अजन्मा है (क्योंकि जन्म इसी से सम्भव है)। 'https://astronorway.blogspot.com/
हिरण्यगर्भ सूक्त - ऋग्वेद संहिता के दशम मण्डल के १२१वें सूक्त को 'हिरण्यगर्भ सूक्त' कहते हैं क्योंकि इसका देवता हिरण्यगर्भ है। नौ मन्त्रों के इस सूक्त में प्रत्येक मन्त्र में 'कस्मै देवाय हविषा विधेम' कहकर यह बात दोहरार्इ गयी है कि ऐसे विशिष्ट हिरण्यगर्भ को छोड़कर हम किस अन्य देव की आराधना करेंं? हमारे लिए तो यह 'क' संज्ञक प्रजापति ही सर्वाधिक पूजनीय है। इस हिरण्यगर्भ का स्वरूप, महिमा और उससे होने वाली उत्पत्ति का विवरण इस सूक्त में बड़े सरल और स्पष्ट शब्दों में किया गया है। हिरण्यगर्भ ही सृष्टि का नियामक और धर्ता है। https://astronorway.blogspot.com/

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Monday, June 27, 2022

#स्त्रियों_के_वेदाध्ययन_और_यज्ञोपवीत_पर_स्वामी_श्री_करपात्रीजी_महाराज_का_निर्णय,,
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यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते | येन जातानि जीवन्ति |
यत् प्रयन्त्यभिसंविशन्ति | तद्विजिज्ञासस्व | तद् ब्रह्मेति || – तैत्तिरीयोपनिषत् ३-१-३
इमानि भूतानि यतो जायन्ते, जातानि येन जीवन्ति, यदेव अभिसंविशन्ति प्रयन्ति, तदेव ब्रह्म,
तदेव विजिज्ञासस्व | अर्थात् – समस्तम् इदम् विश्वं यस्माद् उत्पद्यते, येनैव जीवति, यस्मिन्नेव च लीयते तदेव ब्रह्म | एवं समस्तस्यापि जगतः सृष्टिस्थितिलयकारणभूतं तत्त्वं वेदान्तेषु ब्रह्मशब्देन गीयते | सकलस्यास्य विश्वस्य ब्रह्म उपादानं निमित्तं च कारणं भवति | अतः ब्रह्म नैव कार्यं भवेत् | जगत्कारणत्वेन ब्रह्मण एव प्रतिपादितत्वात् कापिलसांख्यदर्शने प्रतिपादितं प्रधानं वा वैशेषिकदर्शने प्रतिपादितः परमाणुर्वा जगतः कारणं नैव भवति इत्यभिप्रायः ||https://astronorway.blogspot.com/
अस्तु , अब प्रश्न ये है कि ब्रह्म का ज्ञान कैसे होता है ? अब इसके उत्तर में आगे देखो –
वेद कहता है तपस्या से ब्रह्म को जानो क्योंकि तप ही ब्रह्म है – तपसा ब्रह्म विजिज्ञासस्व| तपो ब्रह्मेति| – तैत्तिरीयोपनिषत् / भृगुवल्ली / ० १https://astronorway.blogspot.com/
अपनी तपस्या से पूर्वकाल में स्त्रियाँ वेद मन्त्रों का साक्षात्कार कर लेतीं थी, उनकी तपस्या क्या है ? स्वधर्म पर चलने से उनको वेद्य तत्त्व का ज्ञान हो जाता था वो तपस्या है स्वधर्मपालन, देव, द्विज, गुरु, प्राज्ञों का पूजन , आर्जव , इन्द्रियों पर निग्रह , अहिंसा , इसी से वे पापदेहा स्त्रियाँ शुद्धता को प्राप्त होती हैं | (देवस्य द्विजस्य आचार्यस्य पण्डितस्य च अर्चनम्, शुद्धता, आर्जवम्, ब्रह्मचर्यम्, अहिंसा च शारीरं तपः इत्युच्यते) –https://astronorway.blogspot.com/
देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम् | ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते || (-भगवद्गीता १४/१४ ) ऋषन्ति ज्ञानसंसारयोः पारं गच्छन्ति ऋषयः| ऋषी श गतौ नाम्नीति किः| रिषिर्हसादिश्च| विद्याविदग्धमतयो रिषयः प्रसिद्धाः| इति प्रयोगात्| स्त्रियां ऋषी च| इत्यमरटीकायां भरतः इति हि श्रूयते |https://astronorway.blogspot.com/
अथवा ऋषन्ति अवगच्छन्ति इति ऋषयो मन्त्राः| · ऋषि दर्शनात् (नि०२|१९|१). · स्तोमान् ददर्शेत्यौपमन्यवः| · तद् यद् एतांस्तपस्यमानान् ब्रह्म (वेदं) स्वयम्भवभ्यानर्षत्, त ऋषयोऽभवन्, तद् ऋषिणामृषित्वम्| -निरुक्त २/१९/१ ऋषि गोत्र प्रवर्तक , दीर्घायु , मन्त्रसाक्षात्कर्ता, दिव्यद्रष्टा आदि हुए | दीर्घायुषो मन्त्रकृत ईश्वरा दिव्यचक्षुषः| बुद्धाः प्रत्यक्षधर्माणो गोत्रप्रवर्तकाश्च ये || (वायुपु० पूर्वार्ध ६१/९४ ) ऋषि शब्द का ही स्त्रीत्व विवक्षा में प्रयोग हुआ है ऋषिका , क्यों कहा है ऋषिका ? क्योंकि किसी एक समानधर्म से उसे वह कहा गया , यथा लोक में शौर्य या क्रौर्य आदि किसी सामान धर्म के आधार पर बालक को भी सिंह कह दिया जाता है (सिंहोsयं माणवकः) | क्या समानता है ? समानता है दीर्घायुत्व की , दिव्य-द्रष्टृत्व की , प्रत्यक्षा धर्मा होने की | स्त्रियाँ भी तो दिव्यदर्शिणी हो सकती हैं | किन्तु क्या कभी तुमने किसी ऋषिका के नाम से गोत्र सुना ? नहीं न ! क्यों ? क्या किसी शास्त्र में कभी स्त्रियों की शिष्या परम्परा सुनी ? कोई स्थान विशेष में पाठ शाला पढी , जहां उनको वेदाध्ययन कराया जाता था ? नहीं न ! वो इसलिए क्योंकि उनका ऋषिका होना ऋषियों के मार्ग की भांति न रहा | उनका सिद्धि प्राप्ति का मार्ग दूसरा है | इसी प्रकार वेदोक्त सीता , सावित्री आदि सभी शब्द लौकिक अर्थ तुल्य ग्राह्य नहीं , लौकिक शब्दों तथा वैदिक शब्दों के अर्थ में बहुत भेद होता है | जैसे लोक में कवि शब्द का अर्थ कविता करने वाला होता है किन्तु वेद में त्रिकालज्ञ , लोक में क्रतु का अर्थ यज्ञ होता है किन्तु वेद में इसी शब्द का अर्थ बुद्धि हो जाता है – अग्निर्होता कविक्रतु: (ऋग्वेद , अग्निसूक्त ५ ) वेद के एक ही शब्द का ब्राह्मण ग्रन्थ अनेक अर्थ प्रकाशित करते हैं, विचक्षणता के बिना इसे नहीं समझा जा सकता | बहुभक्तिवादीनि हि ब्राह्मणानि भवन्ति | पृथिवी वैश्वानर:, संवत्सरो वैश्वानरो, ब्राह्मणो वैश्वानर इति” (- निरुक्त ७/७/२४ ) अस्तु ,https://astronorway.blogspot.com/
शास्त्रकारों का कथन है कि मनुस्मृति के विरुद्ध जो स्मृति वचन है वह प्रशस्त नहीं माना गया है क्योंकि वेदार्थ के अनुसार निबद्ध होने से सर्वप्रथम मनु की मान्यता है (सर्वधर्ममयो मनु : ) , जैसा कि –
मनुस्मृति विरुद्धा या सा स्मृतिर्न प्रशस्यते |
वेदार्थोपनिबद्धत्त्वात् प्राधान्यं हि मनोः स्मृतेः | | तथाहि ——–>
यद् वै किञ्च मनुरवदत् तद् भेषजम् | ( तैत्तिरीय सं०२/२/१०/२)
मनु र्वै यत् किञ्चावदत् तत् भेषज्यायै | (- ताण्ड्य-महाब्रा०२३/१६/१७)
अथापि निष्प्रचमेव मानव्यो हि प्रजाः | ऋग्वे० १/८०/१६ अपि द्रष्टव्यम् |https://astronorway.blogspot.com/
……..ये तो हो गया पाराशर संहिता पर द्विविधा स्त्रियो ० और “पुराकल्पे हि नारीणां मौञ्जीबन्ध ० आदि का उत्तर |
अब सुनिए ब्रह्मसूत्रेण पवित्रीकृतकायाम् का उत्तर —>
ब्रह्मसूत्र शब्द विविध अर्थों वाला है , ब्रह्म शब्द के अर्थ तप , वेद , ब्रह्मा , विप्र , प्रजापति आदि माने गए हैं | अतः महाश्वेता स्वधर्म पालन रूप तपस्या से ही पवित्र काया हुई थी ऐसा सिद्ध होता है —->
ब्रह्मशब्दं तपो वेदो ब्रह्मा विप्रः प्रजापतिः इति वचनेन अत्र ब्रह्मसूत्रशब्दस्य तपः सूत्रेण पवित्रीकृतकायामिति तात्पर्यं समीचीनम् | बह्वर्थको हि ब्रह्मसूत्रशब्दः, तथाहि यज्ञोपवीतभिन्नार्थे – ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैरिति गीतायाम् |
अब आगे देखिये –https://astronorway.blogspot.com/
स्त्री का पति ही उसका गुरु है | शास्त्र कहता है –
गुरुरग्निर्द्विजातीनां वर्णानां ब्राह्मणो गुरुः |
पतिरेव गुरुः स्त्रीणां सर्वस्याऽभ्यागतो गुरुः ||
(-पद्मपुराण स्वर्ग॰५१/५१, ब्रह्मपुराण ८०/४७ )
‘अग्नि द्विजातियोँ का गुरु है, ब्राह्मण चारोँ वर्णोँ का गुरु है, एकमात्र पति ही स्त्रियोँ का गुरु है और अतिथि सबका गुरु है |’ स्त्रियों का जनेऊ संस्कार घोर पाखंड है , किं च –
वैवाहिको विधिः स्त्रीणां संस्कारो वैदिकः स्मृतः |
पतिसेवा गुरौ वासो गृहार्थोँऽग्निपरिक्रिया || (मनुस्मृति २/६७ )
‘स्त्रियोँ के लिये वैवाहिक विधि का पालन ही वैदिक-संस्कार (यज्ञोपवीत), पति की सेवा ही गुरुकुलवास और गृह-कार्य ही अग्निहोत्र कहा गया है |’https://astronorway.blogspot.com/

Tuesday, June 14, 2022

https://astronorway.blogतन्त्रं वै वेदसम्मतम्

गुरु-शिष्य पदे स्थित्वा स्वयमेव भगवान् शिवः ।
प्रश्नोत्तर परैः वाक्यैः तन्त्रम् समवातारयत् ॥

'कुमारी-तन्त्र'https://astronorway

सम्पूर्ण मानव जाति के लौकिक एवं पारलौकिक कल्याण के लिये सदार्द्रचित्त भगवान् शिव ने स्वयं ही गुरु एवं शिष्य पद पर प्रतिष्ठित होकर जिस शास्त्र का उपदेश दिया है, वह ही तंत्र शास्त्र नाम से परिचित है । आर्ष वाङ्मय में 'तन्त्र' शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों में हुआ है। एक शास्त्र के रूप में यह समादृत और प्रतिष्ठित है, परन्तु विडम्बना यह है कि जन-सामान्य ही नहीं अच्छे-अच्छे पढ़े-लिखें लोग भी 'तन्त्र' के तत्त्व-रूप, उसके लक्ष्य एवं उद्देश्य तथा उसके सिद्धान्तात्मक एवं क्रियात्मक पक्ष की वास्तविकता से वाकिफ नहीं है। उनकी दृष्टि में तन्त्र शास्त्र वशीकरण आदि षट्कर्मो विशेषकर अभिचार-कर्मों एवं प्रयोगों की शिक्षा देने वाला शास्त्र है। वे भारत की तन्त्र-विद्या को अफ्रीकी और यूरोपीय देशों के ब्लैक मैजिक (Black Magic) का पर्याय समझते हैं। तन्त्र शास्त्र के प्रति उनकी यह अवधारणा सर्वथा भ्रान्त और सतही है।https://astronorway

आगम-निगम-यामल आदि भी इसी तन्त्र शास्त्र के ही भेद हैं। विस्तार अर्थक 'तन्' धातु के साथ 'सर्व धातुभ्योः ष्ट्न्' इस सूत्र से 'ष्ट्रन' प्रत्यय लगाने पर 'तन्त्र' शब्द निष्पन्न होता है।

'तन्यते विस्तार्यते ज्ञानमनेन' इति तन्त्रम् । https://astronorway

इसका अर्थ है ज्ञान का विस्तार करने वाला शास्त्र। तन्त्र की इस परिभाषा को और अधिक स्पष्ट करते हुए 'कामिकागम' में कहा गया है कि यह शास्त्र तत्त्व और मन्त्र सहित विपुल अर्थों का विस्तार अर्थात् विस्तृत व्याख्या करके साधक की रक्षा करता है।

तनोति विपुलानर्थान् तत्त्व मन्त्र समन्वितान् ।
त्राणं च कुरुते यस्मात् तन्त्रमित्यभिधीयते ॥

यह तन्त्र-शास्त्र किसी मनुष्य की रचना नहीं अपितु भगवान् शिव का कृपा प्रसाद हैं जो उन्होंने वेदों का अर्थ ग्रहण करने में असमर्थ और/अथवा वेदों का अध्ययन करने के अधिकार से वञ्चित जनों की मुक्ति के लिये प्रदान किया है-

निखिल वेदार्थानभिज्ञानां, तत्र नाधिकारिणाञ्च
मुक्त्युपायं निखिलवेदसाराम्नाय विद्यां प्रणिनाय ॥

उनका यह कृपा-प्रसाद रूप उपदेश भगवान् वासुदेव के द्वारा अनुमोदित भी है, जैसा कि उसके एक अपर नाम 'आगम' की परिभाषा से स्पष्ट है---https://astronorway

आगतं शिव- वक्त्रेभ्योः गतं च गिरिजामुखे ।
मतं श्री वासुदेवस्य तस्मादागम उच्यते ॥

'आगतं गतं मतं' इन तीनों पदों के आद्य वर्णों के संयोजन से 'आगम' शब्द बना है। 'रुद्रयामल' में दी गई उक्त परिभाषा स्पष्ट भी है और सर्वमान्य भी । 'बाराही तन्त्र' में 'आगम' के सात लक्षण बताये गये हैं- (१) सृष्टि, (२) प्रलय, (३) देवार्चन-विधि, (४) मन्त्र-साधन, (५) पुरश्चरण-विधान, (६) षट्कर्म साधन एवं (७) चतुर्विध-ध्यान योग का जिसमें निरूपण किया गया है, वह आगम है।https://astronorway

'निर्गतं गतं और मतम्' इन तीन पदों के आद्य-वर्णों के संयोजन से 'निगम' शब्द बना है। यह भी ‘तन्त्र' का भाग है। गुरु पद पर प्रतिष्ठित होकर भगवती ने शिवजी को जो उपदेश दिया, वह 'निगम' है

निर्गतो गिरिजावक्त्रात् गतश्च गिरीश श्रुतम् ।
मतश्च वासुदेवस्य, निगमः परिकथ्यते ॥https://astronorway

'वाराही तत्त्र' के अनुसार जिसमें (१) सृष्टि. (२) ज्योतिष, (३) संस्थान, (४) नित्य-कर्म उपदेश, (४) क्रम, (५) सूत्र. (६) वर्ण-भेद, (७) जाति-भेद और (८) युगधर्म ये आठ विषय प्रतिपादित हो, वह 'यामल' है।

आगम, निगम और यामल के इन तत्त्वों अथवा विषयों का समाहार करते हुए 'विश्वसार तन्त्र' में 'तन्त्र' का जो लक्षण बताया गया है, उसके अनुसार इस शास्त्र में समाहित विषयों की संख्या ३४ है। इसमें उपासना-काण्ड, औषषि कल्प, ग्रह-नक्षत्र संस्थान, रसायन शास्त्र, रसायन-सिद्धि, स्त्री-पुरुष लक्षण, राजधर्म-दानधर्म-युगधर्म, व्यवहार नीति आदि जैसे लौकिक विषय भी शामिल है। तन्त्र-शास्त्र की इस बहु-आयामी व्यापकता के कारण 'मत्स्य-पूक्त' में इसे सर्वश्रेष्ठ शास्त्र कहा गया हैhttps://astronorway

तथा समस्त शास्त्राणां तन्त्रशास्त्रमनुत्तमम् ।
सर्व कामप्रदं पुण्यं तन्त्रं वै वेदसम्मतम् ॥

यद्यपि 'मत्स्य सूक्त' में तन्त्र को वेद-सम्मत कहा गया है, तथापि ये आक्षेप लगाये जाते हैं कि तन्त्र-शास्त्र 'अवैदिक' है, वेद-वाह्य है और यह कि इसकी उत्पत्ति बुद्धोत्तर काल में हुई।

 क्रमशhttps://astronorway
वेदानुसार पांच प्रकार के यज्ञhttps://astronorway.blogspot.com/
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1. ब्रह्मयज्ञ, 2. देवयज्ञ, 3. पितृयज्ञ, 4. वैश्वदेव यज्ञ, 5. अतिथि यज्ञ। उक्त पांच यज्ञों को पुराणों और अन्य ग्रंथों में विस्तार दिया गया है। वेदज्ञ सार को पकड़ते हैं विस्तार को नहीं।https://astronorway.blogspot.com/

ॐ विश्वानि देव सवितुर्दुरितानि परासुव। यद्भद्रं तन्नासुव ।।

-यजुभावार्थ : हे ईश्वर, हमारे सारे दुर्गुणों को दूर कर दो और जो अच्छे गुण, कर्म और स्वभाव हैं, वे हमें प्रदान करो।'यज्ञ' का अर्थ आग में घी डालकर मंत्र पढ़ना नहीं होता। यज्ञ का अर्थ है- शुभ कर्म। श्रेष्ठ कर्म। सतकर्म। वेदसम्मत कर्म। सकारात्मक भाव से ईश्वर-प्रकृति तत्वों से किए गए आह्वान से जीवन की प्रत्येक इच्छा पूरी होती है। मांगो, विश्वास करो और फिर पा लो। यही है यज्ञ का रहस्य।https://astronorway.blogspot.com/

1.ब्रह्मयज्ञ👉 जड़ और प्राणी जगत से बढ़कर है मनुष्य। मनुष्य से बढ़कर है पितर, अर्थात माता-पिता और आचार्य। पितरों से बढ़कर हैं देव, अर्थात प्रकृति की पांच शक्तियां, देवी-देवता और देव से बढ़कर है- ईश्वर और हमारे ऋषिगण। ईश्वर अर्थात ब्रह्म। यहब्रह्म यज्ञसंपन्न होता है नित्य संध्यावंदन, स्वाध्याय तथा वेदपाठ करने से। इसके करने से ऋषियों का ऋण अर्थात 'ऋषि ऋण' चुकता होता है। इससे ब्रह्मचर्य आश्रम का जीवन भी पुष्ट होता है।https://astronorway.blogspot.com/

2.देवयज्ञ👉 देवयज्ञ जो सत्संग तथा अग्निहोत्र कर्म से सम्पन्न होता है। इसके लिए वेदी में अग्नि जलाकर होम किया जाता है यही अग्निहोत्र यज्ञ है। यह भी संधिकाल में गायत्री छंद के साथ किया जाता है। इसे करने के नियम हैं। इससे 'देव ऋण' चुकता होता है।हवन करने को 'देवयज्ञ' कहा जाता है। हवन में सात पेड़ों की समिधाएं (लकड़ियां) सबसे उपयुक्त होतीं हैं- आम, बड़, पीपल, ढाक, जांटी, जामुन और शमी। हवन से शुद्धता और सकारात्मकता बढ़ती है। रोग और शोक मिटते हैं। इससे गृहस्थ जीवन पुष्ट होता है।

3.पितृयज्ञ👉 सत्य और श्रद्धा से किए गए कर्म श्राद्ध और जिस कर्म से माता, पिता और आचार्य तृप्त हो वह तर्पण है। वेदानुसार यह श्राद्ध-तर्पण हमारे पूर्वजों, माता-पिता और आचार्य के प्रति सम्मान का भाव है। यह यज्ञ सम्पन्न होता है सन्तानोत्पत्ति से। इसी से 'पितृ ऋण' भी चुकता होता है।
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4.वैश्वदेवयज्ञ👉 इसे भूत यज्ञ भी कहते हैं। पंच महाभूत से ही मानव शरीर है। सभीप्राणियों तथा वृक्षों के प्रति करुणा और कर्त्तव्य समझना उन्हें अन्न-जल देनाही भूत यज्ञ या वैश्वदेव यज्ञ कहलाता है। अर्थात जो कुछ भी भोजन कक्ष में भोजनार्थ सिद्ध हो उसका कुछ अंश उसी अग्नि में होम करें जिससे भोजन पकाया गया है। फिर कुछ अंश गाय, कुत्ते और कौवे को दें। ऐसा वेद-पुराण कहते हैं।
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5.अतिथि यज्ञ👉 अतिथि से अर्थ मेहमानों की सेवा करना उन्हें अन्न-जल देना। अपंग,महिला, विद्यार्थी, संन्यासी, चिकित्सक और धर्म के रक्षकों की सेवा-सहायता करनाही अतिथि यज्ञ है। इससे संन्यास आश्रम पुष्ट होता है। यही पुण्य है। यही सामाजिक कर्त्तव्य है।अंतत: उक्त पांच यज्ञों के ही पुराणों में अनेक प्रकार और उप-प्रकार हो गए हैं जिनके अलग-अलग नाम हैं और जिन्हें करने की विधियां भी अलग-अलग हैं किंतु मुख्यत:यह पांच यज्ञ ही माने गए हैं।इसके अलावा अग्निहोत्र, अश्वमेध, वाजपेय, सोमयज्ञ, राजसूय और अग्निचयन का वर्णण यजुर्वेद में मिलता है किंतु इन्हें आज जिस रूप में किया जाता है पूर्णत: अनुचित है। यहां लिखे हुए यज्ञ के अलावा अन्य किसी प्रकार के यज्ञ नहीं होते। यज्ञकर्म को कर्त्तव्य व नियम के अंतर्गत माना गया है।https://astronorway.blogspot.com/
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Friday, June 10, 2022

🌷 *निर्जला एकादशी* 🌷https://astronorway.blogspot.com/

➡️ *10 जून 2022 शुक्रवार को सुबह 07:26 से 11 जून शनिवार को प्रातः 05:45 तक एकादशी है ।*
💥 *विशेष - 11 जून, शनिवार को एकादशी का व्रत (उपवास) रखें ।
👉🏻 *(10 जून, शुक्रवार निर्जला-भीम एकादशी (स्मार्त) 11 जून, शनिवार को निर्जला-भीम एकादशी (भागवत)*https://astronorway.blogspot.com/

 
🙏🏻 *युधिष्ठिर ने कहा : जनार्दन ! ज्येष्ठ मास के शुक्लपक्ष में जो एकादशी पड़ती हो, कृपया उसका वर्णन कीजिये ।*https://astronorway.blogspot.com/
 
🙏🏻 *भगवान श्रीकृष्ण बोले : राजन् ! इसका वर्णन परम धर्मात्मा सत्यवतीनन्दन व्यासजी करेंगे, क्योंकि ये सम्पूर्ण शास्त्रों के तत्त्वज्ञ और वेद वेदांगों के पारंगत विद्वान हैं ।*https://astronorway.blogspot.com/
 
🙏🏻 *तब वेदव्यासजी कहने लगे : दोनों ही पक्षों की एकादशियों के दिन भोजन न करे । द्वादशी के दिन स्नान आदि से पवित्र हो फूलों से भगवान केशव की पूजा करे । फिर नित्य कर्म समाप्त होने के पश्चात् पहले ब्राह्मणों को भोजन देकर अन्त में स्वयं भोजन करे । राजन् ! जननाशौच और मरणाशौच में भी एकादशी को भोजन नहीं करना चाहिए ।* https://astronorway.blogspot.com/
 
🙏🏻 *यह सुनकर भीमसेन बोले : परम बुद्धिमान पितामह ! मेरी उत्तम बात सुनिये । राजा युधिष्ठिर, माता कुन्ती, द्रौपदी, अर्जुन, नकुल और सहदेव ये एकादशी को कभी भोजन नहीं करते तथा मुझसे भी हमेशा यही कहते हैं कि : ‘भीमसेन ! तुम भी एकादशी को न खाया करो…’ किन्तु मैं उन लोगों से यही कहता हूँ कि मुझसे भूख नहीं सही जायेगी ।*https://astronorway.blogspot.com/
 
🙏🏻 *भीमसेन की बात सुनकर व्यासजी ने कहा : यदि तुम्हें स्वर्गलोक की प्राप्ति अभीष्ट है और नरक को दूषित समझते हो तो दोनों पक्षों की एकादशीयों के दिन भोजन न करना ।*https://astronorway.blogspot.com/
 
🙏🏻 *भीमसेन बोले : महाबुद्धिमान पितामह ! मैं आपके सामने सच्ची बात कहता हूँ । एक बार भोजन करके भी मुझसे व्रत नहीं किया जा सकता, फिर उपवास करके तो मैं रह ही कैसे सकता हूँ? मेरे उदर में वृक नामक अग्नि सदा प्रज्वलित रहती है, अत: जब मैं बहुत अधिक खाता हूँ, तभी यह शांत होती है । इसलिए महामुने ! मैं वर्षभर में केवल एक ही उपवास कर सकता हूँ । जिससे स्वर्ग की प्राप्ति सुलभ हो तथा जिसके करने से मैं कल्याण का भागी हो सकूँ, ऐसा कोई एक व्रत निश्चय करके बताइये । मैं उसका यथोचित रुप से पालन करुँगा ।*
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🙏🏻 *व्यासजी ने कहा : भीम ! ज्येष्ठ मास में सूर्य वृष राशि पर हो या मिथुन राशि पर, शुक्लपक्ष में जो एकादशी हो, उसका यत्नपूर्वक निर्जल व्रत करो । केवल कुल्ला या आचमन करने के लिए मुख में जल डाल सकते हो, उसको छोड़कर किसी प्रकार का जल विद्वान पुरुष मुख में न डाले, अन्यथा व्रत भंग हो जाता है । एकादशी को सूर्यौदय से लेकर दूसरे दिन के सूर्यौदय तक मनुष्य जल का त्याग करे तो यह व्रत पूर्ण होता है । तदनन्तर द्वादशी को प्रभातकाल में स्नान करके ब्राह्मणों को विधिपूर्वक जल और सुवर्ण का दान करे । इस प्रकार सब कार्य पूरा करके जितेन्द्रिय पुरुष ब्राह्मणों के साथ भोजन करे । वर्षभर में जितनी एकादशीयाँ होती हैं, उन सबका फल निर्जला एकादशी के सेवन से मनुष्य प्राप्त कर लेता है, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है । शंख, चक्र और गदा धारण करनेवाले भगवान केशव ने मुझसे कहा था कि: ‘यदि मानव सबको छोड़कर एकमात्र मेरी शरण में आ जाय और एकादशी को निराहार रहे तो वह सब पापों से छूट जाता है ।’*https://astronorway.blogspot.com/
 
🙏🏻 *एकादशी व्रत करनेवाले पुरुष के पास विशालकाय, विकराल आकृति और काले रंगवाले दण्ड पाशधारी भयंकर यमदूत नहीं जाते । अंतकाल में पीताम्बरधारी, सौम्य स्वभाववाले, हाथ में सुदर्शन धारण करनेवाले और मन के समान वेगशाली विष्णुदूत आखिर इस वैष्णव पुरुष को भगवान विष्णु के धाम में ले जाते हैं । अत: निर्जला एकादशी को पूर्ण यत्न करके उपवास और श्रीहरि का पूजन करो । स्त्री हो या पुरुष, यदि उसने मेरु पर्वत के बराबर भी महान पाप किया हो तो वह सब इस एकादशी व्रत के प्रभाव से भस्म हो जाता है । जो मनुष्य उस दिन जल के नियम का पालन करता है, वह पुण्य का भागी होता है । उसे एक एक प्रहर में कोटि कोटि स्वर्णमुद्रा दान करने का फल प्राप्त होता सुना गया है । मनुष्य निर्जला एकादशी के दिन स्नान, दान, जप, होम आदि जो कुछ भी करता है, वह सब अक्षय होता है, यह भगवान श्रीकृष्ण का कथन है । निर्जला एकादशी को विधिपूर्वक उत्तम रीति से उपवास करके मानव वैष्णवपद को प्राप्त कर लेता है । जो मनुष्य एकादशी के दिन अन्न खाता है, वह पाप का भोजन करता है । इस लोक में वह चाण्डाल के समान है और मरने पर दुर्गति को प्राप्त होता है ।*https://astronorway.blogspot.com/
 
🙏🏻 *जो ज्येष्ठ के शुक्लपक्ष में एकादशी को उपवास करके दान करेंगे, वे परम पद को प्राप्त होंगे । जिन्होंने एकादशी को उपवास किया है, वे ब्रह्महत्यारे, शराबी, चोर तथा गुरुद्रोही होने पर भी सब पातकों से मुक्त हो जाते हैं ।*https://astronorway.blogspot.com/
 
🙏🏻 *कुन्तीनन्दन ! ‘निर्जला एकादशी’ के दिन श्रद्धालु स्त्री पुरुषों के लिए जो विशेष दान और कर्त्तव्य विहित हैं, उन्हें सुनो: उस दिन जल में शयन करनेवाले भगवान विष्णु का पूजन और जलमयी धेनु का दान करना चाहिए अथवा प्रत्यक्ष धेनु या घृतमयी धेनु का दान उचित है । पर्याप्त दक्षिणा और भाँति भाँति के मिष्ठान्नों द्वारा यत्नपूर्वक ब्राह्मणों को सन्तुष्ट करना चाहिए । ऐसा करने से ब्राह्मण अवश्य संतुष्ट होते हैं और उनके संतुष्ट होने पर श्रीहरि मोक्ष प्रदान करते हैं । जिन्होंने शम, दम, और दान में प्रवृत हो श्रीहरि की पूजा और रात्रि में जागरण करते हुए इस ‘निर्जला एकादशी’ का व्रत किया है, उन्होंने अपने साथ ही बीती हुई सौ पीढ़ियों को और आनेवाली सौ पीढ़ियों को भगवान वासुदेव के परम धाम में पहुँचा दिया है । निर्जला एकादशी के दिन अन्न, वस्त्र, गौ, जल, शैय्या, सुन्दर आसन, कमण्डलु तथा छाता दान करने चाहिए । जो श्रेष्ठ तथा सुपात्र ब्राह्मण को जूता दान करता है, वह सोने के विमान पर बैठकर स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित होता है । जो इस एकादशी की महिमा को भक्तिपूर्वक सुनता अथवा उसका वर्णन करता है, वह स्वर्गलोक में जाता है । चतुर्दशीयुक्त अमावस्या को सूर्यग्रहण के समय श्राद्ध करके मनुष्य जिस फल को प्राप्त करता है, वही फल इसके श्रवण से भी प्राप्त होता है । पहले दन्तधावन करके यह नियम लेना चाहिए कि : ‘मैं भगवान केशव की प्रसन्न्ता के लिए एकादशी को निराहार रहकर आचमन के सिवा दूसरे जल का भी त्याग करुँगा ।’ द्वादशी को देवेश्वर भगवान https://astronorway.blogspot.com/विष्णु का पूजन करना चाहिए । गन्ध, धूप, पुष्प और सुन्दर वस्त्र से विधिपूर्वक पूजन करके जल के घड़े के दान का संकल्प करते हुए निम्नांकित मंत्र का उच्चारण करे :*https://astronorway.blogspot.com/
 
🌷 *देवदेव ह्रषीकेश संसारार्णवतारक ।*
*उदकुम्भप्रदानेन नय मां परमां गतिम्॥*
 
🙏🏻 *‘संसारसागर से तारनेवाले हे देवदेव ह्रषीकेश ! इस जल के घड़े का दान करने से आप मुझे परम गति की प्राप्ति कराइये ।’*
 
🙏🏻 *भीमसेन ! ज्येष्ठ मास में शुक्लपक्ष की जो शुभ एकादशी होती है, उसका निर्जल व्रत करना चाहिए । उस दिन श्रेष्ठ ब्राह्मणों को शक्कर के साथ जल के घड़े दान करने चाहिए । ऐसा करने से मनुष्य भगवान विष्णु के समीप पहुँचकर आनन्द का अनुभव करता है । तत्पश्चात् द्वादशी को ब्राह्मण भोजन कराने के बाद स्वयं भोजन करे । जो इस प्रकार पूर्ण रुप से पापनाशिनी एकादशी का व्रत करता है, वह सब पापों से मुक्त हो आनंदमय पद को प्राप्त होता है ।*
 
🙏🏻 *यह सुनकर भीमसेन ने भी इस शुभ एकादशी का व्रत आरम्भ कर दिया । तबसे यह लोक मे ‘पाण्डव द्वादशी’ के नाम से विख्यात हुई ।*
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Saturday, June 4, 2022

श्री राम चरित मानस की इन आठ चौपाइयों का रोज पाठ करें घर मे कभी गरीबी नही आयेगी!https://astronorway.blogspot.com/
महालक्ष्मी मन्त्र तांत्रिकी प्रयोग
विशेष धन प्राप्ति के लिए
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51 दिन इस मन्त्र का जाप करने से मन को शांति मिलती है और धन के मार्ग खुलते है
यह मन्त्र स्कंदपुराण से लिया है।इस मंत्र के रचयिता महर्षि मार्केंडेय ने महामृत्युंजय मंत्र सहिंता में लिखा है कि इस मन्त्र के जाप से कभी धन की कमी नहीं होती। वास्तविक में यह मन्त्र नहीं महालक्ष्मी जी का स्तोत्र का भाग है .
मंगलवार, शुक्रवार को इस मंत्र की माला अन्य दिनों से दुगुनी करें। रविवार को दिन में 11.53 से 12. 44 के बीच भी एक माला जरूर करें। जबरदस्त परिवर्तन देखने को मिलेंगे .
विधि ;https://astronorway.blogspot.com/
१.एक नीबू के दो भाग करके उसका रस निकालें और नीबू का चिकना हिस्सा अंदर करके उन दोनों नीबू में देशी घी के दो दीपक जलाकर मन्त्र जपना शुरू करें।
२.मन्त्र अपनी नाभि पर ध्यान करके जाप करे
३. 1 या 3 सफेद पुष्प देवी व शिवलिंग पर चढ़ाएं।
४.जो लोग शेयर-सट्टा, आदि में भाग्य आजमाते हैं, उनके लिए यह अदभुत लाभ देगा।
५. देश में पड़े अनेकों पुराने जीर्ण-शीर्ण शिवालयों का जीर्णोद्धार करवाएं।https://astronorway.blogspot.com/
६.गरीब कन्याओं के अध्ययन में मदद करें। उनकी शादी करवाएं।https://astronorway.blogspot.com/
७.नन्दी, बैल, श्वान को खाना, फल आदि खिलाएं।
८.हर महीने की मास शिवरात्रि को किसी शिवलिंग का रुद्राभिषेक कराएं।https://astronorway.blogspot.com/
इस महालक्ष्मी मन्त्र की जितनी ज्यादा माला करेंगे उतना अधिक लाभकारी रहेगा। बस एक बार रोज नीबू में दीपक जलाकर मन्त्र को प्रतिदिन जागृत करके, फिर जपें . आप चाहे तो निचे दिए स्तोत्र को भी पढ़ सकते है .
नोट ; कर्म ही सफलता की कुंजी है .
नमस्तेस्तु महामाये श्री पीठे सुर पूजिते !
शंख चक्र गदा हस्ते महालक्ष्मी नमोस्तुते !!
नमस्तेतु गरुदारुढै कोलासुर भयंकरी !
सर्वपाप हरे देवी महालक्ष्मी नमोस्तुते !!
सर्वज्ञे सर्व वरदे सर्व दुष्ट भयंकरी !
सर्वदुख हरे देवी महालक्ष्मी नमोस्तुते !!
सिद्धि बुद्धि प्रदे देवी भक्ति मुक्ति प्रदायनी !
मंत्र मुर्ते सदा देवी महालक्ष्मी नमोस्तुते !!
आध्यंतरहीते देवी आद्य शक्ति महेश्वरी !
योगजे योग सम्भुते महालक्ष्मी नमोस्तुते !!
स्थूल सुक्ष्मे महारोद्रे महाशक्ति महोदरे !
महापाप हरे देवी महालक्ष्मी नमोस्तुते !!
पद्मासन स्थिते देवी परब्रह्म स्वरूपिणी !
परमेशी जगत माता महालक्ष्मी नमोस्तुते !!
श्वेताम्भर धरे देवी नानालन्कार भुषिते !
जगत स्थिते जगंमाते महालक्ष्मी नमोस्तुते!!
महालक्ष्मी अष्टक स्तोत्रं य: पठेत भक्तिमान्नर:!
सर्वसिद्धि मवाप्नोती राज्यम् प्राप्नोति सर्वदा !!
एक कालम पठेनित्यम महापापविनाशनम !
द्विकालम य: पठेनित्यम धनधान्यम समन्वित: !!
त्रिकालम य: पठेनित्यम महाशत्रुविनाषम !
महालक्ष्मी भवेनित्यम प्रसंनाम वरदाम शुभाम !!
हर हर महादेव ...............................

Wednesday, June 1, 2022

🙏गंगा जी में ही अस्थियां विसर्जित क्यों की जाती हैं ?https://astronorway.blogspot.com/

पतित पावनी गंगा को देव नदी कहा जाता है क्योंकि शास्त्रों के अनुसार गंगा स्वर्ग से धरती पर आई है। 
गंगा श्री हरि विष्णु के चरणों से निकली है और भगवान शिव की जटाओं में आकर बसी है।https://astronorway.blogspot.com/

श्री हरि और भगवान शिव से घनिष्ठ संबंध होने पर गंगा को पतित पावनी कहा जाता है। मान्यता है कि गंगा में स्नान करने से मनुष्य के सभी पापों का नाश हो जाता है।https://astronorway.blogspot.com/

एक दिन देवी गंगा श्री हरि से मिलने बैकुण्ठ धाम गई और उन्हें जाकर बोली," प्रभु ! मेरे जल में स्नान करने से सभी के पाप नष्ट हो जाते हैं लेकिन मैं इतने पापों का बोझ कैसे उठाऊंगी ? मेरे में जो पाप समाएंगे उन्हें कैसे समाप्त करूंगी ?"
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इस पर श्री हरि बोले, "गंगा! जब साधु, संत, वैष्णव आ कर आप में स्नान करेंगे तो आप के सभी पाप घुल जाएंगे।"

गंगा नदी इतनी पवित्र है की प्रत्येक हिंदू की अंतिम इच्छा होती है उसकी अस्थियों का विसर्जन गंगा में ही किया जाए लेकिन यह अस्थियां जाती कहां हैं ?https://astronorway.blogspot.com/

इसका उत्तर तो वैज्ञानिक भी नहीं दे पाए क्योंकि असंख्य मात्रा में अस्थियों का विसर्जन करने के बाद भी गंगा जल पवित्र एवं पावन है। गंगा सागर तक खोज करने के बाद भी इस प्रश्न का पार नहीं पाया जा सका।https://astronorway.blogspot.com/

सनातन धर्म की मान्यता के अनुसार मृत्यु के बाद आत्मा की शांति के लिए मृत व्यक्ति की अस्थि को गंगा में विसर्जन करना उत्तम माना गया है। यह अस्थियां सीधे श्री हरि के चरणों में बैकुण्ठ जाती हैं।https://astronorway.blogspot.com/

जिस व्यक्ति का अंत समय गंगा के समीप आता है उसे मरणोपरांत मुक्ति मिलती है। इन बातों से गंगा के प्रति हिन्दूओं की आस्था तो स्वभाविक है।
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वैज्ञानिक दृष्टि से गंगा जल में पारा अर्थात (मर्करी) विद्यमान होता है जिससे हड्डियों में कैल्शियम और फोस्फोरस पानी में घुल जाता है। जो जलजन्तुओं के लिए एक पौष्टिक आहार है। वैज्ञानिक दृष्टि से हड्डियों में गंधक (सल्फर) विद्यमान होता है जो पारे के साथ मिलकर पारद का निर्माण होता है। इसके साथ-साथ यह दोनों मिलकर मरकरी सल्फाइड साल्ट का निर्माण करते हैं। हड्डियों में बचा शेष कैल्शियम, पानी को स्वच्छ रखने का काम करता है। धार्मिक दृष्टि से पारद शिव का प्रतीक है और गंधक शक्ति का प्रतीक है। सभी जीव अंततःशिव और शक्ति में ही विलीन हो जाते हैं।...।https://astronorway.blogspot.com/

🙏गंगा मैया की जय 🙏