Tuesday, May 31, 2022

ज्योतिष शास्त्र कहता है कि अगर कुंडली में किसी भाव में मंगल और शनि की युति हो रही है तो यह जातक के लिए काफी जानलेवा साबित होती है। ऐसी स्थिति में जातक के साथ बार बार हादसे होते हैं और काफी खून बहता है। 

दरअसल मंगल और शनि आपस में शत्रु हैं और इनका एक ही भाव में साथ युति करना किसी भी जातक के स्वास्थ्य के लिए खतरनाक ही होता है। https://astronorway.blogspot.com/

मंगल औऱ शनि यह युति जीवन में बहुत ही नकारात्मक प्रभाव लेकर आती है। जिस कुंडली में शनि और मंगल की युति होती है वहां करियर और बिजनेस को सैट होने में दिक्कतें आती हैं।https://astronorway.blogspot.com/

शनि मंगल की युति यदि कुंडली के छठे या आठवें भाव में हो रही हो तो सेहत पर भारी पड़ता है। शनि मंगल का योग खास तौर से पेट से जुड़े मामलों की समस्या, जॉइंट्स पेन और सड़क हादसे जैसी परेशानियां होने लगती हैं।https://astronorway.blogspot.com/

मंगल औऱ शनि की युति पहले, चौथे, सातवें आठवें या 12वें भान में होने पर मंगल दोष को अधिक अमंगलकारी बनाता है, जिसके फलस्वरूप जातक के जीवन में विवाह संबंधी कठिनाइयां आती हैं।

अगर पहले यानी लग्न भाव में शनि-मंगल की युति हो रही हो तो जातक गलत फैसले करने वाला, भ्रम का शिकार, अहंकारी बन जाता है।https://astronorway.blogspot.com/

उपाय - 

ज्योतिष मंगल के अशुभ फल कम करने के लिए रक्तदान करने की सलाह देते हैं।
 इसके अलावा शनि और मंगल से जुड़ी वस्तुओं का दान करने की सलाह दी जाती है।https://astronorway.blogspot.com/
शनि और मंगल के मंत्रों का जाप स्वयं करना चाहिए। अगर समझ ना आए तो ब्राह्मण से करवा सकते हैं।
शनिदोष दूर करने के लिए शनिवार के दिन शनिदेव को सरसों का तेल अभिषेक करें और पीपल के नीचे दीप जलाएं।https://astronorway.blogspot.com/
#ब्रह्मकमल उत्तराखंड राज्य का पुष्प है। केदार नाथ से 2 किलोमीटर ऊपर वासुकी ताल के समीप तथा ब्रह्मकमल नामक तीर्थ पर ब्रह्मकमल सर्वाधिक उत्पन्न होता है। इसके अतिरिक्त फूलों की घाटी एवं पिंडारी ग्लेशियर रूपकुंड, हेमकुंड, ब्रजगंगा, फूलों की घाटी में यह पुष्प बहुतायत पाया जाता है इस पुष्प का वर्णन वेदों में भी मिलता है।

#ब्रह्मकमल पुष्प की कोई जड़ नहीं होती यह पत्तो से ही पनपता है यानी इसके पत्तों को बोया जाता है। इसे अधिक पानी और गर्मी से बचाना जरूरी है। भारत में Epiphyllum oxypetalum ब्रह्म कमल तथा उत्तराखंड में इसे कौल पद्म नाम से जानते हैं। जिसमें ब्रह्मकमल का सर्वोच्च स्थान है। यह एक ऐसा फूल है जिसकी महालक्ष्मी वृद्धि के लिए पूजा की जाती है। शेष पुष्पों से भगवान की पूजा करते हैं।

#ब्रह्मकमल पुष्प रात्रि में 9 बजे से 12.30 के बीच ही खिलता है। इसे खिलते हुए देखना बहुत सौभाग्य सूचक होता है। इसके दर्शन से अनेक परेशानियों से निजात मिलती है।

#ब्रह्मकमल साल में केवल एक महीने सितंबर में ही पुष्प देता है। वो भी एक तने से एक पुष्प।

महाभारत के वन पर्व में इसे सौगंधिक पुष्प कहा गया है। पौराणिक मान्यता के अनुसार भगवान विष्णुजी ने केदारनाथ ज्योतिर्लिंग पर 1008 शिव नामों से 1008 ब्रह्मकमल पुष्पों से शिवार्चन किया और वे, कमलनयन कहलाये। यही इन्हें सुदर्शन चक्र वरदान स्वरूप प्राप्त हुआ था। केदारनाथ शिवलिंग को अर्पित कर प्रसाद के रूप में दर्शनार्थियों को बांटा जाता है।

ब्रह्म कमल, फैनकमल कस्तूरा कमल के पुष्प बैगनी रंग के होते हैं। भावप्रकाश निघण्टु नामक आयुर्वेद की एक बहुत ही पुरानी किताब में संस्कृत के एक श्लोक में कमलपुष्प का वर्णन है-

"वा पुंसि पद्म नलीनमरविन्दं महोत्पलम्।
सहस्त्रपत्रं कमलं शतपत्रं कुशेश्यम्।।
पक्केरुहं तामरसं सारसं सरसी रुहम्।
बिसप्रसूनराजीवपुष्कराम्भो रुहाणी च।।
कमलं शीतलं वर्णयं मधुरं कफपित्तजित्"

अर्थात- कमलपुष्प, पुरहन पद्म, नलिन, अरविंद, महोत्पल, सहस्त्र पत्र, कमल, शतपत्रं, कुशेषय, पक्केरुह, तामरस, सरस, सरसीरुह, विसप्रसून, राजीव, पुष्कर और अम्भोरूह ये सब वैदिक संस्कृत नाम हैं।
हनुमान जी कौन हैं ?
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पार्वती जी ने शंकर जी से कहा - भगवन अपने इस भक्त को कैलाश आने से रोक दीजिए, वरना किसी दिन मैं इसे अग्नि में भस्म कर दूंगी। 

यह जब भी आता है, मैं बहुत असहज हो जाती हूँ। यह बात मुझे बिल्कुल भी पसंद नहीं है। आप इसे समझा दीजिए, यह कैलाश में प्रवेश न करें। https://astronorway.blogspot.com/

शिव जी जानते थे कि पार्वती सिर्फ उनके वरदान की मर्यादा रखने के लिए रावण को कुछ नहीं कहती हैं। 

वह चुपचाप उठकर बाहर आकर देखते हैं। रावण नंदी को परेशान कर रहा है।https://astronorway.blogspot.com/

शिव जी को देखते ही वह हाथ जोड़कर प्रणाम करता है। प्रणाम महादेव।

आओ दशानन कैसे आना हुआ ?  

मैं तो बस आप के दर्शन करने के लिए आ गया था महादेव। 

अखिर महादेव ने उसे समझाना शुरू किया। देखो रावण तुम्हारा यहां आना पार्वती को बिल्कुल भी पसंद नहीं है। इसलिए तुम यहां मत आया करो।https://astronorway.blogspot.com/

महादेव यह आप कह रहे हैं। आप ही ने तो मुझे किसी भी समय आप के दर्शन के लिए कैलाश पर्वत पर आने का वरदान दिया है। 

और अब आप ही अपने वरदान को वापस ले रहे हैं। ऐसी बात नहीं है रावण। 

लेकिन तुम्हारे क्रिया कलापों से पार्वती परेशान रहती है और किसी दिन उसने तुम्हें श्राप दे दिया तो मैं भी कुछ नहीं कर पाऊंगा। इसलिए बेहतर यही है कि तुम यहां पर न आओ।
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फिर आप का वरदान तो मिथ्या हो गया महादेव। 

मैं तुम्हें आज एक और वरदान देता हूं। तुम जब भी मुझे याद करोगे। मैं स्वयं ही तुम्हारे पास आ जाऊंगा। लेकिन तुम अब किसी भी परिस्थिति में कैलाश पर्वत पर मत आना।

अब तुम यहां से जाओ, पार्वती तुमसे बहुत रुष्ट है। रावण चला जाता है।

समय बदलता है हनुमानजी रावण की स्वर्ण नगरी लंका को जला कर राख करके चले जाते हैं। और रावण उनका कुछ नहीं कर सकता है।

वह सोचते-सोचते परेशान हो जाता है कि आखिर उस हनुमान में इतनी शक्ति आई कहां से। https://astronorway.blogspot.com/

परेशान हो कर वह महल में ही स्थित शिव मंदिर में जाकर शिवजी की प्रार्थना आरम्भ करता है।

*जटाटवीगलज्जल प्रवाहपावितस्थले।*
*गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजंगतुंगमालिकाम्‌।।*

उसकी प्रार्थना से शिव प्रसन्न होकर प्रकट होते हैं। रावण अभिभूत हो कर उनके चरणों में गिर पड़ता है। 

कहो दशानन कैसे हो ? शिवजी पूछते हैं।https://astronorway.blogspot.com/

आप अंतर्यामी हैं महादेव। सब कुछ जानते हैं प्रभु।

*एक अकेले बंदर ने मेरी लंका को और मेरे दर्प को भी जला कर राख कर दिया।* 

मैं जानना चाहता हूं कि यह बंदर *जिसका नाम हनुमान है आखिर कौन है ?* 

और प्रभु उसकी पूंछ तो और भी ज्यादा शक्तिशाली थी। किस तरह सहजता से मेरी लंका को जला दिया। मुझे बताइए कि यह हनुमान कौन है ?https://astronorway.blogspot.com/

शिव जी मुस्कुराते हुए रावण की बात सुनते रहते हैं। और फिर बताते हैं कि रावण *यह हनुमान और कोई नहीं मेरा ही रूद्र अवतार है।* 

विष्णु ने जब यह निश्चय किया कि वे पृथ्वी पर अवतार लेंगे और माता लक्ष्मी भी साथ ही अवतरित होंगी। तो मेरी इच्छा हुई कि मैं भी उनकी लीलाओं का साक्षी बनूं। 

और जब मैंने अपना यह निश्चय पार्वती को बताया तो वह हठ कर बैठी कि मैं भी साथ ही रहूंगी। लेकिन यह समझ नहीं आया कि उसे इस लीला में किस तरह भागीदार बनाया जाए। 

तब सभी देवताओं ने मिलकर मुझे यह मार्ग बताया। आप तो बंदर बन जाइये और शक्ति स्वरूपा पार्वती देवी आपकी पूंछ के रूप में आपके साथ रहे, तभी आप दोनों साथ रह सकते हैं। 

और उसी अनुरूप मैंने हनुमान के रूप में जन्म लेकर राम जी की सेवा का व्रत रख लिया और शक्ति रूपा पार्वती ने पूंछ के रूप में और उसी सेवा के फल स्वरूप तुम्हारी लंका का दहन किया।https://astronorway.blogspot.com/

अब सुनो रावण! तुम्हारे उद्धार का समय आ गया है। अतः श्री राम के हाथों तुम्हारा उद्धार होगा। मेरा परामर्श है कि तुम युद्ध के लिए सबसे अंत में प्रस्तुत होना। जिससे कि तुम्हारा समस्त राक्षस परिवार भगवान श्री राम के हाथों से मोक्ष को प्राप्त करें और तुम सभी का उद्धार हो जाए।

*रावण को सारी परिस्थिति का ज्ञान होता है और उस अनुरूप वह युद्ध की तैयारी करता है और अपने पूरे परिवार को राम जी के समक्ष युद्ध के लिए पहले भेजता है और सबसे अंत में स्वयं मोक्ष को प्राप्त होता है।

जय श्री सीता राम❤️🙏https://astronorway.blogspot.com/
जय हनुमानजी 🙏🙏
भगवान कल्कि का अवतार कब, कहाँ, क्यों और कौन होंगे माता-पिता??????
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धार्मिक एवं पौराणिक मान्यता के अनुसार जब पृथ्वी पर पाप बहुत अधिक बढ़ जाएगा। तब दुष्टों के संहार के लिए विष्णु का यह अवतार यानी 'कल्कि अवतार' प्रकट होगा। कल्कि को विष्णु का भावी और अंतिम अवतार माना गया है। भगवान का यह अवतार निष्कलंक भगवान के नाम से भी जाना जायेगा। आपको ये जानकर आश्चर्य होगा की भगवान श्री कल्कि 64 कलाओं के पूर्ण निष्कलंक अवतार हैं। 
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भगवान श्री कल्कि की भक्ति इस समय एक ऐसे कवच के समान है जो हमारी हर प्रकार से रक्षा कर सकती है। भगवान श्री कल्कि की भक्ति व्यक्तिगत न होकर समष्टिगत है। जो भी व्यक्ति भगवान श्री कल्कि की भक्ति करता है, वह चाहता है कि भगवान शीघ्र अवतार धारण कर भूमि का भार हटाएं और दुष्टों का संहार करें।https://astronorway.blogspot.com/

कलियुग यानी कलह-क्लेश का युग, जिस युग में सभी के मन में असंतोष हो, सभी मानसिक रूप से दुखी हों, वह युग ही कलियुग है। हिंदू धर्म ग्रंथों में चार युग बताए गए हैं। सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलयुग। सतयुग में लोगों में छल, कपट और दंभ नहीं होता है।
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 त्रेतायुग में एक अंश अधर्म अपना पैर जमा लेता है। द्वापर युग में धर्म आधा ही रह जाता है। कलियुग के आने पर तीन अंशों से इस जगत पर अधर्म का आक्रमण हो जाता है। इस युग में धर्म का सिर्फ एक चैथाई अंश ही रह जाता है। सतयुग के बाद जैसे-जैसे दूसरा युग आता-जाता है। वैसे-वैसे मनुष्यों की आयु, वीर्य, बुद्धि, बल और तेज का ह्रास होता जाता है।

माना जाता है और जैसा वर्तमान में चल रहा है कि कलियुग के अंत में संसार की ऐसी दशा होगी। लोग मछली-मांस ही खाएँगे और भेड़ व बकरियों का दूध पिएँगे। गाय तो दिखना भी बंद हो जाएगी। सभी एक-दूसरे को लूटने में रहेंगे। व्रत-नियमों का पालन नहीं करेंगे। उसके विपरित वेदों की निंदा करेंगे। स्त्रियाँ कठोर स्वभाव वाली व कड़वा बोलने वाली होंगी। 
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वे पति की आज्ञा नहीं मानेंगी। अमावस्या के बिना ही सूर्य ग्रहण लगेगा। अपने देश छोड़कर दूसरे देश में रहना अच्छा माना जाएगा। व्याभिचार बढ़ेगा। उस समय मनुष्य की औसत आयु सोलह साल होगी। सात-आठ वर्ष की उम्र में पुरुष व स्त्री समागम करके संतान उत्पन करेंगे।

 पति व पत्नी अपनी स्त्री व पुरुष से संतुष्ट नहीं रहेंगे। मंदिर कहीं नहीं होंगे। युग के अंत में प्राणियोें का अभाव हो जाएगा। तारों की चमक बहुत कम हो जाएगी। पृथ्वी पर गर्मी बहुत बढ़ जाएगी। इसके बाद सतयुग का आरंभ होगा। उस समय काल की प्रेरणा से भगवान विष्णु का कल्कि अवतार होगा।
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यह अवतार दशावतार परम्परा में अन्तिम माना गया। शास्त्रों के अनुसार यह अवतार भविष्य में होने वाला है। कलियुग के अन्त में जब शासकों का अन्याय बढ़ जायेगा। चारों तरफ पाप बढ़ जायेंगे तथा अत्याचार का बोलबाला होगा तक इस जगत् का कल्याण करने के लिए भगवान् विष्णु कल्कि के रूप में अवतार लेंगे।

 कल्कि अवतार का वर्णन कई पुराणों में हुआ है परन्तु इसे सर्वाधिक विस्तार कल्कि उपपुराण मे मिला है, उसमें यह कथा उन्नीस अध्यायों में वर्णित है।https://astronorway.blogspot.com/

अभी तो कलियुग का प्रथम चरण है। कलि के पाँच सहस्र से कुछ अधिक समय बीता है। इस समय मानव जाति का मानसिक एवं नैतिक पतन हो गया है लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता जायेगा वैसे-वैसे धर्म की हानि होगी। 

सत्य, पवित्रता, क्षमा, दया, आयु, बल और स्मरण शक्ति सबका लोप होता जायेगा। अर्थहीन व्यक्ति असाधु माने जायेंगे। राजा दुष्ट, लोभी, निष्ठुर होंगे, उनमें व लुटेरों में कोई अन्तर नहीं होगा। प्रजा वनों व पर्वतों में छिपकर अपना जीवन बितायेगी। समय पर बारिश नहीं होगी, वृक्ष फल नहीं देंगे।https://astronorway.blogspot.com/

कलि के प्रभाव से प्राणियों के शरीर छोटे-छोटे, क्षीण और रोगग्रस्त होने लगेंगे। मनुष्यों का स्वभाव गधों जैसा दुस्सह, केवल गृहस्थी का भार ढोने वाला रह जायेगा। लोेग विषयी हो जायेंगे। धर्म-कर्म का लोप हो जायेगा। मनुष्य जपरहित नास्तिक व चोर हो जायेंगे।https://astronorway.blogspot.com/

पुत्रः पितृवधं कृत्वा पिता पुत्रवधं तथा।
निरुद्वेगो वृहद्वादी न निन्दामुपलप्स्यते।।
म्लेच्छीभूतं जगत सर्व भविष्यति न संशयः।
हस्तो हस्तं परिमुषेद् युगान्ते समुपस्थिते।।

पुत्र, पिता का और पिता पुत्र का वध करके भी उद्विग्न नहीं होंगे। अपनी प्रशंसा के लिए लोग बड़ी-बड़ी बातें बनायेंगे किन्तु समाज में उनकी निन्दा नहीं होगी। 

 उस समय सारा जगत् म्लेच्छ हो जायेगा-इसमें संशयम नहीं। एक हाथ दूसरे हाथ को लूटेगा। सगा भाई भी भाई के धन को हड़प लेगा। अधर्म फैल जायेगा, पत्नियाँ अपने पति की बात नहीं मानेंगी। मांगने पर भी पतियों को अन्न, जल नहीं मिलेगा। चारों तरफ पाप फैल जायेगा। उस समय सम्भल ग्राम में विष्णुयशा नामक एक अत्यन्त पवित्र, सदाचारी एवं श्रेष्ठ ब्राह्मण अत्यन्त अनुरागी भक्त होंगे।https://astronorway.blogspot.com/

 वे सरल एवं उदार होंगे। उन्हीं अत्यन्त भाग्यशाली ब्राह्मण विष्णुयशा के यहाँ समस्त सद्गुणों के एकमात्र आश्रय निलिख सृष्टि के सजर्क, पालक एवं संहारक परब्रह्म परमेश्वर भगवान् कल्कि के रूप में अवतरित होंगे। वे महान् बुद्धि एवं पराक्रम से सम्पन्न महात्मा, सदाचारी तथा सम्पूर्ण प्रजा के शुभैषी होंगे।

मनसा तस्य सर्वाणिक वाहनान्यायुधानि च।।
उपस्थास्यन्ति योधाश्च शस्त्राणि कवचानि च।
स धर्मविजयीराजा चक्रवर्ती भविष्यति।।
स चेमं सकुलं लोकं प्रसादमुपनेश्यति।
उत्थितो ब्राह्मणों दीप्तःक्षयान्तकृतदुदारधीः।।

चिन्तन करते ही उनके पास इच्छानुसार वाहन, अस्त्र-शस्त्र, योद्धा और कवच उपस्थित जायेंगे। वह धर्मविजयी चक्रवर्ती राजा होगा। वह उदारबुद्धि, तेजस्वी ब्राह्मण दुःख से व्याप्त हुए इस जगत् को आनन्द प्रदान करेगा। कलियुग का अन्त करने के लिए उनका प्रादुर्भाव होगा।

भगवान् शंकर स्वयं उनको शस्त्रास्त्र की शिक्षा देंगे और भगवान् परशुराम उनके वेदोपदेष्टा होंगे। वे देवदत्त नामक शीघ्रागमी अश्व पर आरुढ़ होकर राजा के वेश में छिपकर रहने वाले पृथ्वी पर सर्वत्र फैल हुए दस्युओं एवं नीच स्वभाव वाले सम्पूर्ण म्लेच्छों का संहार करेंगे।  

कल्कि भगवान् के करकमलों सभी दस्युओं का नाश हो जायेगा फिर धर्म का उत्थान होगा। उनका यश तथा कर्म सभी परम पावन होंगे। वे ब्रह्मा जी की चलायी हुई मंगलमयी मर्यादाओं की स्थापना करके रमणीय वन में प्रवेश करेंगे।

इस प्रकार सर्वभूतात्मा सर्वेश्वर भगवान् कल्कि के अवतरित होने पर पृथ्वी पर पुनः सत्ययुग प्रतिष्ठित होगा।

कहाँ होगा भगवान कल्कि का जन्म?

कल्कि भगवान उत्तर प्रदेश में गंगा और रामगंगा के बीच बसे मुरादाबाद के सम्भल ग्राम में जन्म लेंगे। भगवान के जन्म के समय चन्द्रमा धनिष्ठा नक्षत्रा और कुंभ राशि में होगा। सूर्य तुला राशि में स्वाति नक्षत्रा में गोचर करेगा। गुरु स्वराशि धनु में और शनि अपनी उच्च राशि तुला में विराजमान होगा। 

वह ब्राह्मण कुमार बहुत ही बलवान, बुद्धिमान और पराक्रमी होगा। मन में सोचते ही उनके पास वाहन, अस्त्र-शस्त्र, योद्धा और कवच उपस्थित हो जाएँंगे। वे सब दुष्टों का नाश करेंगे, तब सतयुग शुरू होगा। वे धर्म के अनुसार विजय पाकर चक्रवर्ती राजा बनेंगे।
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कौन होंगे इनके माता-पिता?

अपने माता-पिता की पाँचवीं संतान होंगे। भगवान कल्कि के पिता का नाम विष्णुयश और माता का नाम सुमति होगा। पिता विष्णुयश का अर्थ हुआ, ऐसा व्यक्ति जो सर्वव्यापक परमात्मा की स्तुति करता लोकहितैषी है। सुमति का अर्थ है, अच्छे विचार रखने और वेद, पुराण और विद्याओं को जानने वाली महिला।

कल्कि निष्कलंक अवतार हैं। भगवान का स्वरूप (सगुण रूप) परम दिव्य है। दिव्य अर्थात दैवीय गुणों से सम्पन्न। वे सफेद घोड़े पर सवार हैं। भगवान का रंग गोरा है, लेकिन गुस्से में काला भी हो जाता है। वे पीले वस्त्रा धारण किए हैं। 

प्रभु के हृदय पर श्रीवत्स का चिन्ह अंकित है। गले में कौस्तुभ मणि है। स्वंय उनका मुख पूर्व की ओर है तथा अश्व दक्षिण में देखता प्रतीत होता है। यह चित्राण कल्कि की सक्रियता और गति की ओर संकेत करता है। युद्ध के समय उनके हाथों में दो तलवारें होती हैं। कल्कि को माना गया है। 

पृथ्वी पर पाप की सीमा पार होने लगेगी तब दुष्टों के संहार के लिए विष्णु का यह अवतार प्रकट होगा। भगवान का ये अवतार दिशा धारा में बदलाव का बहुत बड़ा प्रतीक होगा। मनीषियों ने कल्कि के इस स्वरूप की विवेचना में कहा है कि कल्कि सफेद रंग के घोड़े पर सवार हो कर आततायियों पर प्रहार करते हैं। 
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इसका अर्थ उनके आक्रमण में शांति (श्वेत रंग), शक्ति (अश्व) और परिष्कार (युद्ध) लगे हुए हैं। तलवार और धनुष को हथियारों के रूप में उपयोग करने का अर्थ है कि आसपास की और दूरगामी दोनों तरह की दुष्ट प्रवृत्तियों का निवारण करेगें अर्थात भगवान धरती पर से सारे पापों का नाश करेगें।

श्रीमद्भागवत के अभिन्न अंग भगवान श्री कल्कि क्यों? 

शुकदेव जी (वैशम्पायन, व्यास जी के पुत्र) पाण्डवों के एकमात्र वंशज अभिमन्यु पुत्र परीक्षित (विष्णुपुराण) को, जो उपदेश (कथा) सुना रहे थे वह अठारह (18) हजार श्लोकों का समावेश था। महाराज परीक्षित का सात-दिन में निधन हो जाने से उन सारे श्लोकों का उपदेश न हो पाया था। अतः बाद में मार्कण्डेय ऋशि के आग्रह पर शुकदेव जी ने पुण्याश्रम में उसे पूरा किया था। https://astronorway.blogspot.com/

सूत जी (व्यास जी के शिष्य हर्षण सूत के नाम से प्रसिद्ध हुए, जिनकी धारणा शक्ति से संहितायें दे दी) का कहना है कि वे भी वहाँ उपस्थित थे और पुण्यप्रद कथाओं को सुना था। सूत जी ने उन ऋषियों को, जो कथा सुनाई वही श्री कल्कि पुराण के नाम से प्रसिद्ध है।

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Monday, May 30, 2022

जाति-वर्ण जन्म से अथवा कर्म से ?
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दुःखजन्मप्रवृत्तिदोषमिथ्याज्ञानमुत्तरोत्तरापाये तदनन्तरापायादपवर्ग: (न्यायदर्शन)

मनुष्य के जन्म का मुख्य कारण है उसके पूर्व संस्कार और शेष संचित कर्म अज्ञानता के कारण दोष उत्पन्न होते हैं और दोष के कारण प्रवृत्ति बनती है। यही प्रवृत्ति जिस के कारण जन्म होता है। और सब दुःखों का कारण जन्म ही है। जब तक अज्ञानता दूर नहीं होगी यह जन्म-मरण का अनादि चक्र चलता ही रहेगा। अज्ञानता (अविद्या अंधकार) के हटने पर ही मुक्ति मिलती है। पूर्वजन्म के कर्म के आधार पर इस जन्म का वर्ण तय होता है। इस जन्म के कर्म के अनुसार आगे के जन्म में वर्ण निर्धारण ।
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विद्या तपश्च योनिश्च एतद् ब्राह्मणकारकम् । विद्यातपोभ्यां वो हीनो जातिब्राह्मण एव सः ॥

(पा. 51-115)
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विद्या, तप और ब्राह्मण-ब्राह्मणी से जन्म ये तीन बातें जिसमें पाई जाएँ वही पक्का ब्राह्मण है, पर जो विद्या तथा तप से शून्य है वह जातिमात्र के लिए ब्राह्मण है, पूज्य नहीं हो सकता । इसका आशय कैंयट ने इस प्रकार स्पष्ट कर दिया है।

योनिरिति ब्राह्मण्यां ब्राह्मणाज्जन्म। ब्राह्मणकारकमिति ब्राह्मणव्यपदेशस्य निमित्तामेतादित्यर्थः । तपः श्रुताभ्यामिति नासौ परिपूर्ण ब्राह्मण जातिलक्षणैकदेशश्रयस्तु तत्र ब्राह्मणशब्दप्रयोगः ।
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इसका तात्पर्य प्रथम ही कह चुके हैं। अतएव महाभाष्य के प्रारंभ में ही लिखा गया है कि ब्राह्मणेनाकारणो धर्मः

षडङ्गो वेदोऽध्ययो शेयश्च ।

यह न विचार कर कि वेदवेदांग के पढ़ने से हमें क्या मिलेगा किंतु अपना धर्म या कर्तव्य समझ कर यह समझ कर कि ब्राह्मण होने के नाते ही हम उनके पढ़ने को बाध्य हैं ब्राह्मण लोग छहों अंगों के सहित वेदों को पढ़े और उनका अर्थ जानें।

ब्राह्मण के बालक को जन्म से ही ब्राह्मण समझना चाहिए। श्रीमद्भागवत का कथन है जन्मना ब्राह्मणो गुरुः। संस्कारों से "दिज" संज्ञा होती है तथा विद्याध्ययन से "विन" नाम धारण करता है। स्मृतिकार अत्रि का कथन है - जन्मना ब्राह्मणो ज्ञेयः संस्कारैर्द्विज उच्यते विद्यया याति विप्रत्वम् श्रोत्रियस्त्रिभिरेव च ॥

पुनश्चhttps://astronorway.blogspot.com/

विशेष शिवपुराण में श्रीमत्रारायण प्रजापति दक्ष को चेतावनी देते हुए कहते हैं :

अपूज्या यत्र पूज्यन्ते, पूजनीयो न पूज्यते। त्रीणि तत्र भविष्यन्ति, दारिद्र्द्यं मरणं भयम् ॥

जहाँ पूजनीयों की पूजा नहीं होती, और अपूज्यों की पूजा होती है, वहाँ दरिद्रता, मृत्यु और उद्वेग आदि भय सदैव रहते हैं। पूज्य का अर्थ यहाँ सम्मानित होने से है। श्रीमद्भागवत में पापाचारी ब्राह्मण की अपेक्षा सदाचारी नारायण भक्त चांडाल की अधिक प्रशंसा की गई और कहा गया कि यदि कोई दुराचारी ब्राह्मण सदाचारी चांडाल को अवमानना करता है तो यह दण्डनीय है। चांडाल अपूज्य है, न कि अपमानित। जैसे पिता के लिए उसका पुत्र अपूज्य है, गुरु के लिए उसका शिष्य अपूज्य है, न कि अपमानित अपूज्य होने और अपमानित होने में बहुत भेद है। विद्याविनय सम्पन्न समदर्शी सबों को पूज्य नहीं मानता अपितु पूज्य के साथ पूज्यता का, और अपूज्य के साथ अपुज्यता के समानांतर भाव रखकर व्यवहार करता है।
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वर्ण और जाति अलग अलग नहीं हैं। जैसे आपका शरीर समाज का हिस्सा है और आपके आंख, कान आदि शरीर के अंग। उसमें भी कोशिका, पुतली, रोन आदि अंगों के भी उपांग है। वैसे ही सनातन समाज का हिस्सा वर्ण है और फिर उन वर्णों के अंग तदनुरूप जातियां हैं और जातियों में भी उपजातियां हैं। जैसे घर में अलग अलग कमरे, और कमरों में भी अलग अलग अलमारियों की व्यवस्था है और उनमें भी अलग अलह साँचे बने हैं, वैसे ही सगाज रूपी घर में वर्णरूपी कमरे और जातिरूपी अलमारियों की सांचे रूपी उपजातियां हैं। वर्ण समष्टि है और जाति व्यष्टि। कुछ लोग जाति शब्द को संस्कृत का न मानकर यवनों के 'अल-जात' शब्द से उसका सम्बन्ध जोड़ देते हैं, उनके भ्रम का निराकरण भी यहीं हो जाएगा। जन्म से ही ब्राह्मण सभी प्राणियों में श्रेष्ठ हैं। ब्राह्मण जन्म से ही महान् है और सभी प्राणियों के द्वारा पूजनीय है। ब्राह्मण जन्म से ही सभी मनुष्यों का गुरु है।

ब्राह्मणो जन्मना श्रेयान् सर्वेषां प्राणिनामिह ।https://astronorway.blogspot.com/

(श्रीमद्भागवत महापुराण)

जन्मनैव महाभागो ब्राह्मणो नाम जायते नमस्यः सर्वभूतानामतिथि: प्रसृताग्र भुक् ॥ (महाभारत)

बालयोरनयोर्नृणां जन्मना ब्राह्मणो गुरुः ।

(श्रीमद्भागवत महापुराण)

जन्मना जायते शूद्रः संस्काराद्विज उच्यते ॥

(स्कन्दपुराण)https://astronorway.blogspot.com/

यहाँ जन्म से शूद्र इसीलिए कहा क्योंकि असंस्कृत व्यक्ति की शूद्रवत् संज्ञा है। जैसे शुद्र को वेदाध्ययन का अधिकार नहीं, वैसे ही अनुपवती ब्राह्मण को भी नहीं। इसीलिए उसी स्कन्दपुराण में फिर कहा, ब्राह्मण जन्म से ही महान् है।
ब्राह्मणो हि महद्भुतं जन्मना सह जायते ॥ ब्रह्म को जानने वाला ब्राह्मण है, यह बात सत्य है लेकिन उससे पहले ब्राह्मण माता पिता और गुरु की भी आवश्यकता है। तब वह ब्रह्म को जान पाता है। यहां कॉलेज का सिलेबस खत्म कर नहीं पाने चले ब्रह्मज्ञान भांजने अपि च,

स्त्रीशूद्रवीजवधूनां न वेदश्रवणं स्मृतम् तेषामेवहितार्थाय पुराणानि कृतानि वै ॥

(आँशनस उपपुराण)
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प्रणवं वैदिकं चैव शूद्रे नोपदिशेच्छिवे । (परमानन्द तंत्र, त्रयोदश उल्लास)

शूद्राणां वेदमंत्रेषु नाधिकार: कदाचन । स्थाने वैदिकमंत्रस्य मूलमंत्रं विनिर्दिशेत् ॥

(योगिनी तंत्र)https://astronorway.blogspot.com/

स्त्री और शूद्र हेतु वेदश्रवण का निषेध इन प्रमाणों से मिलता है। इसीलिए उनके कल्याण के लिए पुराणों का प्रणयन किया गया। पुनः कहा जन्मना लब्धजातिस्तु (श्रीमद्देवीभागवत महापुराण) जाति की प्राप्ति जन्म से ही है।

जन्मना ब्राह्मणो ज्ञेयः

(पराशर उपपुराण, वैखानस कल्पसूत्र ) जन्मना चोत्तमोऽयं च सर्वार्चा ब्राह्मणोऽर्हति ॥

( भविष्य पुराण)https://astronorway.blogspot.com/

जन्मना ब्राह्मणो ज्ञेयः संस्कारर्द्विज उच्यते विद्यया याति विप्रत्वं त्रिभिः श्रोत्रियलक्षणम् ॥

(पद्मपुराण)

ब्राह्मण जन्म से ही उत्तम है, और सबों के द्वारा सम्माननीय है। जन्म से ब्राह्मण, संस्कार से द्विज, विद्या से विप्र और तीनों से श्रोत्रिय होता है। क्षत्रिय और वैश्य भी करोड़ों कल्पों तक तपस्या करके भी केवल तपस्या के दम पर ब्राह्मण नहीं बन सकते।

क्षत्रियो बाथ वैश्यो वा कल्पकोटिशतेन च ॥ तपसा ब्राह्मणत्वं च न प्राप्नोति श्रुती श्रुतम्

(श्रीमद्देवीभागवत महापुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण)https://astronorway.blogspot.com/

जो लोग विश्वामित्र का उदाहरण देते हैं, वो भी स्मरण रखें कि उन्होंने भी एक जन्म में ब्रह्मत्व प्राप्त नहीं किया। कई बार उनका शरीर बदला, पूरा शरीर नष्ट हो जाता तब केवल तेजरूप में बचते थे, ब्रह्मा जी नया शरीर देते थे। बीच में पक्षी की योनि भी मिली थी उन्हें, तब जाकर ब्राह्मण बने। उसमें भी उन्हें अनेक जन्मों में भी सफलता इसीलिए मिली क्योंकि उनका जन्म जिस चरु के कारण हुआ था वह ब्रह्मवक्तव्य । प्रेरित था। शुक्लयजुर्वेद की काण्व शाखा केशतपथब्राह्मण में है बृहदारण्यकोपनिषत् उसका वचन है :

ब्रह्म वा इदमग्र आसीदेकमेव सृजत क्षत्रं यान्येतानि स नैव व्यभवत्

स विशमसृजति स नैव व्यभवत्स शौद्रवर्णमसृजत् ।

अर्थात् सबसे पहले ब्राह्मण वर्ण ही था। उसने क्षत्रिय वर्णका सृजन किया। वह ब्राह्मण क्षत्रिय का सृजन करने के बाद भी अपनी वृद्धिमें सक्षम नहीं हुआ, तब उसने वैश्य वर्ण का सृजन किया। इसके अनन्तर (अर्थात् क्षत्रिय और वैश्यको रचनाके बाद भी वह ब्रह्म प्रवृद्ध न हो सका, तब उसने शूद्र वर्णकी रचना की। ये तो सिद्ध ही है सभी वर्ण भगवान् से उत्पन्न हुए अब इन वर्णों का विभाग सुनिए ! इन वर्णोंमें जन्म कैसे होता है इस विषय में भगवान् गीता में कहते हैं- गुणकर्मविभागशः अर्थात्, जन्मांतर में किये गए कर्मों और सञ्चित गुणोंके द्वारा विभाग करके ही भगवान् चारों वर्णोंमें जन्म देते हैं !https://astronorway.blogspot.com/

वर्णाश्रमाश्चस्वकर्मनिष्ठाः प्रेत्य कर्मफलमनुभूय ततः शेषेण विशिष्टदेशजातिकुलधर्मायु: श्रुतिवृत्तवित्तसुखमेधसो जन्म प्रतिपद्यन्ते ।

(स्मृतिसन्दर्भ)

अर्थात् अपने कर्मोंने तत्पर हुए वर्णाश्रमावलम्बी मरकर, परलोकमें कमका फल भोगकर बचे हुए कर्मफलके अनुसार श्रेष्ठ देश, काल, जाति, कुल, धर्म, आयु, विद्या, आवार, धन, सुख और मेधा आदिसे युक्त, जन्म ग्रहण करते हैं।

कारणं गुणसंगोस्य सदधोनिजन्मसु

(श्रीमद्भगवद्गीता)
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गुणोंमें जो आसक्ति है वही इस भोका पुरुष के अच्छी बुरी योनियों में जन्म लेने का कारण है। कुछ लोग जन्मना जायते शूद्रः .... ब्रह्म जानातीति ब्राह्मणः के आधार पर कहते हैं व्यक्ति जन्मतः शूद्र है। संस्कार से वह द्विज बन सकता है। वेदों के पठन-पाठन से विप्र हो सकता है। ब्रह्म को जानने वाला ब्राह्मण होता है। इसके आधार पर कहते हैं वर्ण कर्म के द्वारा कोई भी बदल सकता है। किन्तु इस श्लोक का ये अर्थ बिल्कुल भी नहीं है। जन्मना जायते शूद्रः से से नहीं हो जाता कि जन्म से सभी शूद्र हैं। इसका अर्थ है जना से सभी शूद्रवत् हैं अर्थात् वेद के अनधिकारी हैं किन्तु संस्कार होने से द्विज वेद का अधिकारी होता है।

ब्राह्मण सम्भवेनैव देवानामपि दैवतम् । प्रमाण चैव लोकस्य ब्रह्मात्रेव हि कारणम् ॥

(मनुस्मृति)https://astronorway.blogspot.com/

अर्थात्, जन्म से ही ब्राह्मण देवताओंका भी देवता होता है और लोक में उसका प्रमाण माना जाता है इसमें वेद ही कारण है। तपः श्रुतं च योनिश्चेत्येतद् ब्राह्मणककारणम् । (महाभाष्य) जो ब्राह्मण से ब्राह्मणी में उत्पन्न और उपनयनपूर्वक वेदाध्ययन, तप, विद्यादिसे युक्त होता है वहीं मुख्य ब्राह्मण होता है !मेरु तन्त्र और पराशर पुराण भी ब्रह्मक्षेत्रं ब्रह्मवीणं आदि श्लोकों से जन्मना महत्व का प्रतिपादन करते हैं।

तपः श्रुताभ्यां यो हीनो जातिब्राह्मण एव सः

(महाभाष्य)https://astronorway.blogspot.com/

जो तप और विद्याने हीन है वह केवल जाति से ब्राह्मण होता है। विदुरजी व्यासजीके पुत्र थे जो ब्राह्मण हैं और सर्वज्ञ वैष्णवावतार हैं, फिर भी शूद्र योनि में जन्म होने से शूद्र ही रहे। महाभारत में विदुर स्वयं को ब्रह्मविद्याका अनधिकारी बताते हैं जिसके कारण उन्होंने सनत्सुजात जी को ब्रह्मविद्या के लिए बुलाया था। विदुर जी कहते हैं

शूद्रयोनावहं जातो नातोऽन्यदकुमुत्सहे । कुमारस्य तु या बुद्धिर्वेद तां शाश्वतीमहम् ॥

( महाभारत )

अर्थात्, मेरा जन्म शूद्रयोनि में हुआ है अतः मैं (ब्रह्मविद्या में अधिकार नहीं होने से इसके अतिरिक्त और कोई उपदेश

देने का मैं साहस नहीं कर सकता, किन्तु कुमार सनत्सुजात की बुद्धि सनातन है, मैं उन्हें जानता हूँ। महर्षि आपस्तम्ब

ने धर्मसूत्रों में यह बात कही :https://astronorway.blogspot.com/

धर्मचर्चा जघन्यो वर्णः पूर्वपूर्वं वर्णमापद्यते जातिपरिवृत्ती । अधर्मचचर्यया पूर्वोवर्णो जघन्यं वर्णमापद्यते जातिपरिवृत्ती ॥

पुनश्च

तद्य इह रमणीयचरणाभ्यासो ह यत्ते रमणीयां योनिमापद्येन् ब्राह्मणयोनं वा क्षत्रिययोनं वा वैश्ययोनिं वाथ य इह

कपूयचरणाभ्यासो ह यत्ते कपूयां योनिमापद्येरनश्रयोनि वा शूकर योनिं वा चाण्डालयोनिं वा ।

(छान्दोग्योपनिषत् )https://astronorway.blogspot.com/

अर्थात्, उन में जो अच्छे आचरणवाले होते हैं वे शीघ्र ही उत्तमयोनि को प्राप्त होते हैं। वे ब्राह्मणयोनि क्षत्रिययोनि अथवा वैश्ययोनि प्राप्त करते तथा अशुभ आचरण वाले होते हैं वे तत्काल अशुभ योनिको प्राप्त होते हैं। वे कुत्ते की योनि, सूकर की योनि अथवा चाण्डालयोनि प्राप्त करते हैं। उपरोक्त नत्र में स्पष्ट उल्लेख है कर्म के द्वारा ही अलग अलग योनियों में अथवा वर्ण में जन्म होता है। यहां कोई अधिकार के हनन की बात नहीं है। जैसे कि अपनी पत्नी को वस्त्रहीन अवस्था में देख सकते हैं, लेकिन माता को नहीं। यहीं पुत्र यदि कहे कि यह हमारे अधिकार का हनन हैं, तो मार खायेगा। वह उसका काम ही नहीं है। और यह ब्राह्मण जन्म ऐसे ही आरक्षण में नहीं मिल गया। ब्राह्मण का काम शुद्र करेगा तो उसे दोष लगेगा, वैसे ही शूद्र का काम ब्राह्मण के लिए वर्जित है। तिर्यग्योनिगतः सर्वो मानुष्यं यदि गच्छति न जायते पुल्कसो वा चाण्डालो वाऽप्यसंशयः ॥ पुल्कसः पापयोनिर्वा यः कश्चिदिह लक्ष्यते । स तस्यामेव सुचिरं मतङ्ग परिवर्तते । ततो दशशते काले लभते शूद्रतामपि शूद्रयोनावपि ततो बहुशः परिवर्ती ॥ ततस्त्रिंशद्वृणे काले लभते वैश्यतामपि । वैश्यतायां चिरं कालं तत्रैव परिवर्तते ॥ ततः षष्टिगुणे काले राजन्यो नाम जायते। ततः षष्टिगुणे काले लभते ब्रह्मबन्धुताम् ॥ ब्रह्मबन्धुधिरं कालं ततस्तु परिवर्तते । ततस्तु द्विशते काले लभते काण्डपृष्ठताम् ॥ काण्डपृष्ठशिरं कालं तत्रैव परिवर्तते । ततस्तु त्रिशते काले लभते जपतामपि ॥ तं च प्राप्य चिरं कालं तत्रैव परिवर्तते । ततश्चतुःशते काले श्रोत्रियो नाम जायते ॥

(महाभारत मतंग एवं इंद्र का संवाद)https://astronorway.blogspot.com/

पशुयोनि का जीव जब पहली बार मनुष्य बनता है तो मलेच्छ या चांडाल बनता है। है मतङ्ग !! फिर वह उसी म्लेच्छ योनि में बहुत जन्मों तक बना रहता है। फिर हज़ार जन्मों के काल के बराबर समय बिताकर उसे शूद्रयोनि मिलती हैं जहां फिर वह बहुत से जन्म लेता है। वहां तीस जन्म बिताकर (यदि वह अपने वर्णगत धर्म का पालन करता रहा, तो ) वैश्य वर्ण में जन्म लेता है और पुनः कई जन्मों तक वैश्य ही रहता है। वहां साठ जन्म बिताकर वह क्षत्रिय कुल में जन्म लेता है और फिर साठ जन्मों तक क्षत्रिय रहकर ब्राह्मण कुल में जन्म लेता है। यहां केवल वह ब्रह्मबन्धुत्व की स्थिति में रहता है, यानि जन्म मिला है, कर्म ब्राह्मण के नहीं हैं। ब्रह्मबन्धुत्व की स्थिति में जब दो सौ जन्म बीतते हैं तब उसका जन्म वेदज्ञानी ब्राह्मण कुल में होता है। ऐसे कुल में तीन सौ जन्म लेने के बाद वह ब्राह्मण के आचरण और गायत्री आदि के संस्कार से भी युक्त हो जाता है। इस प्रकार से जन्मना ब्राह्मण होकर कर्मणा भी जब वह ब्राह्मण बनता है, तो ऐसे स्तर के चार सी जन्मों के बाद इसे ब्रह्मयोध होता है। यानि जम्मना ब्राह्मण बनने के नौ जन्मों बाद वह कर्मणा भी ब्राह्मण बन पाता है। ऐसे घूमते फिरते नहीं, कि जब मन किया इसी शरीर से बन गए। वर्ण देहाश्रित है। देह जन्माश्रित है। वर्ण कर्माश्रित नहीं है क्योंकि कर्म देह की अपेक्षा चिरस्थाई नहीं। वर्ण भौतिक अस्तित्व का परिचायक है और कर्म का आधार इसीलिए कर्म वर्णाश्रित है, न कि वर्ण कमश्रित कर्म बदलने से यदि वर्ण बदलेगा तो पूजा कराने वाला ब्राह्मण यदि धर्मरक्षा के लिए शस्त्र उठाये तो उसकी क्षत्रिय संज्ञा हो जाती, तो उसे अपनी पत्नी से ही ब्राह्मणीगमन का पाप लग जाता। कर्म वर्ण के ऊपर आश्रित है इसीलिए द्रोणाचार्य और युधिष्टिर का कर्म उनके वर्ण पर प्रभाव न डाल सका। यदि इच्छानुसार कर्म बदलने से वर्ण बदलने की स्वतंत्रता होती तो भगवान् गीता में क्यों कहते ? स्वै स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः । अपने अपने कर्म में लगे रहकर ही मनुष्य का कल्याण सम्भव है। इसीलिए महाभारत में जाबालि. बृहद्धर्म उपपुराण और पद्मपुराण आदि में कौशिक और नरोत्तम ब्राह्मण आदि को धर्मव्याध नामक कसाई, तुलाधार वैश्य और शुभा नामक स्त्री आदि धर्म का बोध कराते हैं। उनका कल्याण भी अपने अपने कर्म में रहकर ही हुआ। पहले वर्ण मिलता है, तब उसके अनुरूप कर्म करने का अधिकार कोई भी कर्म करके उसके अनुरूप वर्ण चयन करने का अधिकार नहीं है।
उदाहरण:- पहले व्यक्ति आरबीआई का गवर्नर बनेगा फिर नोट छापेगा। पहले पद तब अधिकार कोई भी व्यक्ति नोट छाप कर ये नहीं कह सकता है कि चूंकि मैं आरबीआई के गवर्नर का काम कर रहा हूँ तो मुझे वही पद दे दो। इसी प्रकार पूर्वजन्म की योग्यता के आधार पर इस जन्म का वर्ण मिलता है, फिर उसके अनुरूप कर्म करने का अधिकार कर्म चुनने की स्वतंत्रता किसी को भी नहीं है। यदि ऐसा होता तो भिक्षाटन करने (ब्रह्मवृत्ति) के लिए उत्सुक अर्जुन को भगवान् नहीं रोकते।

इज्याध्ययनदानानि विहितानि द्विजन्मनाम्। जन्मकर्मावदातानां क्रियाश्चाश्रमचोदिताः ॥

(श्रीमद्भागवत)https://astronorway.blogspot.com/

कुछ लोग सूत जी का उदाहरण देते हैं। सूत जी अयोनिज हैं। पृथु जी के यज्ञ में बृहस्पति और इंद्र जी का भाग मिल जाने से यज्ञ कुण्ड से सूत जी की उत्पत्ति हुई। सूत जी ब्राह्मण ही हैं, सूत उनकी संज्ञा है, न कि सूत जाति। पद्मपुराण और वायुपुराण में उनके प्रादुर्भाव की कथा है। अग्निकुण्डसमुद्भुत: सूतो विमलमानसः । लेकिन उनका पालन पोषण सन्तानहीन सूत परिवार ने किया अतः वे भी उसी से पुकारे गए। जैसे राजा उपरिचर तथा अद्रिका अप्सरा की कन्या सत्यवती तथा ब्राह्मण शक्तिपुत्र पराशर के सहयोग से उत्पन्न व्यास जी ब्राह्मण थे। कैवर्त के द्वारा लालन पालन होने से सत्यवती दाशकन्या नहीं बन गयी। ऋषि कण्व के द्वारा पालन पोषण करने मात्र से शकुंतला ब्राहाणी नहीं बन गयी।

जैसे सूत रथी के रथ का कुशलता से संचालन करके उसके मार्ग को प्रशस्त करता है, जैसे गुरु शिष्य को मार्गदर्शन देकर उसका मार्ग प्रशस्त करता है, वैसे ही सूत जी ने मार्गदर्शन के माध्यम से ऋषियों का कल्याण किया, इसीलिए उन्हें सूत कहा गया। बैसे कर्म देखें तो द्रोणाचार्य ने जीवन भर शस्त्र की ही कमाई खाई। लेकिन उन्हें कभी भी कहीं भी क्षत्रिय नहीं कहा गया। विदुर जी ने जीवन भर शास्त्रोपदेश ही किया लेकिन उन्हें किसी ने कभी भी ब्राह्मण नहीं कहा। कृष्ण जी ने अनेकों बार अर्जुन का रथ संचालन किया लेकिन उन्हें कभी किसी ने सूत नहीं कहा। महर्षि रोमहर्षण जी को ऋषियों ने अपना सूत यानि मार्गदर्शक स्वीकार किया और बाद में इन्हीं को सूत जी महाराज कहा गया, अल्पज्ञानी लोग सूत जी को सूत जाति से सम्बन्धित कर देते हैं, परन्तु सूत जी का जन्म अग्निकुण्ड से ऋषियों द्वारा यज्ञ के दौरान हुआ, जिनके दर्शन से ऋषियों के रोंगटे खड़े हो गये क्योंकि इनके ललाट पर इतना तेज था इनका प्रथम नाम रोमहर्षण हुआ । महर्षि श्री सूत जी साक्षात् ज्ञान स्वरूप थे तभी तो शौनकादि ऋषियों ने इन्हें अज्ञानान्धकार का नाश करने वाला सूर्य कहा।

अज्ञानध्यान्तविध्वंसकोटिसूर्यसमप्रभ सूताख्याहि कथासारं मम कर्ण रसायनम् ॥
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कबीर दास ने कहा :- गुरु कुम्हार सिस कुम्भ है... तो इसका अर्थ यह नहीं कि सभी गुरु कुम्हार हैं, या सभी कुम्हार गुरु हैं। अपितु यह है कि जैसे अपरिपक्क मिट्टी से कुम्हार अपने मार्गदर्शन से, कभी मार कर, कभी सहलाकर परिषक घड़ा बनाता है, वैसे ही अपरिपक्क शिष्य को अपने मार्गदर्शन से गुरु परिपक्क बनाता है। इसीलिए गुरु का कुम्हार केसमान होना बताया गया है। जैसे रोमहर्षण जी का सूत के समान वर्णन मिलता है।

कर्म से जाति का निर्धारण होता है, यह निःसंदेह सत्य है पर क्या आप ६ वर्ष के बालक को देख कर कैसे कह सकते हैं कि वह ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य शूद्र में क्या बनेगा ? क्योंकि अभी तो उसने तदनुरूप कर्म किया ही नहीं !! जहां कर्म से जाति का निर्धारण होने की बात है, तो वहाँ पिछले जन्म के कर्मों का संकेत है। पिछले जन्म के कर्म इस जन्म की जाति निर्धारित करते हैं, और इस जन्म के कर्म अगले जन्म की योनि या जाति का निर्धारण करते हैं। यदि ऐसा न होता, तो ब्राह्मणों के समान जीवन जीने वाली माता शबरी को ब्राहमण क्यों नहीं माना गया और क्षत्रिय के जैसे कर्म करने वाले परशुराम को ब्राह्मण क्यों कहा गया? यह बहुत बड़ा भ्रमजाल है। यदि कर्म के आधार पर जाति होती तो फिर संसार में कर्मों का सम्मिश्रण नहीं होता जैसे पानी पीने के कर्म को करने वाले एक श्रेणी में आते, और खाना खाने वाले दूसरी में खाने वाले लोग पीते नहीं, और पीने वाले खाते नहीं। ये नियम शाश्वत होता.. लेकिन यह तो विरोधानास है, क्योंकि यहाँ तो कर्म सम्मिश्रित है... भगवान् श्रीकृष्ण जब गाय चराते थे, तो उन्हें क्षत्रिय क्यों कहा गया, वैश्य क्यों नहीं? और भला विदुर जैसे महाज्ञानी तपस्वी को और संजय जैसे साधक को ब्राह्मण क्यों नहीं कहा गया ?

इस जन्म की जाति का निर्धारण पिछले कर्मों से होता है.. इस जन्म में यदि शूद्र धर्माचरण को मर्यादा में रहे, तो उसे अगली योनि में वर्ण में उन्नति मिलेगी, वह वैश्य बनेगा, अन्यथा नीचे गिर कर म्लेच्छ बन जायेगा। इसी प्रकार यदि क्षत्रिय मर्यादानुसार धर्माचरण करे, तो अगले जन्म में इस जन्म के कर्म फल के तौर पर ब्राह्मण बनेगा, और यदि ऐसा नहीं किया, तो अगली योनि में विषय या शूद्र या म्लेच्छ और यहां तक कि पशु भी बन सकता है। विराट पुरुष के अंगों से जहां वर्णों की उत्पत्ति का वर्णन है, वहां भी अजायत शब्द है, यानि जन्म लिया। ये नहीं कहा कि सभी मनुष्यों को उत्पन्न किया और उसमें जिसने अमुक कर्म को अपनाया उसे ये कहा गया। फिर कर्म तो शाश्वत नहीं हैं। मैं यदि साधना कर रहा हूँ, तो मैं अभी ब्राह्मण हूँ। किसी म्लेच्छ का संहार करने समय में तो क्षत्रिय बन जाऊँगा, और कृषि करते समय वैश्य और समाज सेवा करते समय शूद्र बन जाऊँगा.. एक ही दिन में में कई बार सभी जातियों में धूम जाऊँगा. तो बताईये कि मेरी जाति क्या है? मैं किस वर्ष की कन्या से विवाह करूंगा? मैं क्या कहलाऊंगा ? मनुष्य और कुत्ता दोनों रोटी खाएं तो क्या कुत्ते को मनुष्य और मनुष्य को कुत्ता कहा जा सकता है ? यदि मछली और बतख दोनों जल में तैरें, तो मछली को बतरख और बतख को मछली कहा जा सकता है? पिछले जन्म के कर्म इस जीवन की जाति तय करते हैं.... इस जीवन के कर्म जाति तय नहीं करते। वे अगले जन्म की जाति या योनि तय करते हैं। अतएव जन्मना जाति वर्ण ही वास्तविक हैhttps://astronorway.blogspot.com/
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हमारे सनातन धर्म का दर्शन कराती अति सुंदर घड़ी।।
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12:00 बजने के स्थान पर आदित्य लिखा हुआ है जिसका अर्थ यह है कि सूर्य 12 प्रकार के होते हैं।

1:00 बजने के स्थान पर ब्रह्म लिखा हुआ है इसका अर्थ यह है कि ब्रह्म एक ही प्रकार का होता है ।एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति।https://astronorway.blogspot.com/

2:00 बजने की स्थान पर अश्विन और लिखा हुआ है जिसका तात्पर्य यह है कि अश्विनी कुमार दो हैं।https://astronorway.blogspot.com/

3:00 बजने के स्थान पर त्रिगुणः लिखा हुआ है जिसका तात्पर्य यह है कि गुण तीन प्रकार के हैं ---- सतोगुण रजोगुण तमोगुण।
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4:00 बजने के स्थान पर चतुर्वेद लिखा हुआ है जिसका तात्पर्य यह है कि वेद चार प्रकार के होते हैं -- ऋग्वेद यजुर्वेद सामवेद और अथर्ववेद।https://astronorway.blogspot.com/

5:00 बजने के स्थान पर पंचप्राणा लिखा हुआ है जिसका तात्पर्य है कि प्राण पांच प्रकार के होते हैं ।

6:00 बजने के स्थान पर षड्र्स लिखा हुआ है इसका तात्पर्य है कि रस 6 प्रकार के होते हैं ।https://astronorway.blogspot.com/

7:00 बजे के स्थान पर सप्तर्षि लिखा हुआ है इसका तात्पर्य है कि सप्त ऋषि 7 हुए हैं ।https://astronorway.blogspot.com/

8:00 बजने के स्थान पर अष्ट सिद्धियां लिखा हुआ है इसका तात्पर्य है कि सिद्धियां आठ प्रकार की होती है ।

9:00 बजने के स्थान पर नव द्रव्यणि अभियान लिखा हुआ है इसका तात्पर्य है कि 9 प्रकार की निधियां होती हैं।

10:00 बजने के स्थान पर दश दिशः लिखा हुआ है इसका तात्पर्य है कि दिशाएं 10 होती है।https://astronorway.blogspot.com/

11:00 बजने के स्थान पर रुद्रा लिखा हुआ है इसका तात्पर्य है कि रुद्र 11 प्रकार के हुए हैं।https://astronorway.blogspot.com/

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❣️वटसवित्री व्रत कथा❣️https://astronorway.blogspot.com/

तपती गर्मी का समय था. घने जंगल में एक बरगद के पीड़े के नीचे एक स्त्री बैठी थी. वह नवविवाहिता लग रही थी, उसकी गोद में पति का सिर था, जिसे वह सहला रही थी. भीषण गर्मी से परेशान और सिर में दर्द के कारण वह लकड़ी काटना छोड़ कर पेड़ से नीचे उतर आया और पत्नी की गोद में विश्राम करने लगा. यह दंपती कोई और नहीं सत्यवान और सावित्री थे. पति की पीड़ा देख सावित्रि को देवर्षि नारद की भविष्यवाणी याद आ गई.https://astronorway.blogspot.com/

देवर्षि नारद ने सावित्री के पिता अश्वपति से कहा था कि महाराज सत्यवान अल्पायु है, इसलिए इस संबंध को रोक लीजिए. इस पर सावित्री ने अपनी मां की शिक्षाओं के खंडन का भय दिखाया. वह दृढ़ होकर बोली, सती, सनातनी स्त्रियां अपना पति एक बार ही चुनती हैं. इस तरह सावित्री साल्व देश के निर्वासित राजा द्युमत्सेन के पुत्र सत्यवान की गृहलक्ष्मी बनकर तपोवन में आ गई. आज देवर्षि के बताए अनुसार वही एक वर्ष पूर्ण होने वाली तिथि है, जिस दिन उसके पति का परलोक गमन होना तय था. तभी तो सुबह से विचलित मन लिए सावित्री सत्यवान के साथ ही वन में चली आई थी. अभी वह आम के पेड़ से लकड़ियां चुन ही रहे थे कि भयंकर पीड़ा और चक्कर आने के कारण वह जमीन पर गिर पड़े. 
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🚩यमराज ने हर लिए सत्यवान के प्राण

इतने में यमराज प्रकट हुए, वह सत्यवान की आत्मा को पाश से खींच कर ले जाने लगे. इसके बाद यमराज सत्यवान के शरीर में से प्राण निकालकर उसे पाश में बांधकर दक्षिण दिशा की ओर चल दिए. सावित्री बोली मेरे पतिदेव को जहां भी ले जाया जाएगा मैं भी वहां जाऊंगी. तब यमराज ने कहा, ऐसा असंभव है पुत्री, सावित्री ने देवी सीता का उदाहरण दिया कि वह भी तो पति संग वन गईं थीं, तो मैं यमलोक भी चलूंगी. या तो आप मुझे भी साथ ले चलें, या फिर मेरे भी प्राण ले लें. यमराज प्रकृति के नियम विरुद्ध सावित्री के प्राण नहीं ले सकते थे. उसे समझाते हुए कहा मैं उसके प्राण नहीं लौटा सकता तू मनचाहा वर मांग ले. 

🚩मांग लिया परिवार का संपूर्ण सुखhttps://astronorway.blogspot.com/

तब सावित्री ने वर में अपने श्वसुर के आंखे मांग ली. यमराज ने कहा तथास्तु, लेकिन वह फिर उनके पीछे चलने लगी. तब यमराज ने उसे फिर समझाया और वर मांगने को कहा उसने दूसरा वर मांगा कि मेरे श्वसुर को उनका राज्य वापस मिल जाए. उसके बाद तीसरा वर मांगा मेरे पिता जिन्हें कोई पुत्र नहीं हैं उन्हें सौ पुत्र हों. यमराज ने फिर कहा सावित्री तुम वापस लौट जाओ चाहो तो मुझसे कोई और वर मांग लो. तब सावित्री ने कहा मुझे सत्यवान से सौ यशस्वी पुत्र हों. यमराज ने कहा तथास्तु. 

🚩इसलिए होती है वटसावित्री पूजा

यमराज फिर सत्यवान के प्राणों को अपने पाश में जकड़े आगे बढऩे लगे. सावित्री ने फिर भी हार नहीं मानी तब यमराज ने कहा तुम वापस लौट जाओ तो सावित्री ने कहा मैं कैसे वापस लौट जाऊं. आपने ही मुझे सत्यवान से सौ यशस्वी पुत्र उत्पन्न करने का आर्शीवाद दिया है. यह सुनकर यम सोच में पड़ गए कि अगर सत्यवान के प्राण वह ले जाएंगे तो उनका वर झूठा होगा. तब यमराज ने सत्यवान को पुन: जीवित कर दिया. इस तरह सावित्री ने अपने सतीत्व से पति के प्राण, श्वसुर का राज्य, परिवार का सुख और पति के लिए 400 वर्ष की नवीन आयु भी प्राप्त कर ली. इस कथा का विवरण महाभारत के वनपर्व में मिलता है. यह संपूर्ण घटना क्रम वट वृक्ष के नीचे घटने के कारण सनातन परंपरा में वट सावित्री व्रत-पूजन की परंपरा चल पड़ी.
    जय बद्री,जय केदार,,https://astronorway.blogspot.com/

Saturday, May 28, 2022

शाक्त दर्शन भाग 2
त्वं स्वाहा त्वं स्वधा हि, वषट् - कारः स्वरात्मिका । सुधा त्वमक्षरे नित्ये ! त्रिधा मावात्मिका स्थिता ॥२https://astronorway.blogspot.com/

-तुम्हीं स्वाहा हो, स्वधा हो, वषट् - कार हो, तुम्ही स्वर रूपा हो । हे नित्य रहनेवाली ! तुम अमृत हो । तुम (अक्षरों में) तीनों प्रकारों की मात्राओं में रहती हो ।https://astronorway.blogspot.com/

 दर्शनिक व्याख्या -'स्वाहा' देव-हवि का 'दान-मंत्र' है। इसके बिना देव गण हवि को नहीं पा सकते। यह तदभिमानिनी 'वह्नि - शक्ति' है।
'स्वधा' पितृ हवि का 'दान मन्त्र' है, जिसके बिना 'सोमप' और 'असोमप' अर्थात् जो सोम-पान करते हैं और जो नहीं करते हैं, दोनों ही पितृ-गण हवि नहीं पा सकते। यह तदभिमानिनी 'पितृ शक्ति' है। 'वषट्-कार' देवता- विशेष का 'हवि-दान-मन्त्र' है। यथाhttps://astronorway.blogspot.com/

'वषडिन्द्राय इति'-मन्त्र-लिङ्ग से । इन तीनों- 'स्वाहा, स्वधा' और 'वषट्कार' से भगवती का वाक्-काम-धेनु होना सिद्ध है। इस वाक-रूपी गाय के १ स्वाहाकार, २ वषट्-कार, ३ हन्त-कार और ४ स्वधा-कार-रूपी-चार स्तन हैं । इनमें प्रथम दो से अर्थात् स्वाहा और वषट् कार से देवगण को स्थिति है अर्थात् इन्हीं दोनों वाक् - शक्तियों से देवता लोग पालित होते हैं। 'हन्त - कार' से मनुष्य और 'स्वधा - कार' से 'पितृ - गण' पालित होते हैं। 'बृहदारण्यक ब्राह्मण' (श्रुति) कहता है

'वाचं धेनुमुपासीत । तस्याश्चत्वारः स्तनः स्वाहा-कारो, वषट्

कारो, हन्त-कारः, स्वधा-कारः । तस्या द्वौ स्तनौ देवा उप-जीवन्सि स्वाहा - कारं च वषट् कारम् । हन्त कारं मनुष्याः, स्वधा कार पितरः ।https://astronorway.blogspot.com/

इससे यह सिद्ध है कि शब्द- ब्रह्मरूपिणी भगवती जिस प्रकार विश्व की सृजन-कर्ती है, उसी प्रकार पालनकर्त्री भी है। 'स्वर-रूपा' का वाच्यार्थ है- उदात्तादि स्वर-रूपा, किन्तु इसका अन्तस्तात्पर्य है। वर्णों (अक्षरों) की शक्ति से। इसी से 'अ' से 'अः' तक के सोलहों स्वर 'शक्ति-अक्षर' कहे गए हैं। इन स्वरों के न रहने से अक्षर या वर्ण पूर्ण नहीं होते। दूसरा तात्पर्य वेद के अशुद्ध मन्त्रों के 'स्वर' से । स्वर-हीन पाठ को अशुद्ध पाठ कहा गया है, जिससे अनिष्टापत्ति की सम्भावना है। 'इन्द्र-शोर्वर्द्धस्व' में स्वर के अशुद्ध उच्चारण के फल-स्वरूप उल्टा फल हुआ, यह पौराणिक घटना सर्वविदित है। इससे भगवती का वाग्-रूपिणी शक्ति की प्रधान 'स्वर-शक्ति' होता सिद्ध है ।
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'नित्या' से उभय-परिणामिनी नित्या सत्ता का ही बोध होता है नित्या सत्ता तीन प्रकार की है- १ अपरिणामिनी, २ सम परिणामिनी और ३ विषय परिणामिनी प्रथम चिन्मात्र वृत्ति, दूसरी अचिन्मात्र वृत्ति और तीसरी उभय अर्थात् चित् और अचित् (सत और असत्) । भगवान् श्रीकृष्ण ने भी ब्रह्म की एक परिभाषा इसी भाव की पुष्टि हेतु 'गीता' ६/१६ में कही है-'सदसच्चाहमर्जुन !" यह उपनिषदों के 'सर्व खल्विदं ब्रह्म' सिद्धान्त का समर्थक है। दोनों वृत्तिवाली है। दूसरी को 'अनित्या' भी कह सकते हैं क्योंकि प्रलय दशा में इसके रूप का अभाव हो जाता है। यहाँ नित्या से प्रकृति पुरुष-साधारणी एका सत्ता से तात्पर्य है, जिसका नीर - क्षीर - वत् संयोग-सम्बन्ध है (नित्य संयोग वादियों के मतानुसार विभु-द्वय सयोग-वत् ही यह सम्बन्ध है) ।https://astronorway.blogspot.com/

'सुधा' का अर्थ है शरीर का पोषण करनेवाली । 'सुष्टु दधाति पुष्णाति शरीरम् इति सुधा' । यहाँ शरीर से शरीर - त्रय अर्थात् १ स्थूल, २ सूक्ष्म और ३ पर-इन तीनों से तात्पर्य है।https://astronorway.blogspot.com/

'अक्षरे' शब्द 'अक्षरा' शब्द का सम्बोधनान्त भी है, जिसका अर्थ तीनों लोकों की भोक्त्री है-'अश्नाति त्रीन् लोकान् भुंक्ते, भूत-रूप 'त्वात् अक्षरा'। दूसरा अर्थ है सर्व (त्रिलोक) व्यापिका शक्ति – 'अश्नुते व्याप्नोति विश्वात्मत्वात् अक्षरा', परन्तु यहाँ 'अक्षरं-न क्षरं -विद्यादक्षरं' तात्पर्य ही और सम्बोधनान्त के स्थान में सप्तमी-कारक ही उचित प्रतीत होता है। इस 'अक्षर' से तर्क दर्शन के प्रतिकूल शब्द की नित्यता सिद्ध है (तर्क- दर्शन भी 'वैखरी' - शब्द मात्र को अनित्य कहते हैं। ऐसा ही तात्पर्य ठीक प्रतीत होता है क्योंकि परा, पश्यन्ती और मध्यमा शब्द-रूपों में तर्क का समावेश नहीं है-'तर्का प्रतिष्ठानात्' ।)https://astronorway.blogspot.com/

अक्षर में 'विधा मावात्मिका' से दो तात्पर्य हैं- (१) प्रत्येक अक्षर की शक्ति विधा है अर्थात् १ ह्रस्व, २ दीर्घ और ३ प्लुत-रूपिणी । (२) 'प्रणव' (ॐ) की त्रि-मातात्मिक शक्ति । जिस प्रकार कोई भी वर्ण ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत मात्रा से रहित होने से शक्ति हीन होत है, उसी प्रकार 'प्रणव' भी मात्रा-हीन होने से अव्यवहार्य या निष्प होता है। संक्षेप में 'त्रिधा मातात्मिका स्थिता' से 'शब्द' - ब्रह्म की 'मातृका'- शक्ति से तात्पर्य है

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#सन्ध्या_तत्त्व_विमर्श 

भाग-१

#१_संध्यापरिचय

#२_संध्योपासनाका_अर्थ

#३_संध्या_करनेसे_लाभ

#४_संध्या_न_करनेसे_हानि

#१_सन्ध्यापरिचय

ॐकारप्रौढमूलः क्रमपदसहितश्छन्दविस्तीर्णशाख
ऋक्पत्रः सामपुष्पो यजुरधिकफलोऽथर्वगन्धं दधानः।
यज्ञच्छायासमेतो द्विजमधुपगणैः सेव्यमानः प्रभाते
मध्ये सायं त्रिकालं सुचरितचरितः पातु वो वेदवृक्षः॥

परमात्माको प्राप्त किये अथवा जाने बिना जीवनकी भवबन्धनसे मुक्ति नहीं हो सकती। यह सभी ऋषि-महर्षियोंका निश्चित मत है। उनके ज्ञानका सबसे सहज, उत्तम और प्रारम्भिक साधन है— संध्योपासना। संध्योपासना द्विजमात्रके लिये परम आवश्यक कर्म है। इसकी अवहेलनासे पाप होता है और पालनसे अन्तःकरण शुद्ध होकर परमात्मसाक्षात्कारका अधिकारी बन जाता है। तन-मनसे संध्योपासनाका आश्रय लेनेवाले द्विजको स्वल्पकालमें ही परमेश्वरकी प्राप्ति हो जाती है। अतः द्विजातिमात्रको संध्योपासनामें कभी प्रमाद नहीं करना चाहिये।

#संध्योपासनाका_अर्थhttps://astronorway.blogspot.com/

संध्योपासनामें दो शब्द हैं—संध्या और उपासना। संध्याका प्रायः तीन अर्थोंमें व्यवहार होता है—१-संध्याकाल, २- संध्याकर्म और ३-सूर्यस्वरूप ब्रह्म (परमात्मा)। तीनों ही अर्थोके समर्थक शास्त्रीय वचन उपलब्ध होते हैं-
अहोरात्रस्य यः संधिः सूर्यनक्षत्रवर्जितः।https://astronorway.blogspot.com/
सा तु संध्या समाख्याता मुनिभिस्तत्त्वदर्शिभिः॥ (दक्षस्मृति)
सूर्य और नक्षत्रोंसे रहित जो दिन-रातकी संधिका समय है, उसे तत्त्वदर्शी मुनियोंने 'संध्या' कहा है। -इस वचनमें संध्या शब्दका काल अर्थमें व्यवहार हुआ है।

संधौ संध्यामुपासीत नोदिते नास्तगे रवौ। (वृद्ध याज्ञवल्क्य)

सूर्योदय और सूर्यास्तके कुछ पहले संधिवेलामें संध्योपासना करनी चाहिये।https://astronorway.blogspot.com/

'अहरहः संध्यामुपासीत'।
(तैत्तिरीय०)
'प्रतिदिन संध्या करे।'

तस्माद् ब्राह्मणोऽहोरात्रस्य संयोगे संध्यामुपासते॥
(छब्बीसवाँ ब्राह्मण, प्रण० ४, खं० ५)
इसलिये ब्राह्मणोंको दिन-रातकी संधिके समय संध्योपासना करनी चाहिये।
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-इत्यादि वचनोंमें संध्याके समय किये जानेवाले परमेश्वरके ध्यानरूप प्राणायामादि कर्मोंको ही 'संध्या' बताया गया है। काल- वाचक अर्थमें 'संध्योपासना' शब्दका अभिप्राय है— संध्याकालमें की जानेवाली उपासना। दूसरे (कर्मवाचक) अर्थमें प्राणायामादि कर्मोंका अनुष्ठान ही संध्योपासना है।

'संध्येति सूर्यगं ब्रह्म' (व्यासस्मृति)—इत्यादि वचनोंके अनुसार आदित्यमण्डलगत ब्रह्म ही संध्या शब्दसे कहा गया है। इस तृतीय अर्थमें सूर्यस्वरूप ब्रह्म (परमात्मा)-की उपासना ही संध्योपासना है।https://astronorway.blogspot.com/

यद्यपि आचमनसे लेकर गायत्रीजपपर्यन्त सभी कर्म संध्योपासना ही हैं तथापि ध्यानपूर्वक गायत्रीजप संध्योपासनामें एक विशेष स्थान रखता है। क्योंकि-
पूर्वां संध्यां सनक्षत्रामुपक्रम्य यथाविधि।
गायत्रीमभ्यसेत्तावद् यावदादित्यदर्शनम्॥

सबेरे जब कि तारे दिखायी देते हों विधिपूर्वक प्रातःसंध्या आरम्भ करके सूर्यके दर्शन होनेतक गायत्रीजप करता रहे। इस नरसिंहपुराणके वचनमें गायत्रीजपको ही प्रधानता दी गयी है।
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ऋषयो दीर्घसंध्यत्वाद्दीर्घमायुरवाप्नुयुः।
ऋषिलोगोंने दीर्घकालतक संध्या करनेके कारण ही दीर्घ आयु प्राप्त की थी। इत्यादि मनुवाक्यमें भी 'दीर्घसंध्य' शब्दसे दीर्घकालतक ध्यानसहित गायत्रीजप करनेकी ओर ही संकेत किया गया है, क्योंकि गायत्रीजप हजारोंकी संख्यामें होनेसे उसमें दीर्घकालतक प्रवृत्त रहना सम्भव है।
संध्योपासना नित्य और प्रायश्चित्त कर्म भी है 
-यह संध्योपासना नित्य और प्रायश्चित्त कर्म भी है।

'अहरहः संध्यामुपासीत' (प्रतिदिन संध्योपासना करें) इस प्रकार प्रतिदिन संध्या करनेकी विधि होनेसे तथा-
एतत् संध्यात्रयं प्रोक्तं ब्राह्मण्यं यदधिष्ठितम्।
यस्य नास्त्यादरस्तत्र न स ब्राह्मण उच्यते॥ .(छान्दोग्यपरिशिष्ट)
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यह त्रिकालसंध्याकर्मका वर्णन किया गया; जिसके आधारपर ब्राह्मणत्व सुप्रतिष्ठित होता है। इसमें जिसका आदर नहीं है जो प्रतिदिन संध्या नहीं करता, वह जन्मसे ब्राह्मण होनेपर भी कर्मभ्रष्ट होनेके कारण ब्राह्मण नहीं कहा जा सकता। -इस वचनके अनुसार संध्या न करनेसे दोषका श्रवण होनेके कारण संध्या नित्यकर्म है। तथा-
दिवा वा यदि वा रात्रौ यदज्ञानकृतं भवेत्।
त्रिकालसंध्याकरणात् तत्सर्वं च प्रणश्यति॥ (याज्ञवल्क्यस्मृति)
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अर्थात् 'दिन या रातमें अनजानसे जो पाप बन जाता है, वह सब-का-सब तीनों कालोंकी संध्या करनेसे नष्ट हो जाता है।' -इस वचनके अनुसार पापध्वंसकी साधिका होनेसे संध्याप्रायश्चित्त कर्म भी है। द्विजमात्रको यथासम्भव प्रातः, सायं और मध्याह्न तीनों कालोंकी संध्याका पालन करना चाहिये। कुछ लोगोंका विचार है कि-
नानुतिष्ठति यः पूर्वां नोपास्ते यश्च पश्चिमाम्।
स शूद्रवद् बहिष्कार्यः सर्वस्माद् द्विजकर्मणः॥ (मनु०)
जो प्रातः और सायं-संध्याका अनुष्ठान नहीं करता, वह सभी द्विजोचित कर्मोंसे बहिष्कृत कर देनेयोग्य है।
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 -इस वचनमें प्रातः और सायं—इन्हीं दो संध्याओंके न करनेसे दोष बताया गया है, अतः प्रातः तथा सायंकालकी संध्या ही आवश्यक है, मध्याह्नकी नहीं। किंतु ऐसा मानना उचित नहीं है, कारण कि इस वचनद्वारा मनुजीने जो उक्त दो कालोंकी संध्या न करनेसे दोष बताया है, उससे उक्त समयकी संध्याकी अवश्यकर्तव्यतामात्र सिद्ध हुई। इससे यह नहीं व्यक्त होता कि मध्याह्म-संध्या अनावश्यक है, क्योंकि-
संध्यात्रयं तु कर्तव्यं द्विजेनात्मविदा सदा। (अत्रिस्मृति)
आत्मवेत्ता द्विजको सदा त्रिकाल-संध्या करनी चाहिये। —इत्यादि वचनके अनुसार मध्याह्न-संध्या भी आवश्यक ही है।

 शुक्लयजुर्वेदियोंके लिये तो मध्याह्न-संध्या विशेष आवश्यक है। आजकल बाजारोंमें 'क्षत्रिय-संध्या' और 'वैश्य- संध्या' के नामसे भी पुस्तकें बिकने लगी हैं, इससे लोगोंमें बड़ा भ्रम फैल रहा है। वैश्य और क्षत्रियोंके लिये कोई अलग संध्या नहीं है। एक ही प्रकारकी संध्या द्विजमात्रके उपयोगके लिये होती है।

#३_संध्या_करनेसे_लाभhttps://astronorway.blogspot.com/

जो लोग दृढ़प्रतिज्ञ होकर प्रतिदिन नियतरूपसे संध्या करते हैं, वे पापरहित होकर अनामय ब्रह्मपदको प्राप्त होते है । सायं- संध्यासे दिनके पाप नष्ट होते हैं और प्रातः-संध्यासे रात्रिके। जो अन्य किसी कर्मका अनुष्ठान न करके केवल संध्याकर्मका अनुष्ठान करता रहता है, वह पुण्यका भागी होता है। परन्तु अन्य सत्कर्मोंका अनुष्ठान करनेपर भी संध्या न करनेसे पापका भागी होना पड़ता है। जो प्रतिदिन स्नान किया करता है तथा कभी संध्याकर्मका लोप नहीं करता, उसको बाह्य और आन्तरिक दोनों ही प्रकारके दोष नहीं प्राप्त होते, जैसे गरुड़के पास सर्प नहीं जा सकते।
१-संध्यामुपासते ये तु नियतं संशितव्रताः।
विधूतपापास्ते यान्ति ब्रह्मलोकमनामयम्॥ (यमस्मृति)
२-पूर्वां संध्यां जपंस्तिष्ठन् नैशमेनो व्यपोहति।
पश्चिमां तु समासीनो मलं हन्ति दिवाकृतम्॥ (मनु०)
३-यस्तु तां केवलां संध्यामुपासीत स पुण्यभाक्।
तां परित्यज्य कर्माणि कुर्वन् प्राप्नोति किल्बिषम्॥ (याज्ञवल्क्य)
४-संध्यालोपस्य चाकर्ता स्नानशीलश्च यः सदा।
तं दोषा नोपसर्पन्ति गरुत्मन्तमिवोरगाः॥ (कात्यायन)

#४_संध्या_न_करनेसे_हानिhttps://astronorway.blogspot.com/

जो संध्या नहीं जानता अथवा जानकर भी उसकी उपासना नहीं करता, वह जीते-जी शूद्रके समान है और मरनेपर कुत्तेकी योनिको प्राप्त होता है। जो विप्र संकट प्राप्त हुए बिना ही संध्याका त्याग करता है, वह शूद्रके समान है। उसे प्रायश्चित्तका भागी और लोकमें निन्दित होना पड़ता है।
५-संध्या येन न विज्ञाता संध्या नैवाप्युपासिता।
जीवमानो भवेच्छूद्रो मृतः श्वा चैव जायते॥ (याज्ञवल्क्य)
६-अनार्तश्चोत्सृजेद् यस्तु स विप्रः शूद्रसम्मितः।
प्रायश्चित्ती भवेच्चैव लोके भवति निन्दितः॥ (याज्ञवल्क्य)
संध्याहीन द्विज अपवित्र होता है। उसका किसी भी द्विजकर्ममें अधिकार नहीं है। वह जो कुछ भी दूसरा कर्म करता है, उसका फल भी उसे नहीं मिलता। जो द्विज समयपर प्राप्त हुए संध्याकर्मका आलस्यवश उल्लंघन करता है, उसे सूर्यकी हिंसाका पाप लगता है और मृत्युके पश्चात् वह उल्लू होता है।
१-संध्याहीनोऽशुचिर्नित्यमनर्हः सर्वकर्मसु।
यदन्यत् कुरुते कर्म न तस्य फलभाग् भवेत् ॥ (दक्षस्मृति)
२-यः संध्यां कालतः प्राप्तामालस्यादतिवर्तते।
सूर्यहत्यामवाप्नोति ह्युलूकत्वमियात् स च॥ (अत्रि)

संध्याकर्मका कभी उल्लंघन नहीं करना चाहिये। जो संध्योपासना नहीं करता उसे सुर्यकी हत्याका दोष लगता है।
तस्मान्नोल्लंघन कार्यं संध्योपासनाकर्मणः। २/८/५७
स हन्ति सूर्यं संध्याया नोपस्तिं कुस्ते तुयः॥ (विष्णुपुराणhttps://astronorway.blogspot.com/ contact 004797335299

Tuesday, May 10, 2022

27 जून को बहुत बड़ी घंटना होगी । मंगल राहु से आकरhttps://astronorway.blogspot.com/ मिलेंगे मेष राशि मे । इन पर शनि अपनी तीसरी दृस्टि डालेंगे ।। जीव के कारक गुरु पाप कर्तरी में होंगे । 27 जून से अगले 45 आपके लिए, मेरे लिए , देश के लिए , विश्व की लिए बहुत अहम होगे ।। क्या क्या हो सकता ह इसकी पूरी जानकारी समय आने पर आपको दे दी जाएगी । पिछले कई सालों में से सबसे खराब समय हमारा इंतजार कर रहा ह ।। प्रभु रक्षा करे ।। शनि देव सभी की रक्षा करे ।🙏🙏
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1 क्या ये वो समय होगा जब विश्व पूरी तरह दो गुटों में बट जाएगा ? 
2 क्या यही से तीसरे विश्वयुद्ध की शुरुवात होगी ?
3 क्या भारत पर चीन या पाकिस्तान हमला कर सकते ह ?
4 क्या कोई बड़ी तबाही जिस में विश्व की कई गुणा जनसंख्या खत्म हो जाएगी ?https://astronorway.blogspot.com/
5 क्या कोई अज्ञात रोग हमारा इंतजार कर रहा ह ? 
6 क्या भारत भी श्रीलंका की तरह आर्थिक रूप से खत्म होने वाला ह ? 
7 या कही परमाणु विस्फोट का खतरा बन रहा ह ?

27 जून को होने वाली ये घटना साधारण नही ह जो भी इन 45 दिनों में हो सकता ह वो इस्पस्ट रूप से आप सभी को बताउगा अगली पोस्ट में ।।। https://astronorway.blogspot.com/
 
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आपकी कुण्डली किस स्वभाव की है -https://astronorway.blogspot.com/

कुंडली-देव लग्न की या दैत्य लग्न की                                                     
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तो सभी ज्योतिष प्रेमी नोट कर लीजिये 
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देव लग्न : अगर लग्न में ये राशियां हैं ।
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 मेष , वृश्चिक - स्वामी मंगल

कर्क - स्वामी चन्द्र्मा

सिंह - स्वामी सूर्य

धनु, मीन - स्वामी गुरु 

दैत्य लग्न : 

वृष, तुला - स्वामी शुक्र

मिथुन, कन्या - स्वामी बुध

मकर, कुम्भ - स्वामी शनि
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ये दो प्रकार के गुण , धर्म , स्वभाव में कुण्डली को बाँट लो 

और ये देखो की देव राशि में दैत्य ग्रह का फल कमजोर होगा और दैत्य राशि में स्थित देव ग्रह का फल कमजोर होगा !

महादशा फल : देव लग्न वालों को दैत्य ग्रह की महादशा संघर्षमयी होगी और दैत्य लग्न वालों को देव ग्रह की महादशा कमजोर करेगी !!!https://astronorway.blogspot.com/

उच्च ग्रह भी शुभ फल नही देते : इसके लिए कुण्डली का स्वभाव देखना होगा ।https://astronorway.blogspot.com/

 मान लीजिये वृश्चिक लग्न की देव कुण्डली है और शनि उच्च का हो तो भी वो अधिक कल्याणकारी न होगा। 

क्योंकि यहां मंगल का शत्रु उच्च है , इसी तरह कुम्भ लग्न में गुरु उच्च हो तो वो भी अधिक लाभ न देगा क्योंकि कुम्भ लग्न दैत्य श्रेणी में आता है ।https://astronorway.blogspot.com/

और गुरु उसका विरोधी उच्च हो कर भी लाभ नही देता , इसलिए अपनी कुंडली के अनुसार आप पूजा पाठ कर सकते हैं ।https://astronorway.blogspot.com/

अपनी कुण्डली की श्रेणी देखिये न की उच्च के ग्रह !!! 

और भी कई सूत्र हैं ....

शक्ति उपासक- -आचार्य पटवाल
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प्रश्न = इन्द्र कौन थे उन्होंने ऐसी कौन सी दुनिया बसाई जो स्वर्ग कहलाई ?
● वर्तमान में इंद्र कौन हैं ?
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इंद्र क्या है :— इंद्र एक पद का नाम है, इंद्र देवताओं पर शासन करते है और अमरावती उनकी राजधानी है। अमरावती को ही हमारे धर्म में स्वर्ग कहा गया है। प्रत्येक मनवंतर का एक इंद्र होता है, वर्तमान में जिस इंद्र का शासन चल रहा है उनका नाम है — पुरंदर । पुरंदर से पहले 5 इंद्रों ने स्वर्ग पर शासन किया था जिनके नाम हैं— यज्न, विपस्चित, शीबि, विधु और मनोजव।https://astronorway.blogspot.com/

पुरंदर के बाद बाली, अद्भुत, शांति, विश, रितुधाम, देवास्पति और सुचि इंद्र पद पर बैठेंगे।
इंद्र पद से जुड़ी कुछ जानकारी := आज के समय के इंद्र का नाम पुरंदर है, इनकी मुख्य पटरानी शचि हैं। शचि के अलावा इनकी 32 रानियां और हैं, इंद्र के पुरी का नाम अमरावती है। इंद्र के बगीचे का नाम नंदन वन है जहां दिव्य कल्पवृक्ष है, इनकी जो सभा होती है उसका नाम सुधर्मा है।
इंद्र को किसी भी प्रकार की शारीरिक समस्या नहीं होती ये सदैव यौवन और सौन्दर्य से परिपूर्ण रहते हैं।https://astronorway.blogspot.com/

इंद्र के आदेश का पालन सभी देवता करते हैं, ये महाबलशाली, ऐश्वर्यवान और वैभवशाली हैं। इनकी पहुंच कैलाश, ब्रह्मलोक और वैकुंठ तक है।https://astronorway.blogspot.com/

ये अनंत सुखों को भोगते हुए तीनों लोकों पर राज्य करते हैं। इनके गुरु बृहस्पति हैं जो इन्हें राजकाज में सलाह देते हैं। चारित्रिक दुर्बलता की वजह से मनुष्यों ने इनकी उपासना बंद कर दी है।
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इंद्र की आयु : इस ब्रह्मांड में 14 मन्वंतर होते हैं, प्रत्येक मनवंतर का एक इंद्र होता है।
(जैसे एक देश में केवल एक प्रधानमंत्री होता है।)

इस समय वैवस्वत मन्वंतर चल रहा है जिसके इंद्र का नाम पुरंदर है। ये महर्षि कश्यप और अदिति के पुत्र हैं। इंद्र की आयु लगभग 43 लाख 20‌ हजार साल‌ है।
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वैवस्वत मन्वंतर का जब अंत होगा तब " अर्क सावर्णी" मनवंतर आएगा जिसमें जो इंद्र बनेगा

उसका नाम बालि होगा ये इंद्र, भगवान के परमभक्त प्रह्लाद के पौत्र होगें।https://astronorway.blogspot.com/

इस तरह हम समझ सकते हैं कि स्वर्ग का निर्माण अनंत काल से हुआ है अब तक पता नहीं कितने इंद्र स्वर्ग पर शासन कर चुके हैं। जो मच्छर आपके गाल पर काटने की कोशिश कर रहा है हो सकता है वह भी इंद्र रह चुका हो या भावी इंद्र हो।https://astronorway.blogspot.com/

इंद्र नाना प्रकार का सुख अमरावती में भोगता है लेकिन फिर भी एक दिन उसे इंद्र पद छोड़ना पड़ता है। 🙏https://astronorway.blogspot.com/https://astronorway.blogspot.com/

Monday, May 9, 2022

💥 श्री दसमहाविद्या -  भाग 8
  ♦️ वगलामुखी माता ♦️https://astronorway.blogspot.com/
♦️ आज बगलामुखी माता की जयंती है ♦️
दशमहाविद्या साधना आदिशक्ति के दस अलग-अलग समय में इस संसार के कल्याण के लिए किए गए अवतार या रूप है ।
दस महाविद्या साधना संसार की सबसे श्रेष्ठ एवं प्रभावशाली साधना है इन के माध्यम से हम अपने जीवन की समस्याओं का समाधान कर सकते हैं। अपने जीवन में आने वाले कष्टों को दूर कर सकते हैं। और सबसे बड़ी बात इन साधनाओं के माध्यम से भोग और मोक्ष दोनों की प्राप्ति होती है ।
👉 परंतु दसमहाविद्या साधना करने के लिए पहले योग्य गुरु से दीक्षा लेना आवश्यक है उसके बाद साधना में सफलता प्राप्त करने के लिए उत्कीलन साधना पापमोचनी साधना एवं भैरव साधना करना आवश्यक है ।
बिना इन सभी नियम का पालन किए आप कोई विशेष लाभ नहीं प्राप्त कर सकते है । वैसे भी कोई भी मंत्र जप कर सकता है परंतु उससे कोई लाभ होने वाला नहीं है ।
 🔹🔹🔹🔹🔹
 माता वगलामुखी व्यष्टिरूपमें शत्रुओंको नष्ट करने की इच्छा रखनेवाली तथा समष्टिरूप में परमात्माकी संहार शक्ति ही वगला है । पीताम्बराविद्या के नाम से विख्यात बगलामुखी की साधना प्रायः शत्रुभय से मुक्ति और वाक् सिद्धि के लिये की जाती है । इनकी उपासनामें हरिद्रा माला , पीत - पुष्प एवं पीतवस्त्र का विधान है । महाविद्याओंमें इनका आठवाँ स्थान है । इनके ध्यान में बताया गया है कि ये सुधासमुद्र के मध्य में स्थित मणिमय मण्डप में रत्नमय सिंहासनपर विराज रही हैं । ये पीतवर्ण के वस्त्र , पीत आभूषण तथा पीले पुष्पों की ही माला धारण करती हैं । इनके एक हाथमें शत्रु की जिह्वा और दूसरे हाथमें मुद्रर है । स्वतन्त्रतन्त्र के अनुसार भगवती वगलामुखी के प्रादुर्भाव की कथा इस प्रकार है- सत्ययुगमें सम्पूर्ण जगत् को नष्ट करनेवाला भयंकर तूफान आया । प्राणियों के जीवनपर आये संकट को देखकर भगवान् महाविष्णु चिन्तित हो गये । वे सौराष्ट्र देश में हरिद्रा सरोवर के समीप जाकर भगवती को प्रसन्न करनेके लिये तप करने लगे । श्री विद्या ने उस सरोवर से वगलामुखीरूप में प्रकट होकर उन्हें दर्शन दिया तथा विध्वंसकारी तूफान का तुरन्त स्तम्भन कर दिया । बगलामुखी महाविद्या भगवान् विष्णुके तेज से युक्त होनेके कारण वैष्णवी है । मंगलवार युक्त चतुर्दशी की अर्धरात्रि में इनका प्रादुर्भाव हुआ था । इस विद्याका उपयोग दैवी प्रकोप की शान्ति , धन - धान्य के लिये पौष्टिक कर्म एवं आभिचारिक कर्म के लिये भी होता है । यह भेद केवल प्रधानता के अभिप्राय से है ; अन्यथा इनकी उपासना भोग और मोक्ष दोनोंकी सिद्धि के लिये की जाती है । यजुर्वेद की काठकसंहिता के अनुसार दसों दिशाओं को प्रकाशित करनेवाली , सुन्दर स्वरूपधारिणी ' विष्णुपत्नी ' त्रिलोक जगत की ईश्वरी मानोता कही जाती है । स्तम्भनकारिणी शक्ति व्यक्त और अव्यक्त सभी पदार्थों की स्थिति का आधार पृथ्वीरूपा शक्ति है । बगला उसी स्तम्भनशक्ति की अधिष्ठात्री देवी है । शक्तिरूपा वगला की स्तम्भन शक्ति से द्युलोक वृष्टि प्रदान करता है । उसी से आदित्यमण्डल ठहरा हुआ है और उसीसे स्वर्ग लोक भी स्तम्भित है । भगवान् श्रीकृष्णने भी गीता में विष्टभ्याहमिदं कृत्स्त्रमेकांशेन स्थितो जगत् ' कहकर उसी शक्ति का समर्थन किया है । तन्त्रमें वही स्तम्भनशक्ति बगलामुखी के नामसे जानी जाती है । श्रीवगलामुखी को ' ब्रह्मास्त्र ' के नाम से भी जाना जाता है । ऐहिक या पारलौकिक देश अथवा समाज में दुःखद् अरिष्टों के दमन और शत्रुओं के शमन में बगलामुखी के समान कोई मन्त्र नहीं है । चिरकालसे साधक इन्हीं महादेवी का आश्रय लेते आ रहे हैं । इनके बडवामुखी , जातवेदमुखी , उल्कामुखी , ज्वालामुखी तथा बृहद्भानुमुखी पाँच मन्त्रभेद हैं ।https://astronorway.blogspot.com/ कुण्डिकातन्त्र में वगलामुखी के जपके विधान पर विशेष प्रकाश डाला गया है । मुण्डमालातन्त्र में तो यहाँ तक कहा गया है कि इनकी सिद्धि के लिये नक्षत्रादि विचार और कालशोधन की भी आवश्यकता नहीं है । वगला महाविद्या ऊर्ध्वामनाय के अनुसार ही उपास्य है । इस आम्नाय में शक्ति केवल पूज्य मानी जाती है , भोग्य नहीं । श्रीकुल की सभी महाविद्याओं की उपासना गुरुके सान्निध्य में रहकर सतर्कतापूर्वक सफलता की प्राप्ति होनेतक करते रहना चाहिये । इसमें ब्रह्मचर्यका पालन और बाहर भीतरकी पवित्रता अनिवार्य है । सर्वप्रथम ब्रह्माजी ने वगला महाविद्याhttps://astronorway.blogspot.com/ की उपासना की थी । ब्रह्माजीने इस विद्याका उपदेश सनकादिक मुनियों को किया सनत्कुमारने देवर्षि नारदको और नारदने सांख्यायन नामक परमहंस को इसका उपदेश किया । सांख्यायन ने छत्तीस पटलों में उपनिबद्ध वगलातन्त्र की रचना की बगलामुखी के दूसरे उपासक भगवान् विष्णु और तीसरे उपासक परशुराम हुए तथा परशुरामने यह विद्या आचार्य द्रोणको बतायी । 

💥साधना कैसे करें  
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Saturday, May 7, 2022

मोक्ष की प्राप्ति उस जातक की होती है, जो अपने समस्त कर्मों से मुक्त हो जाता है। कुण्डली का द्वादश भाव यदि मोक्ष का है, तो षष्ठ भाव उन कर्मरूपी ऋणों से मुक्त होने का है। ये दोनों भाव स्पष्ट एवं निश्चित रूप से न केवल मुक्ति का सङ्केत देते हैं बल्कि यह भी बताते हैं कि क्या जातक वर्तमान जन्म में मोक्ष मार्ग का अवलम्बन कर पाने में समर्थ होगा या नहीं। इसके अतिरिक्त ये भाव पूर्व जन्म के ऋणों को चुकाने के लिए या उनके कारण उत्पन्न होने वाले कष्टों और सुखों को सहन करने की योग्यता की सूचना भी देते हैं।जब कोई ग्रह षष्ठ भाव में होता है, तो स्पष्टतः द्वादश भाव को दृष्ट करता है और ऐसा ही द्वादश भाव में स्थित ग्रह भी करता है। षष्ठ भाव एक दुष्ट भाव है, इसमें कौन सा ग्रह कैसा फल देगा, इसको समझना है। षष्ठ भाव अपने भीतर अनेक फलों को रखता है। भावमञ्जरी (२/१६) के अनुसार षष्ठ से भाव शत्रु, रोग, घाव, षडरस, चिंता, व्यथा, भय, कमर, पशु, मामा, नाभि, अंग-भंग, विपत्ति, चोर, विघ्न, शंका, सौतेली माता, युद्ध, नेत्ररोग आदि का विचार करना चाहिए।जब कोई शुभ ग्रह षष्ठ भाव में होगा, तो वह षष्ठ भाव के समस्त फलों का शुभ फल नहीं देगा, अपितु कुछ फलों हेतु उत्तम रहेगा, शेष फलों के लिए वह हानिकारक होगा। इसी प्रकार जब पापग्रह षष्ठ भाव में हो, तो वह उन फलों के लिए अच्छा होगा, जिसके लिए कोई शुभग्रह हानिकारक हो। और वही पापग्रह उन फलों हेतु अशुभ होगा, जिसके लिए एक शुभग्रह अच्छा होता है।षष्ठ भाव ऋण का फल भी रखते। अभी यहाँ जिस ऋण की बात की जा रही है, वह धन विषयक नहीं बल्कि कर्म विषयक ऋण है, जिसे हम जन्मों-जन्मान्तरों से सञ्चित कर रहे हैं। अतः एक शुभ ग्रह की तुलना में एक पाप ग्रह षष्ठ भाव के अशुभ प्रभाव तुलनात्मक रूप से अधिक शमन करता है। षष्ठ भाव में शुभग्रह होने से भाव की दुष्टता में वृद्धि होती है, वहीं वह ग्रह द्वादश को दृष्ट कर षष्ठ भाव का लिंक द्वादश से जोड़ता है जिससे जातक को धनहानि सहित व्यय करना पड़ता है, फलतः इससे निकलने हेतु जातक को ऋण भी लेना पड़ता है।इसके विपरीत, षष्ठ भाव में यदि एक पापग्रह स्थित हो, तो वह उस भाव के नकारात्मक परिणामों को सीमित करेगा, किन्तु द्वादश भाव में दृष्टिपात करने के कारण अन्य प्रतिकूल फल देगा, जैसे अनिद्रा, अंग हानि, पद हानि आदि यदि द्वादश भाव में कोई पापग्रह स्थित हो स्वयं द्वादश को पीड़ित कर उपर्युक्त फल देगा, यद्यपि षष्ठ भाव पर पड़ने वाली दृष्टि, षष्ठ भाव के नकारात्मक फलों का शमन करेगी, क्योंकि षष्ठ भाव पर पड़ने वाली पापदृष्टि लंबित ऋण से मुक्ति या इसके होने का संकेत देती है।जब द्वादश भाव में एक शुभग्रह स्थित होता है, तो वह किसी मनोकामना की पूर्ति हेतु व्यय का सूचक होता है जिसे प्रायः प्रतिकूल नहीं माना जाता है विशेषतः जब वह लग्नेश हो।(क्रमशः)✍ज्यो० हेमन्त भट्ट

मोक्ष की प्राप्ति उस जातक की होती है, जो अपने समस्त कर्मों से मुक्त हो जाता है। कुण्डली का द्वादश भाव यदि मोक्ष का है, तो षष्ठ भाव उन कर्मरूपी ऋणों से मुक्त होने का है। 
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ये दोनों भाव स्पष्ट एवं निश्चित रूप से न केवल मुक्ति का सङ्केत देते हैं बल्कि यह भी बताते हैं कि क्या जातक वर्तमान जन्म में मोक्ष मार्ग का अवलम्बन कर पाने में समर्थ होगा या नहीं। इसके अतिरिक्त ये भाव पूर्व जन्म के ऋणों को चुकाने के लिए या उनके कारण उत्पन्न होने वाले कष्टों और सुखों को सहन करने की योग्यता की सूचना भी देते हैं।https://astronorway.blogspot.com/

जब कोई ग्रह षष्ठ भाव में होता है, तो स्पष्टतः द्वादश भाव को दृष्ट करता है और ऐसा ही द्वादश भाव में स्थित ग्रह भी करता है। षष्ठ भाव एक दुष्ट भाव है, इसमें कौन सा ग्रह कैसा फल देगा, इसको समझना है। 
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षष्ठ भाव अपने भीतर अनेक फलों को रखता है। भावमञ्जरी (२/१६) के अनुसार षष्ठ से भाव शत्रु, रोग, घाव, षडरस, चिंता, व्यथा, भय, कमर, पशु, मामा, नाभि, अंग-भंग, विपत्ति, चोर, विघ्न, शंका, सौतेली माता, युद्ध, नेत्ररोग आदि का विचार करना चाहिए।https://astronorway.blogspot.com/

जब कोई शुभ ग्रह षष्ठ भाव में होगा, तो वह षष्ठ भाव के समस्त फलों का शुभ फल नहीं देगा, अपितु कुछ फलों हेतु उत्तम रहेगा, शेष फलों के लिए वह हानिकारक होगा। 

इसी प्रकार जब पापग्रह षष्ठ भाव में हो, तो वह उन फलों के लिए अच्छा होगा, जिसके लिए कोई शुभग्रह हानिकारक हो। और वही पापग्रह उन फलों हेतु अशुभ होगा, जिसके लिए एक शुभग्रह अच्छा होता है।https://astronorway.blogspot.com/

षष्ठ भाव ऋण का फल भी रखते। अभी यहाँ जिस ऋण की बात की जा रही है, वह धन विषयक नहीं बल्कि कर्म विषयक ऋण है, जिसे हम जन्मों-जन्मान्तरों से सञ्चित कर रहे हैं। अतः एक शुभ ग्रह की तुलना में एक पाप ग्रह षष्ठ भाव के अशुभ प्रभाव तुलनात्मक रूप से अधिक शमन करता है। षष्ठ भाव में शुभग्रह होने से भाव की दुष्टता में वृद्धि होती है, वहीं वह ग्रह द्वादश को दृष्ट कर षष्ठ भाव का लिंक द्वादश से जोड़ता है जिससे जातक को धनहानि सहित व्यय करना पड़ता है, फलतः इससे निकलने हेतु जातक को ऋण भी लेना पड़ता है।
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इसके विपरीत, षष्ठ भाव में यदि एक पापग्रह स्थित हो, तो वह उस भाव के नकारात्मक परिणामों को सीमित करेगा, किन्तु द्वादश भाव में दृष्टिपात करने के कारण अन्य प्रतिकूल फल देगा, जैसे अनिद्रा, अंग हानि, पद हानि आदि https://astronorway.blogspot.com/

यदि द्वादश भाव में कोई पापग्रह स्थित हो स्वयं द्वादश को पीड़ित कर उपर्युक्त फल देगा, यद्यपि षष्ठ भाव पर पड़ने वाली दृष्टि, षष्ठ भाव के नकारात्मक फलों का शमन करेगी, क्योंकि षष्ठ भाव पर पड़ने वाली पापदृष्टि लंबित ऋण से मुक्ति या इसके होने का संकेत देती है।
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जब द्वादश भाव में एक शुभग्रह स्थित होता है, तो वह किसी मनोकामना की पूर्ति हेतु व्यय का सूचक होता है जिसे प्रायः प्रतिकूल नहीं माना जाता है विशेषतः जब वह लग्नेश हो।(क्रमशः)✍ज्यो० https://astronorway.blogspot.com/
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पोस्ट करने का उद्देश्य है कि जो व्यक्ति अपने सनातन धर्म के ऋषि मुनियों के विषय में नहीं जानते उन्हें जानकारी प्राप्त हो ।
 जो मूर्ख हिन्दू साईं बाबा और अजमेर के चक्कर लगाते हैं उन्हें आद्य गुरु शंकराचार्य जी के विषय में भी जानना चाहिए कि वे कितने सिद्ध पुरुष थे । 
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यह पोस्ट को लिखने के लिए कई लोगों के लेखों का सहयोग लिया गया है । 

पूज्य जगतगुरु श्री आद्य शंकराचार्य जी के विषय में कुछ भी लिखना सूर्य को दीपक दिखाने के समान हैं। भारत में वैदिक सनातन परंपरा की रक्षा, विकास और धर्म के प्रचार-प्रसार में जगतगुरु आद्य शंकराचार्य जी का अनमोल योगदान है। आज अद्वैत वेदांत के प्रणेता, सनातन धर्म के प्राणधार, कश्मीर से कन्याकुमारी तक सम्पूर्ण भारत को एक सूत्र में पिरोने वाले, सनातन धर्म की रक्षा करने वाले महायोद्धा और भगवान शंकर के अवतार माने जाने वाले परम महाज्ञानी विद्वान, अद्भुत तेजस्वी एवं प्रखर भविष्यदृष्टा महापुरुष जगतगुरु आद्य शंकराचार्य जी की जयंती है। जयंती पर हम उनको कोटि-कोटि नमन करते हैं। जगतगुरु आद्य शंकराचार्य जी ने उस समय देश में जिस तरह से अनेकों पंथों एवं विचारों की चुनौतियां सनातन धर्म के लिए उत्पन्न हो रही थी। उनसे बेहद सफलतापूर्वक बखूबी निपटकर और समाज को सत्य का दर्शन कराने के लिए देश में अद्वैत वेदांत का मार्ग प्रशस्त किया था। उन्होंने सम्पूर्ण भारत का भ्रमण करके देश को कश्मीर से लेकर केरल तक एक सूत्र में पिरोने का कार्य किया था।

जगतगुरु आद्य शंकराचार्य जी का जन्म 788 ई. में केरल के मालाबार क्षेत्र के छोटे से गाँव कालड़ी नामक स्थान पर नम्बूद्री ब्राह्मण शिवगुरु एवं आर्याम्बा के यहां हुआ था और वह मात्र 32 वर्ष तक ही जीवित रहे थे। शंकराचार्य जी के जन्म की एक छोटी सी कथा है जिसके अनुसार, शंकराचार्य के माता-पिता को बहुत समय तक कोई संतान प्राप्त नहीं हूई थी। तो उन दोनों ने कड़ी तपस्या की, कड़ी तपस्या के बाद भगवान शिव ने माता को सपने में दर्शन दिये और कहा कि, उनके पहले पुत्र के रूप मे वह स्वयं अवतारित होंगे परन्तु, उनकी आयु बहुत ही कम होगी और, शीघ्र ही वे देव लोक गमन कर लेंगे। शंकराचार्य जी जन्म से ही बिल्कुल अलग थे, वह स्वभाव में शांत और गंभीर थे। जो कुछ भी सुनते थे या पढ़ते थे, एक बार में ही समझ कर अपने मस्तिष्क मे बिठा लेते थे। शंकराचार्य जी ने सभी वेदों और लगभग छ: से अधिक वेदांतो में अल्पायु में ही महारथ हासिल कर ली थी। समय के साथ उनका यह ज्ञान अथाह सागर में तब्दील होता चला गया। उन्होंने अपने स्वयं इस ज्ञान को, बहुत तरह से जैसे- उपदेशो, रचनाओं के माध्यम से, देश में अलग-अलग मठों की स्थापना करके, धार्मिक ग्रन्थ लिख कर अलग-अलग तरह के सन्देशों के माध्यम से लोगों तक पहुचाया। वह संस्कृत भाषा के प्रकांड विद्वान थे।

शंकराचार्य ने देश के चारों कौनों पर चार मठों की स्थापना की थी। उत्तर दिशा में उन्होंने बद्रिकाश्रम में ज्योर्तिमठ की स्थापना की थी। इसके बाद पश्‍चिम दिशा में द्वारिका में शारदामठ की स्थापना की थी। इसके बाद उन्होंने दक्षिण में श्रंगेरी मठ की स्थापना की थी। इसके बाद उन्होंने पूर्व दिशा में जगन्नाथ पुरी में गोवर्धन मठ की स्थापना की थी। आप इन मठों में जाएंगे तो वहां इनकी स्थापना के बारे में लिखा हुआ समस्त विवरण जान सकते हैं। आद्य शंकराचार्य जी ने ब्रह्मसूत्रों की बड़ी ही विशद और रोचक व्याख्या की है। उनके विचारोपदेश आत्मा और परमात्मा की एकरूपता पर आधारित हैं, जिसके अनुसार परमात्मा एक ही समय में सगुण और निर्गुण दोनों ही स्वरूपों में रहता है। इन्होंने ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, मांडूक्य, ऐतरेय, तैत्तिरीय, बृहदारण्यक और छान्दोग्योपनिषद् पर भाष्य लिखा। वेदों में लिखे ज्ञान को एकमात्र ईश्वर को संबोधित समझा और उसका प्रचार-प्रसार तथा वार्ता पूरे भारतवर्ष में की। उस समय वेदों की समझ के बारे में मतभेद होने पर उत्पन्न चार्वाक, जैन और बौद्ध मतों को शास्त्रार्थों द्वारा खण्डित किया। और लोगों को सनातन धर्म के बारें में समझाया।

भारतीय परम्परा में जगतगुरु आद्य शंकराचार्य जी को भगवान शिव का अवतार माना जाता है। उनके जीवन के जब चमत्कारिक तथ्य सामने आते हैं, उससे प्रतीत होता है कि वास्तव में आद्य शंकराचार्य भगवान शिव के अवतार थे। जिस तरह से भगवान शिव की आराधना करने के बाद शिवगुरु ने पुत्र-रत्न पाया था, इसीलिए उन्होंने पुत्र का नाम शंकर रखा। जब ये तीन ही वर्ष के थे तब इनके पिता का देहांत हो गया। ये बड़े ही मेधावी तथा प्रतिभाशाली थे। छह वर्ष की अवस्था में ही ये प्रकांड विद्वान बन गए थे और आठ वर्ष की अवस्था में इन्होंने संन्यास ग्रहण किया था। इनके संन्यास ग्रहण करने के समय की कथा बड़ी विचित्र है। कहते हैं, माता एकमात्र पुत्र को संन्यासी बनने की आज्ञा नहीं देती थीं। तब एक दिन नदी किनारे एक मगरमच्छ ने शंकराचार्य जी का पैर पकड़ लिया, तब इस वक्त का फायदा उठाते शंकराचार्य जी ने अपनी माँ से कहा था कि- " माँ मुझे सन्यास लेने की आज्ञा दो नहीं तो यह मगरमच्छ मुझे खा जायेगा, इससे भयभीत होकर माता ने तुरंत इन्हें संन्यासी बनने की आज्ञा प्रदान कर दी और सबसे आश्चर्य की बात यह है की, जैसे ही माता ने आज्ञा दी वैसे तुरन्त मगरमच्छ ने शंकराचार्य जी का पैर छोड़ दिया।"

इसके बाद आठ वर्ष की अवस्था में गुरु श्री गोविन्द नाथ के शिष्यत्व को ग्रहण कर वो संन्यासी हो गये, पुन: वाराणसी से होते हुए बद्रिकाश्रम तक की पैदल यात्रा करना, सोलह वर्ष की अवस्था में बद्रीकाश्रम पहुंच कर ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखना, सम्पूर्ण भारत वर्ष में भ्रमण कर अद्वैत वेदान्त का प्रचार करना, दरभंगा के विद्वान मण्डन मिश्र से शास्त्रार्थ कर वेदान्त की दीक्षा देना तथा मण्डन मिश्र को संन्यास धारण कराना, भारतवर्ष में समाज में प्रचलित तत्कालीन कुरीतियों को दूर कर समभावदर्शी धर्म की स्थापना करना। इत्यादि कार्य इनके महत्व को और बढ़ा देता है। चार धार्मिक मठों में दक्षिण के शृंगेरी शंकराचार्यपीठ, पूर्व (ओडिशा) जगन्नाथपुरी में गोवर्धनपीठ, पश्चिम द्वारिका में शारदामठ तथा बद्रिकाश्रम में ज्योतिर्पीठ भारत की एकात्मकता को आज के समय में भी दिग्दर्शित कर रहा है। देश में कुछ लोग शृंगेरी को शारदापीठ तथा गुजरात के द्वारिका में मठ को काली मठ कहते है। आज उन्हीं के दिखाये मार्ग के अनुसार हिन्दू धर्म में शंकराचार्य सर्वोच्च धर्म गुरु का पद है, इस पद की परम्परा आद्य जगतगुरु शंकराचार्य ने खुद ही शुरू की थी। शंकराचार्य ने सनातन धर्म के प्रचार-प्रसार और प्रतिष्ठा के लिए भारत के 4 क्षेत्रों में जो चार मठ स्थापित किए थे। उन्होंने अपने नाम वाले इस शंकराचार्य पद पर अपने चार मुख्य शिष्यों को बैठाया था। जिसके बाद से इन चारों मठों में शंकराचार्य पद को निभाने की परंपरा लगातार चलती आ रही है

आद्य शंकराचार्य ने ही दसनामी सम्प्रदाय की स्थापना की थी। यह दस संप्रदाय निम्न प्रकार हैं - 1.गिरि, 2.पर्वत और 3.सागर, इनके ऋषि हैं भ्रगु। 4.पुरी, 5.भारती और 6.सरस्वती, इनके शांडिल्य ऋषि हैं। 7.वन और 8.अरण्य, इनके ऋषि काश्यप हैं। 9.तीर्थ और 10. आश्रम, इनके ऋषि अवगत हैं। शंकराचार्य जी ने इनकी स्थापना करके, हिंदू धर्मगुरू के रूप में हिंदुओं के प्रचार प्रसार व रक्षा का कार्य इन सभी अखाड़ों को सौपा और उन्हें अपना आध्यात्मिक उत्तराधिकारी भी बताया था । 

आदि शंकराचार्य ने अपने गुरु की छत्रछाया में रहकर ‘गौड़पादिया कारिका’, ‘ब्रह्मसूत्र’, वेद और उपनिषदों का अध्ययन किया। अपने गुरु के छत्रछाया में रहकर उन्होंने सभी वेदों एवं धार्मिक ग्रंथों का संपूर्ण रूप से अध्ययन कर लिया था। जब वह पूरी तरह से प्राचीन हिंदू धर्म की लिपियों को समझ चुके थे, तब उन्होंने ‘अद्वैत वेदांत’ और ‘दशनामी संप्रदाय’ का प्रचार करते हुए पूरे भारतवर्ष की यात्रा की। उनकी इस यात्रा के दौरान उनको कई दार्शनिकों का विरोध झेलना और विचारकों का सामना करना पड़ा था।

सभी के अतिरिक्त आदि शंकराचार्य जी हिंदू धर्म और उसकी मान्यताओं से संबंधित कई शास्त्रार्तथ में शामिल हुए थे और उन्होंने अपनी बुद्धिमता और स्पष्टता के साथ अपने सभी विरोधियों को उनका सही सही उत्तर देकर उनको आश्चर्यचकित कर दिया था । इस के बाद वे अपने उद्देश्य की ओर आगे बढ़े और उनको कई सारे लोग मिलते गए, जिन्होंने उन्हें गुरु के रूप में भी स्वीकार किया।

हिंदू धर्म में आदि शंकराचार्य की महत्वता
आदि शंकराचार्य जी ने हिंदू धर्म को बहुत ही अच्छी तरह से समझ कर एवं इसके सांस्कृतिक एवं धार्मिक मान्यताओं को पूरे विश्व में प्रचार प्रसार करने का बीड़ा उठाया था। आदि शंकराचार्य जी ने हिंदू धर्म के हित में ऐसे बहुत से महत्वपूर्ण कार्य किए हैं, जो आज भारतीय इतिहास के लिए गर्व की बात है।
हिंदू धर्म में पहले एक दूसरे के प्रति भेदभाव एवं ऊंच-नीच आदि के व्यवहार को खत्म करने के लिए अपना बहुत योगदान दिया हुआ है । शंकराचार्य जी ने हिंदू धर्म को सर्वश्रेष्ठ बताते हुए ईश्वर के प्रति आस्था और ईश्वर के महत्वता को लोगों को समझाने का कार्य किया है । उनके द्वारा किए गए सभी प्रकार के महत्वपूर्ण कार्यों को आज की पीढ़ी कहीं ना कहीं पर अवश्य याद करती है।

 गुरु की आज्ञा पर शंकराचार्य जी काशी पहुंचे गए, जहां गंगा तट पर उनका एक चाण्डाल से सामना होता है।
चाण्डाल ने जैसे शंकराचार्य को स्पर्श किया, शंकराचार्य जी कुपित हो उठे। तब चांडाल ने हंसते हुए शंकराचार्य से पूछा कि आत्मा और परमात्मा जब एक है तब तुम्हारे देह को स्पर्श करने पर कौन अपवित्र हुआ? तुम या तुम्हारे देह का अभिमान? परमात्मा सभी की आत्मा में है। इसीलिए एक सन्यासी होकर ऐसा विचार रखना सही नहीं। ऐसा विचार रखोगे तो तुम्हारे संन्यासी होने का कोई अर्थ नहीं होगा। माना जाता है कि वह चांडाल नहीं था बल्कि चांडाल के रूप में साक्षात भगवान शंकर थे, जिन्होंने शंकराचार्य जी को दर्शन दिया और उन्हें ब्रह्मा और आत्मा का सच्चा ज्ञान भी दिया है और इसी ज्ञान को प्राप्त कर के शंकराचार्य जी दुर्ग रास्ते से होते हुए बद्रिकाश्रम पहुंचे, जहां पर वे चार वर्ष रह कर तहारत पर भाष्य लिखा और वहीं से फिर वे केदारनाथ के लिए रवाना हुए।

💥 सौंदर्य लहरी आदि गुरु शंकराचार्य जी की लिखी हुई साधना से संबंधित सबसे महत्वपूर्ण एवं प्रभावशाली ग्रंथ है । माता आदिशक्ति की कृपा एवं आशीर्वाद प्राप्त करने के बाद उन्होंने इस ग्रंथ की रचना की थी । इसे स्त्रोत्र के रूप में पाठ किया जाता है । इसमें लगभग 100 मंत्र है और उन मंत्रों के माध्यम से विशेष तंत्र की साधनाये की जाती है जो बहुत ही प्रभावशाली हैं ।
श्री कनकधारा स्त्रोत्र , श्री कालिकाष्टकं , श्री दुर्गा सप्तशती में देव्यपराधक्षमापनस्तोत्रं जैसे महत्वपूर्ण स्तोत्र की रचना भी इन्होंने किया ।
उन्हें कई तरह की सिद्धियां प्राप्त थी जैसे परकाया प्रवेश इत्यादि ।
शंकराचार्य जी अपने जीवन काल में कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक भारतवर्ष की यात्रा की और चारों तरफ धर्म का प्रचार प्रसार किया।
अपनी यात्रा के दौरान उन्होंने कई विद्वानों से शास्त्रार्थ भी किया। इन्होंने समस्त भारतवर्ष में भ्रमण के दौरान बौद्ध धर्म को मिथ्या प्रमाणित किया और वेद धर्म का प्रचार प्रसार किया, जिसके कारण कुछ बौद्ध इन्हें शत्रु समझते थे। लेकिन शंकराचार्य जी ने उन सभी बौद्धो को शास्त्रार्थ में पराजित करके पुन: स्थापना वैदिक धर्म की स्थापना की।
इन सबके अतिरिक्त शंकराचार्य की 14 से ज्यादा ज्ञात आत्मकथाएं भी हैं, जिनमें उनके जीवन को दर्शाया गया है। उनके कुछ आत्मकथाओं का नाम गुरुविजय, शंकरभ्युदय और शंकराचार्यचरित करके है।

आदि शंकराचार्य की मृत्यु कैसे हुई?
विद्वानों का मानना है कि जब आदि शंकराचार्य जी की उम्र 32 वर्ष की हुई तब उन्होंने हिमालय से अपना सेवानिवृत्त किया और फिर केदारनाथ के पास एक गुफा में चले गए।
ऐसा कहा जाता है कि जिस गुफा में वे प्रवेश किए थे, वहां वे दुबारा दिखाई नहीं दिए और यही कारण है, कि वह गुफा उनका अंतिम विश्राम स्थल माना जाता है।https://astronorway.blogspot.com/
पोस्ट करने का उद्देश्य है कि जो व्यक्ति अपने सनातन धर्म के ऋषि मुनियों के विषय में नहीं जानते उन्हें जानकारी प्राप्त हो ।
 जो मूर्ख हिन्दू साईं बाबा और अजमेर के चक्कर लगाते हैं उन्हें आद्य गुरु शंकराचार्य जी के विषय में भी जानना चाहिए कि वे कितने सिद्ध पुरुष थे । 
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यह पोस्ट को लिखने के लिए कई लोगों के लेखों का सहयोग लिया गया है । 

पूज्य जगतगुरु श्री आद्य शंकराचार्य जी के विषय में कुछ भी लिखना सूर्य को दीपक दिखाने के समान हैं। भारत में वैदिक सनातन परंपरा की रक्षा, विकास और धर्म के प्रचार-प्रसार में जगतगुरु आद्य शंकराचार्य जी का अनमोल योगदान है। आज अद्वैत वेदांत के प्रणेता, सनातन धर्म के प्राणधार, कश्मीर से कन्याकुमारी तक सम्पूर्ण भारत को एक सूत्र में पिरोने वाले, सनातन धर्म की रक्षा करने वाले महायोद्धा और भगवान शंकर के अवतार माने जाने वाले परम महाज्ञानी विद्वान, अद्भुत तेजस्वी एवं प्रखर भविष्यदृष्टा महापुरुष जगतगुरु आद्य शंकराचार्य जी की जयंती है। जयंती पर हम उनको कोटि-कोटि नमन करते हैं। जगतगुरु आद्य शंकराचार्य जी ने उस समय देश में जिस तरह से अनेकों पंथों एवं विचारों की चुनौतियां सनातन धर्म के लिए उत्पन्न हो रही थी। उनसे बेहद सफलतापूर्वक बखूबी निपटकर और समाज को सत्य का दर्शन कराने के लिए देश में अद्वैत वेदांत का मार्ग प्रशस्त किया था। उन्होंने सम्पूर्ण भारत का भ्रमण करके देश को कश्मीर से लेकर केरल तक एक सूत्र में पिरोने का कार्य किया था।

जगतगुरु आद्य शंकराचार्य जी का जन्म 788 ई. में केरल के मालाबार क्षेत्र के छोटे से गाँव कालड़ी नामक स्थान पर नम्बूद्री ब्राह्मण शिवगुरु एवं आर्याम्बा के यहां हुआ था और वह मात्र 32 वर्ष तक ही जीवित रहे थे। शंकराचार्य जी के जन्म की एक छोटी सी कथा है जिसके अनुसार, शंकराचार्य के माता-पिता को बहुत समय तक कोई संतान प्राप्त नहीं हूई थी। तो उन दोनों ने कड़ी तपस्या की, कड़ी तपस्या के बाद भगवान शिव ने माता को सपने में दर्शन दिये और कहा कि, उनके पहले पुत्र के रूप मे वह स्वयं अवतारित होंगे परन्तु, उनकी आयु बहुत ही कम होगी और, शीघ्र ही वे देव लोक गमन कर लेंगे। शंकराचार्य जी जन्म से ही बिल्कुल अलग थे, वह स्वभाव में शांत और गंभीर थे। जो कुछ भी सुनते थे या पढ़ते थे, एक बार में ही समझ कर अपने मस्तिष्क मे बिठा लेते थे। शंकराचार्य जी ने सभी वेदों और लगभग छ: से अधिक वेदांतो में अल्पायु में ही महारथ हासिल कर ली थी। समय के साथ उनका यह ज्ञान अथाह सागर में तब्दील होता चला गया। उन्होंने अपने स्वयं इस ज्ञान को, बहुत तरह से जैसे- उपदेशो, रचनाओं के माध्यम से, देश में अलग-अलग मठों की स्थापना करके, धार्मिक ग्रन्थ लिख कर अलग-अलग तरह के सन्देशों के माध्यम से लोगों तक पहुचाया। वह संस्कृत भाषा के प्रकांड विद्वान थे।

शंकराचार्य ने देश के चारों कौनों पर चार मठों की स्थापना की थी। उत्तर दिशा में उन्होंने बद्रिकाश्रम में ज्योर्तिमठ की स्थापना की थी। इसके बाद पश्‍चिम दिशा में द्वारिका में शारदामठ की स्थापना की थी। इसके बाद उन्होंने दक्षिण में श्रंगेरी मठ की स्थापना की थी। इसके बाद उन्होंने पूर्व दिशा में जगन्नाथ पुरी में गोवर्धन मठ की स्थापना की थी। आप इन मठों में जाएंगे तो वहां इनकी स्थापना के बारे में लिखा हुआ समस्त विवरण जान सकते हैं। आद्य शंकराचार्य जी ने ब्रह्मसूत्रों की बड़ी ही विशद और रोचक व्याख्या की है। उनके विचारोपदेश आत्मा और परमात्मा की एकरूपता पर आधारित हैं, जिसके अनुसार परमात्मा एक ही समय में सगुण और निर्गुण दोनों ही स्वरूपों में रहता है। इन्होंने ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, मांडूक्य, ऐतरेय, तैत्तिरीय, बृहदारण्यक और छान्दोग्योपनिषद् पर भाष्य लिखा। वेदों में लिखे ज्ञान को एकमात्र ईश्वर को संबोधित समझा और उसका प्रचार-प्रसार तथा वार्ता पूरे भारतवर्ष में की। उस समय वेदों की समझ के बारे में मतभेद होने पर उत्पन्न चार्वाक, जैन और बौद्ध मतों को शास्त्रार्थों द्वारा खण्डित किया। और लोगों को सनातन धर्म के बारें में समझाया।

भारतीय परम्परा में जगतगुरु आद्य शंकराचार्य जी को भगवान शिव का अवतार माना जाता है। उनके जीवन के जब चमत्कारिक तथ्य सामने आते हैं, उससे प्रतीत होता है कि वास्तव में आद्य शंकराचार्य भगवान शिव के अवतार थे। जिस तरह से भगवान शिव की आराधना करने के बाद शिवगुरु ने पुत्र-रत्न पाया था, इसीलिए उन्होंने पुत्र का नाम शंकर रखा। जब ये तीन ही वर्ष के थे तब इनके पिता का देहांत हो गया। ये बड़े ही मेधावी तथा प्रतिभाशाली थे। छह वर्ष की अवस्था में ही ये प्रकांड विद्वान बन गए थे और आठ वर्ष की अवस्था में इन्होंने संन्यास ग्रहण किया था। इनके संन्यास ग्रहण करने के समय की कथा बड़ी विचित्र है। कहते हैं, माता एकमात्र पुत्र को संन्यासी बनने की आज्ञा नहीं देती थीं। तब एक दिन नदी किनारे एक मगरमच्छ ने शंकराचार्य जी का पैर पकड़ लिया, तब इस वक्त का फायदा उठाते शंकराचार्य जी ने अपनी माँ से कहा था कि- " माँ मुझे सन्यास लेने की आज्ञा दो नहीं तो यह मगरमच्छ मुझे खा जायेगा, इससे भयभीत होकर माता ने तुरंत इन्हें संन्यासी बनने की आज्ञा प्रदान कर दी और सबसे आश्चर्य की बात यह है की, जैसे ही माता ने आज्ञा दी वैसे तुरन्त मगरमच्छ ने शंकराचार्य जी का पैर छोड़ दिया।"

इसके बाद आठ वर्ष की अवस्था में गुरु श्री गोविन्द नाथ के शिष्यत्व को ग्रहण कर वो संन्यासी हो गये, पुन: वाराणसी से होते हुए बद्रिकाश्रम तक की पैदल यात्रा करना, सोलह वर्ष की अवस्था में बद्रीकाश्रम पहुंच कर ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखना, सम्पूर्ण भारत वर्ष में भ्रमण कर अद्वैत वेदान्त का प्रचार करना, दरभंगा के विद्वान मण्डन मिश्र से शास्त्रार्थ कर वेदान्त की दीक्षा देना तथा मण्डन मिश्र को संन्यास धारण कराना, भारतवर्ष में समाज में प्रचलित तत्कालीन कुरीतियों को दूर कर समभावदर्शी धर्म की स्थापना करना। इत्यादि कार्य इनके महत्व को और बढ़ा देता है। चार धार्मिक मठों में दक्षिण के शृंगेरी शंकराचार्यपीठ, पूर्व (ओडिशा) जगन्नाथपुरी में गोवर्धनपीठ, पश्चिम द्वारिका में शारदामठ तथा बद्रिकाश्रम में ज्योतिर्पीठ भारत की एकात्मकता को आज के समय में भी दिग्दर्शित कर रहा है। देश में कुछ लोग शृंगेरी को शारदापीठ तथा गुजरात के द्वारिका में मठ को काली मठ कहते है। आज उन्हीं के दिखाये मार्ग के अनुसार हिन्दू धर्म में शंकराचार्य सर्वोच्च धर्म गुरु का पद है, इस पद की परम्परा आद्य जगतगुरु शंकराचार्य ने खुद ही शुरू की थी। शंकराचार्य ने सनातन धर्म के प्रचार-प्रसार और प्रतिष्ठा के लिए भारत के 4 क्षेत्रों में जो चार मठ स्थापित किए थे। उन्होंने अपने नाम वाले इस शंकराचार्य पद पर अपने चार मुख्य शिष्यों को बैठाया था। जिसके बाद से इन चारों मठों में शंकराचार्य पद को निभाने की परंपरा लगातार चलती आ रही है

आद्य शंकराचार्य ने ही दसनामी सम्प्रदाय की स्थापना की थी। यह दस संप्रदाय निम्न प्रकार हैं - 1.गिरि, 2.पर्वत और 3.सागर, इनके ऋषि हैं भ्रगु। 4.पुरी, 5.भारती और 6.सरस्वती, इनके शांडिल्य ऋषि हैं। 7.वन और 8.अरण्य, इनके ऋषि काश्यप हैं। 9.तीर्थ और 10. आश्रम, इनके ऋषि अवगत हैं। शंकराचार्य जी ने इनकी स्थापना करके, हिंदू धर्मगुरू के रूप में हिंदुओं के प्रचार प्रसार व रक्षा का कार्य इन सभी अखाड़ों को सौपा और उन्हें अपना आध्यात्मिक उत्तराधिकारी भी बताया था । 

आदि शंकराचार्य ने अपने गुरु की छत्रछाया में रहकर ‘गौड़पादिया कारिका’, ‘ब्रह्मसूत्र’, वेद और उपनिषदों का अध्ययन किया। अपने गुरु के छत्रछाया में रहकर उन्होंने सभी वेदों एवं धार्मिक ग्रंथों का संपूर्ण रूप से अध्ययन कर लिया था। जब वह पूरी तरह से प्राचीन हिंदू धर्म की लिपियों को समझ चुके थे, तब उन्होंने ‘अद्वैत वेदांत’ और ‘दशनामी संप्रदाय’ का प्रचार करते हुए पूरे भारतवर्ष की यात्रा की। उनकी इस यात्रा के दौरान उनको कई दार्शनिकों का विरोध झेलना और विचारकों का सामना करना पड़ा था।

सभी के अतिरिक्त आदि शंकराचार्य जी हिंदू धर्म और उसकी मान्यताओं से संबंधित कई शास्त्रार्तथ में शामिल हुए थे और उन्होंने अपनी बुद्धिमता और स्पष्टता के साथ अपने सभी विरोधियों को उनका सही सही उत्तर देकर उनको आश्चर्यचकित कर दिया था । इस के बाद वे अपने उद्देश्य की ओर आगे बढ़े और उनको कई सारे लोग मिलते गए, जिन्होंने उन्हें गुरु के रूप में भी स्वीकार किया।

हिंदू धर्म में आदि शंकराचार्य की महत्वता
आदि शंकराचार्य जी ने हिंदू धर्म को बहुत ही अच्छी तरह से समझ कर एवं इसके सांस्कृतिक एवं धार्मिक मान्यताओं को पूरे विश्व में प्रचार प्रसार करने का बीड़ा उठाया था। आदि शंकराचार्य जी ने हिंदू धर्म के हित में ऐसे बहुत से महत्वपूर्ण कार्य किए हैं, जो आज भारतीय इतिहास के लिए गर्व की बात है।
हिंदू धर्म में पहले एक दूसरे के प्रति भेदभाव एवं ऊंच-नीच आदि के व्यवहार को खत्म करने के लिए अपना बहुत योगदान दिया हुआ है । शंकराचार्य जी ने हिंदू धर्म को सर्वश्रेष्ठ बताते हुए ईश्वर के प्रति आस्था और ईश्वर के महत्वता को लोगों को समझाने का कार्य किया है । उनके द्वारा किए गए सभी प्रकार के महत्वपूर्ण कार्यों को आज की पीढ़ी कहीं ना कहीं पर अवश्य याद करती है।

 गुरु की आज्ञा पर शंकराचार्य जी काशी पहुंचे गए, जहां गंगा तट पर उनका एक चाण्डाल से सामना होता है।
चाण्डाल ने जैसे शंकराचार्य को स्पर्श किया, शंकराचार्य जी कुपित हो उठे। तब चांडाल ने हंसते हुए शंकराचार्य से पूछा कि आत्मा और परमात्मा जब एक है तब तुम्हारे देह को स्पर्श करने पर कौन अपवित्र हुआ? तुम या तुम्हारे देह का अभिमान? परमात्मा सभी की आत्मा में है। इसीलिए एक सन्यासी होकर ऐसा विचार रखना सही नहीं। ऐसा विचार रखोगे तो तुम्हारे संन्यासी होने का कोई अर्थ नहीं होगा। माना जाता है कि वह चांडाल नहीं था बल्कि चांडाल के रूप में साक्षात भगवान शंकर थे, जिन्होंने शंकराचार्य जी को दर्शन दिया और उन्हें ब्रह्मा और आत्मा का सच्चा ज्ञान भी दिया है और इसी ज्ञान को प्राप्त कर के शंकराचार्य जी दुर्ग रास्ते से होते हुए बद्रिकाश्रम पहुंचे, जहां पर वे चार वर्ष रह कर तहारत पर भाष्य लिखा और वहीं से फिर वे केदारनाथ के लिए रवाना हुए।

💥 सौंदर्य लहरी आदि गुरु शंकराचार्य जी की लिखी हुई साधना से संबंधित सबसे महत्वपूर्ण एवं प्रभावशाली ग्रंथ है । माता आदिशक्ति की कृपा एवं आशीर्वाद प्राप्त करने के बाद उन्होंने इस ग्रंथ की रचना की थी । इसे स्त्रोत्र के रूप में पाठ किया जाता है । इसमें लगभग 100 मंत्र है और उन मंत्रों के माध्यम से विशेष तंत्र की साधनाये की जाती है जो बहुत ही प्रभावशाली हैं ।
श्री कनकधारा स्त्रोत्र , श्री कालिकाष्टकं , श्री दुर्गा सप्तशती में देव्यपराधक्षमापनस्तोत्रं जैसे महत्वपूर्ण स्तोत्र की रचना भी इन्होंने किया ।
उन्हें कई तरह की सिद्धियां प्राप्त थी जैसे परकाया प्रवेश इत्यादि ।
शंकराचार्य जी अपने जीवन काल में कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक भारतवर्ष की यात्रा की और चारों तरफ धर्म का प्रचार प्रसार किया।
अपनी यात्रा के दौरान उन्होंने कई विद्वानों से शास्त्रार्थ भी किया। इन्होंने समस्त भारतवर्ष में भ्रमण के दौरान बौद्ध धर्म को मिथ्या प्रमाणित किया और वेद धर्म का प्रचार प्रसार किया, जिसके कारण कुछ बौद्ध इन्हें शत्रु समझते थे। लेकिन शंकराचार्य जी ने उन सभी बौद्धो को शास्त्रार्थ में पराजित करके पुन: स्थापना वैदिक धर्म की स्थापना की।
इन सबके अतिरिक्त शंकराचार्य की 14 से ज्यादा ज्ञात आत्मकथाएं भी हैं, जिनमें उनके जीवन को दर्शाया गया है। उनके कुछ आत्मकथाओं का नाम गुरुविजय, शंकरभ्युदय और शंकराचार्यचरित करके है।

आदि शंकराचार्य की मृत्यु कैसे हुई?
विद्वानों का मानना है कि जब आदि शंकराचार्य जी की उम्र 32 वर्ष की हुई तब उन्होंने हिमालय से अपना सेवानिवृत्त किया और फिर केदारनाथ के पास एक गुफा में चले गए।
ऐसा कहा जाता है कि जिस गुफा में वे प्रवेश किए थे, वहां वे दुबारा दिखाई नहीं दिए और यही कारण है, कि वह गुफा उनका अंतिम विश्राम स्थल माना जाता है।